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सुप्रीम कोर्ट का 24 हफ्तों के गर्भपात संबंधी फैसला हमारी सामाजिक मान्यताओं पर आधारित, दूसरे पहलू पर भी करना चाहिए था गौर

सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में 24 माह से अधिक के गर्भ को अबॉर्ट करवाने की अनुमति देने से मना कर दिया. इतना ही नहीं माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में ये भी कहा कि यह तो भानुमती का पिटारा खोल देगा. इसके साथ ही कोर्ट ने इस बात पर भी आश्चर्य जताया कि एक शादीशुदा और एक बच्चे की मां को यह पता कैसे नहीं चला कि वह गर्भवती है. इस फैसले पर एक नए सिरे से बहस छिड़ी है कि माननीय न्यायालय को महिलाओं के नजरिए से भी विचार करना चाहिए था. 

महिला को देना होगा उसके शरीर पर हक

सुप्रीम कोर्ट ने 24 हफ्तों के गर्भपात को लेकर जो भी फैसला दिया है, वह एक तरह से हमारे समाज की जो मान्यता है, उतने ही सीमित ढंग से सोचा है. उन्होंने ये बात ध्यान नहीं रखी है कि जब एक संतान पैदा होती है तो केवल गर्भ में रखना और जन्म देना ही महिला की जिम्मेदारी नहीं होती है, बल्कि उसका पालन-पोषण करना, उसको बड़ा करना और इस सबमें जो खर्चा आएगा, वो भी महिला की जिम्मेदारी है. हमारे यहां चूंकि कोई जॉइंट पैरेंटिंग का कोई कॉन्सेप्ट नहीं है, तो अधिकांश पति कोई जिम्मेदारी नहीं लेते. यह तो नहीं कहा जा सकता कि कोई पति नहीं लेता है, लेकिन अधिकांश पति कोई जिम्मेदारी नहीं उठाते. ऐसे में अगर महिला को ये चॉइस नहीं होगी कि वह चाहे तो बच्चा पैदा करे, नहीं चाहे तो बच्चा पैदा नहीं करे, इसमें शादीशुदा और कुंआरी का कोई फर्क नहीं है.

अगर महिला का शरीर है, बच्चा पैदा कर अगर वो उसे उसे पालना चाहती है तो उसको ये पसंद देनी होगी, उसको ये मौका देना होगा. सुप्रीम कोर्ट ने कहीं ये नहीं कहा कि पुरुष की भी जिम्मेदारी है उसे पालने में, सुप्रीम कोर्ट ने यह नहीं कहा कि जॉइंट पैरेंटिंग की जिम्मेदारी हमारे देश में एक सिद्धांत के तौर पर विकसित होनी चाहिए. यह जरूर कह दिया है कि महिला चूंकि शादीशुदा है तो बच्चा पैदा करना और पालना उसकी जिम्मेदारी है. यह महिला का शरीर है, तो उसको पूरा हक होना चाहिए, पूरी चॉइस होनी चाहिए. 

महिला के पास गर्भपात के हो सकते हैं कई कारण

ये तो मेडिकल बोर्ड ही निर्धारित कर सकता है कि महिला को पता चला या नहीं कि वह गर्भवती हो गयी है. हालांकि, यह कोई अचंभे की बात नहीं है. ऐसा कभी-कभार होता है. लगता है कि कुछ और हो रहा है और गर्भ रह जाता है, उससे संबंधित बातें शुरू हो जाती हैं. खासकर, जब पहला बच्चा हो चुका हो तो जो स्थितियां नॉर्मल कही जाती हैं, वह होता रहता है और महिला को पता नहीं चलता है. एक बात ये भी है कि इसका फैसला तो कोई मेडिकल बोर्ड ही उस महिला की परीक्षा कर तय कर सकता है न कि महिला को इन-इन वजहों से ये पता होना चाहिए था, जब तक वैसा नहीं होता तब तक चार पुरुष बैठकर भला महिला के बारे में ये कैसे तय कर सकते हैं? अक्सर ऐसा होता है कि कोर्ट का दरवाजा खटखटाते-खटखटाते हुए देर हो जाती है. सात दिन होते ही क्या हैं...तो एक हफ्ता और निकल जाता है.

