Blog: आखिर नफरत को ही अपनी फ़ितरत क्यों बना रहे हैं चंद मुस्लिम नेता?
मशहूर शायर बशीर बद्र ने लिखा है, "सात संदूक़ों में भरकर दफ़्न कर दो नफरतें, आज इंसाँ को मोहब्बत की जरूरत है बहुत." लेकिन भारत के कुछ मुसलमान नेताओं की सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि वो कोई भी बयान देने से पहले ये जरा भी नहीं सोचते कि उनकी जुबान से निकले जहरीले बोल भारत में रहने वाले और गंगा-जमुनी तहजीब में यकीन रखने वाले करोड़ों मुसलमानों के लिए किस हद तक दुश्वारियां पैदा कर सकते हैं.
महज़ अपने सियासी फायदे के लिए या अपने मुल्क से बाहर बैठी कट्टरपंथी ताकतों की नजर में आने और उन्हें खुश करने के लिए अगर कोई मुस्लिम नेता तालिबानी आतंकियों की तुलना हमारे स्वाधीनता सेनानियों के साथं करने लगे, तो बाकियों की तो छोड़िए, देश का कोई भी समझदार मुसलमान न तो उसे जायज़ ठहराएगा और न ही इसे बर्दाश्त करेगा. खासकर तब जबकि ऐसा विवादास्पद बयान देने वाला नेता देश की संसद का चुना हुआ नुमाइंदा हो और जिसने संविधान की शपथ ले रखी हो कि वह अपने सार्वजनिक जीवन में ऐसा कोई बयान नहीं देगा, जो देश के खिलाफ हो या फिर उससे दो समुदायों के बीच दुश्मनी पैदा होती हो.
लिहाज़ा, उत्तर प्रदेश के संभल से समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुने गए सांसद शफीकुर्रहमान बर्क के दिए बयान से न तो कोई हमदर्दी जताएगा और न ही उनकी इस दलील पर कोई भरोसा ही करेगा कि उनकी कही बातों को मीडिया ने तोड़-मरोड़कर पेश किया है. सियासत में घाट-घाट का पानी पीकर जनता के वोटों की बदौलत चुनाव जीतकर संसद में पहुंचने वाला कोई भी नेता इतना मासूम नहीं होता, जिसे ये अहसास ही न हो कि मैं क्या बोल रहा हूं और समाज में उसका क्या असर होगा. सबसे ज्यादा अफसोसजनक ये है कि बर्क ने ऐसी तुलना करने से पहले आखिर ये क्यों नही सोचा कि उन्हें सिर्फ मुसलमानों ने ही नहीं चुना है, बल्कि हिंदू वोटरों का भी उतना ही योगदान रहा है और वे किसी खास मज़हब के नहीं वरन सबके नुमाइंदे हैं.
मुस्लिम दुश्मन नहीं बल्कि दोस्त है
हकीकत तो ये है कि 90 का दशक शुरू होते ही पाकिस्तान के पाले-पोसे आतंकवाद ने जिस तरह से कश्मीर घाटी में अपनी जड़ें जमाना शुरू कीं उसके बाद से ही बड़ी हुई दाढ़ी रखे मुसलमानों को शक की निगाह से देखने की रवायत शुरु हो गई. बावजूद इसके समाज के हर क्षेत्र में आज भी ऐसे हिंदुओं का बहुमत है, जो किसी मुस्लिम को अपना दुश्मन नहीं बल्कि दोस्त व हमदर्द समझता है. वो ईद की सेवइयां भी उतने ही शौक से खाता है, जितना कि दिवाली की मिठाई. यही इस हिंदुस्तान की असली गंगा-जमुनी तहज़ीब है और पहचान भी है, जिसे पिछले 75 बरसों से दोनों समुदायों ने संजो कर रखा है. लेकिन ये सिर्फ सियासत ही है, जो अपने फायदे के लिए इंसान को इंसान से लड़ाने व लड़वाने का बहाना खोजती रहती है.
आज भी दुनिया में ऐसे कई इस्लामिक कहे जाने वाले मुल्क हैं, जो हिंदू-मुस्लिम भाईचारे पर भारत की मिसाल देते हुए कहते हैं कि यहां का मुस्लिम पाकिस्तान से ज्यादा खुशहाल है. एक आम मुसलमान जो कुरान में यकीन रखता हो, वह दूसरे धर्म के खिलाफ नफ़रत को न तो अपनाएगा और न ही उसे फैलायेगा. हिंदू, ईसाई, सिख व बौद्ध धर्म के ग्रंथों का भी सारा निचोड़ यही है कि किसी भो रुप में दूसरे मनुष्य से घृणा करना ही आपके विनाश की शुरुआत है. इसलिए सदियों से सारे सूफी-संत ये पैगाम देते आए हैं कि दुनिया का कोई भी धर्म कट्टरता की न तो वकालत करता है और न ही किसी दूसरे मजहब को नीचा दिखाने का संदेश देता है.
अब सवाल उठता है कि शफीकुर्रहमान बर्क ने ऐसा बयान आखिर दिया ही क्यों? क्या उन्हें नहीं मालूम था कि ऐसा भड़काऊ बयान देने के बाद उनके खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज हो सकता है जो अब हो भी गया. मुकदमा दर्ज होने के बाद अब उनकी ये सफाई भला कौन मानेगा कि वे तालिबान की तारीफ नहीं कर रहे थे बल्कि वे तो भारत सरकार के साथ हैं. बता दें कि ये वही बर्क हैं जिन्होंने संसद में वंदे मातरम गान का विरोध करते हुए सदन से वाकआउट भी कर दिया था.
कहते हैं कि जब कोई नेता नफरत को ही अपनी फ़ितरत बना ले, तो वह अपनी पूरी कौम को बारुद के उस ढेर पर ले जाकर बैठा देता है, जहां हर शख्स अनजाने डर के साए में जीने को मजबूर हो जाता है. उत्तर प्रदेश में अगले साल की शुरुआत में विधानसभा चुनाव होने हैं और उससे पहले बर्क के इस नफ़रत फैलाने वाले बयान ने हर मुस्लिम को ख़ौफ़ज़दा अंधेरे की सुरंग में धकेल दिया है. आखिर किस मुंह से हम इसे इस्लाम कहेंगे ये मानेंगे?
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