सुप्रीम कोर्ट ने तलाक-ए-हसन पर सुनवाई को मंजूरी दे दी है. कोर्ट ने कहा है कि इस पर गहराई से और विस्तार से सुनवाई की जरूरत है. यानी सुप्रीम कोर्ट 'तलाक-ए-हसन' की वैधता को चुनौती देने वाले संवैधानिक मुद्दे की जांच करेगा. मुस्लिम पक्ष हालांकि पर्सनल लॉ का मामला बताकर इसे जस का तस रहने की बात कर रहा है, लेकिन संवैधानिकता और कानूनी तौर पर इसकी वैधता को लेकर कोर्ट में अब सुनवाई होगी. भारत जैसे विविधता से भरे समाज में यूनिफॉर्म सिविल कोड की जरूरत है या सभी संप्रदायों-समुदायों को उनके कानून के हिसाब से चलने दिया जाए, यह भी लंबे समय से बहस का हिस्सा रहा है.
ट्रिपल तलाक का ही एक रूप है तलाक-ए-हसन
सुप्रीम कोर्ट ने तलाक-ए-हसन पर सुनवाई को मंजूरी दी है और यह बहुत ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि एक गैर-संवैधानिक ढांचा जो है, वह चला जा रहा है. जब ट्रिपल तलाक इस देश में बैन हुआ, तो सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी मुस्लिम महिला को कोई भी मुस्लिम पुरुष तीन बार ‘तलाक’ बोलकर नहीं छोड़ सकता है, यह असंवैधानिक है और उसी के बाद इस पर बैन लगा था. उसी ट्रिपल तलाक का एक और फॉर्मैट है, यह तलाक-ए-हसन.
उस ट्रिपल तलाक में जो तीन बार तलाक कहा जाता था, चाहे वह मौखिक हो या लिखित, वही अब एक बार में नहीं कह के, एक-एक महीने के अंतराल पर कह सकता है. मतलब, जनवरी में एक बार तलाक बोला, फरवरी में दूसरी बार और मार्च में तीसरी बार. इसमें तीन समस्याएं हैं- पहला, केवल पुरुष तलाक दे सकता है. दूसरा, महिलाओं के अधिकार को पूरी तरह खत्म कर दिया गया और तीसरा, भारत में महिलाओं के अधिकारों को लेकर कई तरह के कानून हैं, वैसे समाज में यह असंवैधानिक रीति कैसे चलेगी?
कुप्रथाओं को तो इस्लामिक राष्ट्रों ने भी किया बंद
इस्लामिक रीतियों में कुछ कुप्रथाएं भी प्रचलित हैं. बहुतेरे देश, जिसमें सेकुलर राष्ट्र भी हैं, इस्लामिक देश भी हैं, उन्होंने उन प्रथाओं को बंद कर दिया है. आप भारत में 1955 में हिंदू मैरिज एक्ट तो लाए, हिंदुओं को आपने कोडिफाई कर दिया. उस समय चूंकि मुस्लिमों को छोड़ दिया गया, अब तक यूनिफॉर्म सिविल कोड नहीं आया, तो उस वजह से जिस भी मुस्लिम को जो सहूलियत पड़ती है, वह उसे पूरा करता है. यह इसलिए कि वहां कोडिफिकेशन नहीं है.
इस्लामिक लॉ को ‘कोडिफाई’ करने की जरूरत
तलाक-ए-बिद्दत जो था, उसमें एक साथ तीन बार अचानक ही तलाक बोलकर पुरुष महिला के साथ अपना वैवाहिक संबंध तोड़ सकता था. अब ऐसे रोष में या गुस्से में आकर तलाक देना तो कानूनी तौर पर जायज नहीं कहा जा सकता. इस्लाम हो, क्रिश्चियैनिटी हो या हिंदू धर्म हो, वे सभी मानते हैं कि विवाह में दो परिवारों की संलग्नता है और उसे एक पल के आक्रोश में खत्म नहीं कर सकते. अगर विवाह को तोड़ना भी है, तो उसके कुछ कायदे होंगे. सुप्रीम कोर्ट ने जब उसे असंवैधानिक बताया, तो भारत सरकार ने फिर कानून बनाकर यह भी कहा कि अगर कोई कुछ ऐसा करेगा तो उसे दंडित भी करेंगे. तो जब ट्रिपल तलाक या तलाक-ए-बिद्दत को खत्म किया, तो उसी का एक रूप है तलाक-ए-हसन.
अब इसके अलावा भी कई कुप्रथाएं हैं. जैसे, एक है मुताह यानी कांट्रैक्चुअल मैरेज. इसमें तय होता है कि शादी 1 दिन, एक महीने या एक साल के लिए है. इसका इतना गैरकानूनी इस्तेमाल हुआ कि अब भी अरब के लोग आते हैं, शादी करते हैं और वह एक समय के बाद खत्म हो जाती है. मतलब, बेसिकली उसका इस्तेमाल केवल ‘फिजिकल रिलेशन’ के लिए करते हैं.
