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(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)

यूनिफॉर्म सिविल कोड में प्रॉपर्टी पर हक की भी बात कीजिए

यह बात हैरान कर देने वाली है कि दुनिया भर में सिर्फ 20% जमीन पर औरतों का हक है. मतलब फॉर्मल ओनरशिप. इसीलिए यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात आने पर सिर्फ शादी-ब्याह को ही नहीं देखा जाना चाहिए. शादी ब्याह से तो निपट ही लिया जाएगा, सवाल उससे ज्यादा प्रॉपर्टी का है, जिसपर हम नजर नहीं फिराते. औरत को अब भी मर्द की बेटी या बीवी के रूप में ही देखा जाता है. आप सिर पर टोपी लगा लें, या पगड़ी-गमछा बांध लें या हैट सजा लें, रहेंगे मर्द ही. सख्त, हठी और रूढ़. मर्द को ऐसा होना ही सिखाया जाता है.

हमें धर्मों के हिसाब से उत्तराधिकार कानून पढ़ने पड़ते हैं. निजी कानूनों से जो संचालित होते हैं समाज. हिंदू, सिख, बौद्ध और जैन समुदाय 1956 और उसके बाद 2005 में संशोधित हिंदू उत्तराधिकार कानून से गवर्न होते हैं तो ईसाई और पारसी समुदाय भारतीय उत्तराधिकार कानून, 1956 से. शिया और सुन्नी मुसलमानों में प्रॉपर्टी संबंधी अधिकारों को अभी कोडिफाई किया जाना बाकी है. दिलचस्प यह है कि प्रॉपर्टी का जिक्र आने पर अक्सर घर या कारोबार पर ध्यान जाता है. जमीन पर नहीं. देश में कृषि योग्य जमीन 394.6 मिलियन एकड़ है और अमेरिका के बाद विश्व का दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र है. ऐसे में हकदारी सभी पर बनती है.

हिंदू उत्तराधिकार कानून पहले लड़कियों को संपत्ति में हिस्सेदारी देने पर चुप्पी साधे हुए था. बाद में 2005 में कानून में संशोधन हुआ और संपत्ति के उत्तराधिकारियों में बेटियों को भी शामिल किया गया. बेटों के बराबर. लेकिन यह कानून रेट्रोस्पेक्टिव नहीं था, मतलब पहले से लागू नहीं था. कहा गया कि जिन बेटियों ने अपने पिता को 9 सितंबर 2005 से पहले खो दिया था, उन्हें पैतृक संपत्ति में बराबर की हिस्सेदारी नहीं मिलेगी. तब बहुत से महिला संगठनों ने इस बात का विरोध भी किया था. खैर, बराबरी का हक मिलना भी, एक उल्लेखनीय कदम था. यह बात और है कि संपत्ति में हकदारी की बात लड़कियां अब भी नहीं करतीं. मशहूर कानूनविद लीला सेठ ने टेड टॉक में एक बार कहा था कि औरतों को उत्तराधिकार में अपना हक मांगना चाहिए तभी दहेज जैसी कुप्रथा खत्म हो सकती है.

यूं संपत्ति के अलावा मायके में शरण लेने का हक भी मिलता तो स्थिति और मजबूत होती. मायके के घर में शरण लेने का कानूनन अधिकार अब भी शादीशुदा बेटियों को नहीं है. हां, इसके लिए उन्हें तलाकशुदा होना चाहिए. पर तलाक होने में कितना लंबा समय लगता है, यह सभी जानते हैं. इस बीच, अगर मायके में भाई-बंधु लड़की को न रखना चाहें, तो लड़की कानूनन किसी कार्रवाई की मांग नहीं कर सकती. चाहे फुटपाथ पर शरण लेनी पड़े. फुटपाथ पर शरण का एक नतीजा विशाखापट्टनम में 22 अक्टूबर को देखा जा चुका है. सड़क पर रेप होता रहा, लोग वीडियो बनाते रहे. सड़क से घर और फिर संपत्ति तक का सफर बहुत लंबा है.

जैसे तलाक लेने के बाद बीवी का अपने पति की शादी के ही दौरान खरीदी गई संपत्ति पर कोई हक नहीं है. वह मेनटेनेंस की हकदार है, संपत्ति में हिस्सेदारी की नहीं. हां, उसकी संपत्ति पर दूसरों का हक जरूर है. अगर औरत की मृत्यु हो जाए और उसका पति-बच्चे न हों तो उसके अपने परिवार वालों को नहीं, ससुरालियों को उसकी संपत्ति मिलेगी.