दूसरा, सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बेहद ध्यान से पढ़ने पर भी यह कहीं नहीं मिला कि कोर्ट ने निर्देश दिया हो कि मामला जैसे ही आए, वैसे ही उसकी सुनवाई हो. इस मामले में तारीख पर तारीख तो नहीं चल सकता है न. तीसरी और अंतिम बात यह है कि एक बच्चे को पालते हुए अगर कहीं से उस महिला के पास यह कारण आ गया कि वह संतान को जन्म नहीं देना चाहे- पति से मनमुटाव हो गया हो, आर्थिक स्थिति बदहाल हो गयी हो जो कोविड के बाद बहुत लोगों के साथ हुआ-तो, इसको बड़े संदर्भ में देखना चाहिए. शरीर पर अधिकार और बच्चे को लाकर लालन-पालन करने का पूरा जुगाड़ है कि नहीं, इन दोनों ही बातों पर ध्यान देकर फैसला देना चाहिए. अब चूंकि माननीय सुप्रीम कोर्ट का फैसला है, तो उस महिला को बच्चा पैदा करना पड़ेगा तो क्या सुप्रीम कोर्ट इस बात की व्यवस्था कर रहा है कि बच्चे का लालन-पालन हो सके. जैसे, दूसरे देशों में व्यवस्था होती है कि स्टेट यानी राज्य पाल लेता है, तो क्या ऐसा कुछ आदेश दिया गया है? नहीं. तो, अब उस मां को बच्चा पैदा करना भी होगा और पालना भी होगा. 24 हफ्ते के बच्चे को अबॉर्ट करने का फैसला वैसे भी मां के लिए दुखदायी है, लेकिन वे स्थितियां तो अभी भी बनी ही हुईं होंगी, तो उन कारणों पर जरूर जाना चाहिए. 

समयसीमा केवल मेडिकल फ्रैटर्निटी तय करे

मेडिकल फ्रैटर्निटी का यह भी एक सोचना था कि गर्भपात की समयसीमा को बढ़ाकर 26 हफ्ते किया जा सकता है. तो, अगर महिला के जीवन पर खतरा नहीं है और मेडिकली गर्भपात हो सकता है, तो यह बिंदु भी सोचने लायक है. दूसरे, शादीशुदा और कुंआरी की तो बात ही नहीं है क्योंकि एमटीपी एक्ट में तो साफ-साफ कहा गया है कि अगर कोई कुंआरी लड़की मां बननेवाली है तो उसे गर्भपात कराने का अधिकार है. पहले तो वह डर के मारे डॉक्टर को बताती नहीं थी कि बदनामी हो जाएगी या फिर डॉक्टर्स ये करते नहीं थे, तो यह अधिकार तो कानूनी तौर पर मिल चुका है. कानूनन शादीशुदा और कुंआरी का कोई फर्क नहीं है.

कानून तो यही कहता है कि अगर कोई गर्भवती है और वह गर्भ 24 हफ्ते का हो गया है, वह उसे जन्म नहीं देना चाहती है तो उसे गर्भपात का अधिकार है. हालांकि, अगर किसी जान को बचाना है तो यह भी सोचना चाहिए कि उस जान को आगे क्या-क्या होगा? इस तरह की संस्थाएं बनायी जाएं जो इस तरह के बच्चों को देख सके, सार-संभाल कर सके. महिलाओं को तो कई तरह से मजबूर किया जाता है. उसे बच्चा पैदा करना होता है, फिर अगर वह नौकरीशुदा है तो नौकरी छोड़नी होती है, अगर वह मजदूर है तो बच्चों को लेकर नौकरी या मजदूरी करनी होती है. तो, बच्चों को पैदा करने के लिए मजबूर करने से पहले उस लायक स्थितियां बनायी जाएं. जहां तक समयसीमा की बात है, जिसमें मां और बच्चे के जीवन पर कोई खतरा नहीं तय हो, यह तो केवल एक डॉक्टर तय कर सकता या सकती है. एक गायनकोलॉजिस्ट ही यह तय करे. अगर चॉइस हो बच्चे और मां के जीवन की, तो यह चीजें हमें मेडिकल फ्रैटर्निटी पर छोड़ देनी चाहिए. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]

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