कांग्रेस में सब कुछ ठीक नहीं है लेकिन हैरानी ये है कि पार्टी को दुरुस्त करने के लिए गांधी परिवार की तरफ से भी कोई ईमानदार कोशिश होती हुई नहीं दिखती.अगर ऐसा हुआ होता, तो पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया, फिर जितिन प्रसाद और अब सुष्मिता देव को कांग्रेस को अलविदा करने की नौबत शायद ही आई होती. कांग्रेस नेतृत्व को इस पर बेहद गंभीरता से सोचना चाहिए कि आखिर युवा नेता ही पार्टी क्यों छोड़ रहे हैं. क्योंकि अगर ये सिलसिला ऐसे ही जारी रहा तो अगले साल उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले पार्टी को ऐसे कई झटके झेलने के लिये तैयार रहना होगा.


सुष्मिता देव असम से कांग्रेस की सांसद भी रह चुकी हैं और फिलहाल ऑल इंडिया महिला कांग्रेस की अध्यक्ष बनी हुई थीं. ऐसा तो हो नहीं सकता कि उन्होंने ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस का दामन थामने का फैसला अचानक लिया हो. जाहिर है कि कहीं न कहीं कुछ ऐसा जरूर हुआ होगा जिसके कारण उनके और पार्टी नेतृत्व के बीच रिश्तों की ऐसी खटास उभरी कि सुष्मिता को अपना राजनीतिक भविष्य संवारने के लिए टीएमसी ही सबसे बेहतर विकल्प दिखाई दिया और उन्होंने सही वक्त पर कांग्रेस छोड़ने का एलान कर दिया.


कांग्रेस के लिए सुष्मिता का चले जाना कोई साधारण बात नहीं है बल्कि ये एक ऐसा झटका है, जिससे उबरने में राहुल-प्रियंका गांधी को वक़्त लगेगा. लेकिन उससे भी ज्यादा अहम ये है कि अब दोनों भाई-बहनों को पार्टी के दूसरे अनुभवी नेताओं के साथ ये मशविरा करना चाहिए कि अगर नेतृत्व परिवर्तन करना ही एकमात्र उपाय है, तो फिर पार्टी की कमान किसे सौंपी जाए. पिछले साल भर में पार्टी के भीतर ही विरोध के स्वर जिस तेजी के साथ मुखर हुए हैं, उससे देश की सबसे पुरानी पार्टी की इमेज एक डूबते हुए जहाज़ की बनती जा रही है.


सिंधिया व जितिन प्रसाद के चले जाने के बाद पार्टी नेतृत्व को सबक लेना चाहिए था और इस पर गंभीरता से मंथन भी करना चाहिए था कि आखिर नेता कांग्रेस क्यों छोड़ रहे हैं. अगर ऐसा हुआ होता, तो शायद सुष्मिता को दूसरा सियासी घर नहीं तलाशना पड़ता. इससे जाहिर होता है कि कांग्रेस में नेतृत्व और दूसरे नेताओं के बीच या तो संवादहीनता है या फिर शीर्ष स्तर पर अहंकार का साया इतना गहरा है कि उसे इसकी कोई फिक्र नहीं है कि कौन नेता पार्टी छोड़ रहा है.


दरअसल, सुष्मिता देव के चले जाने से कांग्रेस को असम में सर्वाधिक नुकसान हो सकता है जहां विपक्ष में होने के बावजूद पार्टी खस्ताहाल में नहीं है क्योंकि आने वाले दिनों में सुष्मिता वहां तीसरी चुनौती बनकर उभरने की तैयारी में हैं. वैसे भी उनके पिता संतोष मोहन देव असम में पार्टी के कद्दावर नेता रहे हैं जो राजीव गांधी व नरसिंह राव सरकार में केंद्रीय मंत्री थे. उनके निधन के बाद अपने पिता की कमाई साख के बूते पर ही वे सिल्चर से कांग्रेस की सांसद चुनी गईं थीं. इसलिये ये मान लेना कि राज्य में उनकी हैसियत महज़ एक साधारण नेता की है, तो ये एक बड़ी भूल होगी.


अब ममता बनर्जी उन्हें असम में टीएमसी की कमान सौंपने की तैयारी में हैं और उनका ये फैसला कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फेरने जैसा ही समझा जाना चाहिये. ममता अब बंगाल से बाहर असम और त्रिपुरा में पार्टी का विस्तार करने में जुटी हैं. दरअसल, असम के बराक घाटी क्षेत्र में बंगाली भाषी लोगों की बहुतायत है और त्रिपुरा में भी कुछ ऐसी ही स्थिति है. लिहाज़ा, ममता को ऐसे चेहरे की तलाश थी जिसे असम में पार्टी का मुखिया बनाकर वहां टीएमसी को ऐसी तीसरी ताकत बनाया जाए जिसके हाथ में भविष्य की सत्ता की चाभी हो. सुष्मिता ने ममता की उस तलाश को तो पूरा किया ही, लेकिन साथ ही अपने सियासी भविष्य को भी सुरक्षित कर लिया.


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