मुस्लिम पर्सनल लॉ की मिसाल देने वाले कम नहीं. संपत्ति पर हकदारी की बात वहां की गई है. लेकिन 1937 के इस एक्ट को अभी तक कोडिफाई यानी संहिताबद्ध नहीं किया गया है. इसके तहत बेटियों को पिता की संपत्ति में एक बटा तीन हिस्सा ही मिलता है. ईसाई और पारसी समुदायों के लिए भारतीय उत्तराधिकार कानून 1925 है. इसकी धारा 31 से 49 ईसाइयों की बात करती हैं और धारा 50 से 56 पारसियों की. एक्ट के तहत ईसाई विधवाओं को पति की संपत्ति का एक तिहाई हिस्सा मिलता है और बाकी का दो तिहाई बच्चों, पोते-नाती को. वो न हों तो परिजनों को संपत्ति का दो तिहाई हिस्सा मिल जाता है. इसी तरह बिना वसीयत लिखे बेटे की मृत्यु हो जाए और उसका कोई बेटा-नाती-पोता ना हो, तो उसकी विधवा का हिस्सा काटने के बाद उसकी बाकी संपत्ति उसके पिता को मिलती है, मां को नहीं. पिता की मृत्यु होने और मां के जीवित होने पर भी मां को पूरी संपत्ति नहीं मिलती, बल्कि उसे इस संपत्ति में से मृतक के भाई-बहनों को हिस्सा देना होगा. मां को यह संपत्ति तभी मिलेगी, जब मृतक का कोई नजदीकी न हो.

पारसी समुदाय में पिता की संपत्ति में बेटों और विधवा मां को बेटियों से दोगुना संपत्ति मिलती है. पर किसी नॉन पारसी से शादी करने पर बेटियों को समुदाय से अलग कर दिया जाता है. इसलिए संपत्ति पर उनका कोई दावा नहीं होता. दूसरी तरफ नॉन पारसी औरत को भी किसी पारसी से शादी करने पर संपत्ति में हिस्सा नहीं मिलता.

यहां सिर्फ शहरी इलाकों में रहने वालों की बात नहीं की जा रही. गांव-कस्बों से मिलकर ही यह देश बनता है. जमीन-जायदाद में सबकी हिस्सेदारी होनी जरूरी है. लैंडेसा नाम के एक ग्रामीण विकास संस्थान की एक स्टडी में कहा गया है कि समान उत्तराधिकार कानून होने के बावजूद सिर्फ 13% औरतें अपने माता-पिता से जमीन मिलने की उम्मीद करती हैं. कई इंटरव्यूज से पता चला कि परिवार वाले और यहां तक सरकारी अधिकारी भी, जमीन-जायदाद पर बेटियों का अधिकार नहीं मानते. वॉशिंगटन पोस्ट की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में जमीन संबंधी विवादों में अक्सर औरतों को चुड़ैल वगैरह माना जाता है. रिपोर्ट का कहना है कि 2000 से 2014 के बीच देश के 12 राज्यों में 2,413 औरतों को चुड़ैल बताकर मार डाला गया.

संपत्ति ताकत देती है. गैर सरकारी संगठन हैबिटैट की शेल्टर रिपोर्ट, 2016 में कहा गया है कि जमीन या घर की मालकिन औरतों को शारीरिक हिंसा का कम शिकार होना पड़ता है. ऐसी औरतों का % सिर्फ 7 है, जबकि बिना जमीन जायदाद वाली औरतों को 40% शारीरिक और 84% मनोवैज्ञानिक हिंसा का शिकार बनाया जाता है. रिपोर्ट में दूसरी कई बातों का भी उल्लेख है, जैसे जमीन जायदाद वाली 74% महिलाओं ने पारिवारिक हिंसा होने पर अपना घर छोड़ दिया, जबकि बिना जमीन जायदाद वाली सिर्फ 17% औरतें घर छोड़ने का फैसला कर पाईं.

उत्तराधिकार और संपत्ति के अधिकार सिर्फ कानूनन मिलने वाले नहीं हैं. पितृ सत्ता हम सबके दिमाग में ठसी हुई है. दिमाग बदलना भी उतना ही जरूरी है. दिमाग बदलेगा तो कानून भी उसी के अनुकूल बनेंगे. मातृ सत्ता हमारे ही समाज के कई हिस्सों का सच रहा है. जब नए सच शहरों में गढ़ने शुरू हुए तो गांव-कस्बे-जंगल बेजार हो गए. विकास और आधुनिकता के नाम पर बासी उपदेशों की किताबें थमा दी गई. इन किताबों के सच बदलने का समय आ गया है.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)
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