उसी तरह बाल-विवाह की कुप्रथा है. दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ हाईकोर्ट ने उसे ठीक भी ठहरा दिया है. हाल ही में गुजरात हाईकोर्ट और पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने उसे जायज ठहरा दिया, जबकि भारत का सेकुलर कानून कहता है कि लड़कियों की शादी 18 साल से पहले नहीं कर सकते. वहीं, इस्लामिक कानून कहता है कि माहवारी शुरू होने के साथ ही लड़कियां शादी के लायक हो जाती हैं. एक और कानून है-तलाक-ए-हलाला. इसमें अगर पति ने तलाक दे दिया है, फिर अगर शादी करना चाहता है, तो उसकी पत्नी को तीन महीने तक अलग रहने के बाद किसी गैर मर्द से फिर शादी करनी होगी, शारीरिक संबंध बनाने होंगे, फिर तलाक लेना होगा और तब कहीं वह वापस शादी कर सकती है. ये सभी महिलाओं के अधिकार को, समानता को खत्म करने वाली, कमजोर बनाने वाली बातें हैं.
सुप्रीम कोर्ट देखेगा संवैधानिकता
इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि ‘डिटेल्ड हीयरिंग’ की जरूरत है, यानी वह इसकी संवैधानिक वैधता देखना चाहता है. भारत जैसे विविधता वाले समाज में कई प्रथाएं सदियों से चली आ रही हैं, तो सुप्रीम कोर्ट जब भी इस तरह के मामलों पर फैसला करता है, तो वह देखता है कि क्या ये प्रथा उस धर्म या मजहब का कोर टेनेंट यानी मुख्य बात है? क्या उसके बिना वह धर्म या मजहब नहीं चल सकता? एक बात तो कोर्ट यह देखेगा.
दूसरी बात, सुप्रीम कोर्ट देखता है कि जो भारतीय संविधान का कोर है, चाहे वह समानता का अधिकार हो, जो अनुच्छेद 14 देता है, या जीने का अधिकार हो, जो अनुच्छेद 19 में हो या फिर निजता का अधिकार हो, जो अनुच्छेद 21 में हो, यानी 14,19 और 21 जिसे कांस्टिट्यूशन का ‘गोल्डन ट्राएंगल’ भी कहते हैं, उसका तो उल्लंघन नहीं हो रहा है? इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट यह जांचेगा कि यह क्या असंवैधानिक है, महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन करनेवाला है, महिलाओं के खिलाफ है? उदाहरण के लिए, सबरीमाला मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जैसे कहा था कि ठीक है, यह प्रथा चली आ रही है, लेकिन चूंकि यह महिलाओं के अधिकार को बाधित करता है, इसलिए इसे बंद किया जाए.जब सुप्रीम कोर्ट इसे असंवैधानिक करार देगा, तो भारत सरकार भी इसके खिलाफ कानून बनाकर इसे बैन कर सकता है.
यह सामाजिक जागरूकता का मामला
कोई भी समाज जो ऐसे मसलों को अपना पर्सनल मामला बताकर कहते हैं कि किसी को इसमें दखल का अधिकार नहीं, वे दरअसल अपने समाज को ही ठग रहे हैं. हिंदू समाज में भी बहुतेरी कुप्रथाएं थीं, लेकिन उनको समय-समय पर ठीक किया गया. 1955 में हिंदू मैरिज एक्ट लाकर उनको कोडिफाई किया गया. 2005 से महिलाओं को संपत्ति का अधिकार दिया गया. मुस्लिम समाज में महिलाओं को प्रोपर्टी राइट्स कम हैं, डाइवोर्स में अधिकतर वन पार्टी साइड वर्डिक्ट होता है, अगर फिर से शादी करना चाहें तो तलाक-ए-हलाला करना होगा. तो, इस तरह के मसलों पर अगर पर्सनल लॉ की आड़ ली जाए, तो वह ठीक नहीं है.
आप देखिए कि इस मामले में ही मुस्लिम पक्ष ने हिंदू मैरिज एक्ट के सेक्शन 29 का हवाला दिया गया है. सेक्शन 29 में क्या कहा गया है? इसमें कहा गया है कि एक्ट के बनने से पहले जो कानूनन अवैध शादियां हो चुकी हैं, उनके ऊपर यह कानून लागू नहीं होगा, जैसे सेम गोत्र की शादी या बाल-विवाह. समझने की बात है कि फिर भी 1955 से तो कई सुधार हुए ही हैं हिंदुओं की शादी के मामले में. जैसे, तलाक नहीं था हिंदुओं में पर आपने उसे जोड़ा, महिलाओं के पास राइट्स नहीं थे, दिए गए. अडॉप्शन का अधिकार सिंगल पैरेंट को भी दिया गया है. मुस्लिम महिलाओं को भी उनके अधिकार मिलने चाहिए, और यह खुशी की बात है कि देर से ही सही, लेकिन अब इन पर बात शुरू हो गयी है.
(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)