पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद एक नयी चर्चा शुरू हो गयी. जैसे ही नतीजे आए, एक नयी बहस यह शुरू हो गयी कि भाजपा की जीत केवल हिंदी पट्टी राज्यों में हुई है और तेलंगाना में कांग्रेस की जीत यह दिखाती है कि वह दक्षिण में नहीं जीत सकती. पहले सोशल मीडिया पर यह बहस शुरू हुई और उसके बाद न्यूज चैनल्स की बहसों और आलेखों में इस पर चर्चा होने लगी. प्रधानमंत्री मोदी ने भी सोशल साइट एक्स (पहले ट्विटर) पर एक वीडियो शेयर करते हुए इस बात को इंगित किया और कहा कि 70 वर्षों से जारी उनकी (कांग्रेस की) विभाजनकारी आदतें बंद नहीं हो सकतीं. हद तब हो गयी, जब संसद में एक विधायक पर चर्चा के दौरान तमिलनाडु की धर्मपुरी से डीमके सांसद एस सेंथिल की जुबान बिगड़ी और वह बोले, "इस देश के लोगों को सोचना चाहिए कि बीजेपी के पास चुनाव जीतने की ताकत मुख्यतौर पर हिंदी पट्टी में है, जिसे हम सामान्य तौर पर 'गोमूत्र' राज्य कहते हैं." हालांकि, बाद में उन्होंने अपनी बात वापस ली, लेकिन तब तक तीर कमान से निकल चुका था.
बेहद अनुचित है यह बात
यह बात तो आदर्शवाद, नीति या नैतिकता किसी भी लहजे से अनुचित है. यह बिल्कुल भी सही नहीं है. यह तो तथ्यात्मक रूप से भी गलत है. 2018 में कांग्रेस को ये तीनों राज्य मिले थे. तब क्या ये उत्तर और दक्षिण का विभाजन किसी को दिखाई नहीं पड़ रहा था. उसके तुरंत बाद कर्नाटक में भाजपा की सरकार थी और 2018 के चुनाव में तो भाजपा शुरुआत में भले सरकार नहीं बना पायी थी, लेकिन वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी.
लोकसभा में भी सबसे बड़ा प्रतिनिधित्व तो भाजपा का ही है. 4 सीटें उनको तेलंगाना से मिली और 25 सीटें कर्नाटक से मिली हैं. इसलिए, यह बात तथ्यात्मक तौर पर तो गलत है ही, नैतिक तौर पर भी यह बहुत ही गलत बात है कि देश का एक हिस्सा कहे- बल्कि उनके कुछ नेता, क्योंकि लोगों ने तो नहीं कहा है-कि ऐसा कोई विभाजन हो, यह बिल्कुल सही बात नहीं है.
दक्षिण का एक डर है जनसंख्या को लेकर
रेवड़ी कल्चर की अगर बात करें, तो वैसा तो किसी नेता ने कुछ नहीं कहा, क्योंकि कल्याणकारी कार्यक्रम तो दक्षिण भारत में बहुत पहले से चल रहे हैं. उनकी नकल करके ही बाद में यह उत्तर भारत में आया. यह बिल्कुल स्पष्ट है कि इस पर किसी ने कुछ नहीं कहा. हां, आर्थिक मसलों और जनसंख्या पर बयान जरूर आए हैं. जनसंख्या को लेकर दक्षिण भारत में एक डर जरूर है. संसद में चूंकि उत्तर भारत से अधिक प्रतिनिधित्व है, तो यह डर वहीं प्रदर्शित होता है. आगे भी परिसीमन हुआ तो उत्तर भारत में चूंकि जनसंख्या-नियंत्रण उस तरह नहीं हुआ, जैसा दक्षिण भारत में हुआ, तो हो सकता है कि राष्ट्रीय स्तर पर दक्षिणी राज्यों का प्रतिनिधित्व कम हो जाए. यह एक जायज डर है और उसको नाजायज नहीं कह सकते. हां, सांस्कृतिक तौर पर आप किसी का उपहास उड़ाएं या नीचा दिखाएं, यह ठीक नहीं है.
भारत में संघीय ढांचा, हर राज्य का हक
दरअसल, नतीजे आने के तुरंत बाद कांग्रेस के कुछ लोगों ने इस तरह की बात कही कि नॉर्थ-साउथ का डिवाइड दिख रहा है, फिर वो मामला खत्म होता जा रहा था, जब डीएमके के सांसद ने अपमानजनक शब्दों का संसद में बहस के दौरान प्रयोग किया और उसके बाद बहस शुरू हुई. तो, इसमें हमें यह बहुत ध्यान रखना होगा कि एक आध लोगों की यह मानसिकता हो सकती है, पर नेतृत्व ने इससे तुरंत दूरी बनायी और सफाई दी.
इतनी जल्दी सफाई तभी आती है, जब सच में दूरी बनाने का इरादा होता है, वरना तो मामले को लटकाया जाता है. भारत एक गणराज्य है, हमारा फेडरल स्ट्रक्चर है. यहां अलग हिस्सों की अलग जर्नी है. उत्तर-पूर्व में अभी बहुत ध्यान दिया जा रहा है, इंफ्रास्ट्रक्चर वगैरह को लेकर. वे अंतरराष्ट्रीय सीमाओं वाले राज्य हैं, तो बेहद संवेदनशील हैं. दक्षिण भारत की अपनी परिस्थिति है. औपनिवेशिक समय में क्या हुआ, वह भी देखना होगा.
अंग्रेजों ने कहां सबसे अधिक संसाधन लगाए, क्योंकि वे हमारे देश से और अधिक ले जाना चाहते थे, वो सब कुछ देखना होगा. फेडरल स्ट्रक्चर में हर राज्य का देश के संसाधनों पर बराबर का हक होता है. आपकी यात्रा अलग हो सकती है, वह तो आपकी राजनीति और नेतृत्व पर भी है. आपके समाज, परिस्थितियां बहुत कुछ महत्वपूर्ण हैं. अगर आप सीमाई राज्य हैं, अगर आपके यहां अलगाववाद है तो अलग मामला होगा, ऐतिहासिक पिछड़ापन होगा तो आपको बहुत समय लगेगा उसे दूर करने में, शैक्षणिक परिस्थितियां अगर आपके यहां अंग्रेजों के समय से अलग थे, तो उसका बहुत फर्क पड़ेगा. इसके लिए आप किसी राज्य के लोगों को दोष नहीं दे सकते हैं. कोई नहीं चाहता है कि उसका राज्य पिछड़ा रहे. मैं खुद दक्षिण भारतीय हूं, मेरी पैदाइश दिल्ली की है, तो मैं खुद को दिल्लीवाला ही कहती हूं. पूर्वाग्रह का जो स्तर है, वह दक्षिण और उत्तर दोनों जगह एक ही है. यह बिल्कुल बकवास बात है कि आप इस तरह की बातें करें।
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