Opinion: भ्रष्टाचार के आरोपी मंत्री को बिना CM की मर्जी बर्खास्त कर क्या राज्यपाल ने कर दी बड़ी गलती? जानें राजीव गांधी बनाम जैल सिंह विवाद
तमिलनाडु का मामला ये है कि एक मंत्री सेंथिल भ्रष्टाचार के आरोपो में दागी हैं. उनको जेल हो जाती है और उनकी जमानत भी खारिज हो जाती है. इसके बाद मुख्यमंत्री स्टालिन उनसे विभाग तो वापस ले लेते हैं, लेकिन यह भी कहते हैं कि वह बिना विभाग के मंत्री बने रहेंगे. अब, यहां तकनीकी तौर पर सवाल आ जाता है कि क्या उन्हें नैतिक आधार है, मंत्री बने रहने का? क्या वह अपनी रसूख और पहुंच के आधार पर सबूतों को प्रभावित नहीं कर सकते हैं...और, शायद इसी वजह से उनको बेल भी नहीं दी गयी है. अब ऐसे मामले में वह मंत्री रहें या नहीं रहें, सारा विवाद बस इसी पर है.
सत्येंद्र जैन के मामले से साम्य
दिल्ली में तो सत्येंद्र जैन को केजरीवाल जी ने जेल जाने के महीनों बाद भी मंत्री बनाए रखा था. इसलिए, मिलता-जुलता मामला होते हुए भी, वह तो और भी बुरा था. खुद जेल मंत्री सत्येंद्र जैन ही जेल चले गए थे, फिर भी उनका इस्तीफा नहीं लिया जा रहा था. अब तमिलनाडु के राज्यपाल इस पूरे मामले के केंद्र में इसलिए आ गए, क्योंकि राज्यपाल को स्पष्ट संवैधानिक जिम्मेदारी है कि वह मुख्यमंत्री की नियुक्ति करेंगे और मंत्रियों की नियुक्ति या बर्खास्तगी का अधिकार तो उनका है, लेकिन वह मुख्यमंत्री की सलाह पर ही काम करेंगे. राज्यपाल तो राष्ट्रपति के प्रतिनिधि होते हैं औऱ उनका कार्य सीमित होता है कि वह मुख्यमंत्री की सलाह पर ही काम करेंगे. इसीलिए, इस मामले में राज्यपाल पर प्रश्न उठ रहे हैं.
आर्टिकल 164 और राज्यपाल के अधिकार
तमिलनाडु के राज्यपाल के बारे में जो बातें कही जा रही हैं कि उन्होंने पद की सीमाएं लांघी हैं या कुछ गलती की है. इस बारे में आर्टिकल 164 बिल्कुल साफ है. उसके मुताबिक मुख्यमंत्री को राज्यपाल अपॉइंट करेंगे और उसके बाद मुख्यमंत्री की सलाह पर बाकी मंत्रियों की नियुक्ति भी राज्यपाल ही करेंगे, लेकिन वह ऐसा मुख्यमंत्री की सलाह पर ही करेंगे. मंत्री तब तक अपने पद पर रहेंगे, जब तक मुख्यमंत्री चाहते हैं. राज्यपाल की भूमिका को समझने के लिए हमें सुप्रीम कोर्ट के बाकी मामलों को देखना चाहिए, जिसमें से एक मामला तो वर्तमान मुख्यमंत्री स्टालिन के पिता करुणानिधि का ही है.
करुणानिधि बनाम भारतीय संघ का मामला
यह मुकदमा एम करुणानिधि वर्सेज यूनियन ऑफ इंडिया का था. इस पर फैसला 20 फरवरी 1979 को आया था. उसमें कहा गया था कि जो अथॉरिटी अपॉइंट करती है, तो उसी अथॉरिटी को डिसमिस करने का भी पावर है. यानी, अगर मंत्रिमंडल की नियुक्ति राज्यपाल करते हैं तो उन इंसानों की बर्खास्तगी का अधिकार भी है, जो उनके द्वार नियुक्त हुए हैं, ऐसा इस फैसले के आधार पर व्याख्यायित किया जा सकता है. संशय या समस्या बस इसलिए तमिलनाडु में हुआ है कि उन्होंने बिना मुख्यमंत्री से सलाह लिए ही यह फैसला कर दिया. इसी वजह से उनके फैसले की आलोचना भी हुई और उसे वापस भी लेना पड़ा.
राज्यपाल के अधिकार और सुप्रीम कोर्ट
सवाल ये उठता है कि क्या राज्यपाल को इसका अधिकार है, तो इसका जवाब है कि ऐसा अधिकार उनके पास नहीं है. संविधान बहुत स्पष्ट है इस मामले में और 164 ए कहता है कि राज्यपाल वही करेंगे, जिसकी सिफारिश मुख्यमंत्री करेंगे. दरअसल, हाल-फिलहाल में ही अपने एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने, जिस मामले का नाम सुभाष देसाई वर्सेस प्रिंसिपल सेक्रेटरी, गवर्नर ऑफ महाराष्ट्र, में साफ कहा था कि गवर्नर के पास यह अधिकार नहीं है कि वह पॉलिटिकल एरेना में घुस पाएं या फिर इंटर-पार्टी मामले सुलझाएं. जैसे ही यह कह दिया कि वह पॉलिटिकल एरेना में नहीं घुस सकते, तो उसका अर्थ यह है कि अगर कोई ऐसा मामला है भी जिसमें मुख्यमंत्री पर नैतिक दबाव हो, तो भी राज्यपाल यह काम नहीं कर सकते, न मुख्यमंत्री को मजबूर कर सकते हैं. यह विशुद्ध तौर पर मुख्मंत्री का विशेषाधिकार है.
राजीव गांधी बनाम जैल सिंह
हमें याद होना चाहिए कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के बीच तल्खियां काफी बढ़ गयी थीं. एक किताब हाल में आई है, उसमें उल्लिखित है कि वह तो राजीव गांधी को हटाना चाहते थे. हटा सके नहीं. जिस तरह राष्ट्रपति की शक्तियां सीमित हैं, उसी तरह राज्यपाल की भी सीमित हैं, जब तक बिल्कुल असाधारण और ऐतिहासिक परिस्थिति न हो, तब तक वे किसी भी चुनी सरकार में अपनी मर्जी नहीं चला सकते, वरना संवैधानिक संकट खड़ा हो जाएगा.
नैतिकता अलग, संवैधानिक ताकत सीएम के पास
अब आगे की राह तो यही है और नैतिकता भी यही कहती है कि जब वह पहले दिन जेल गए तो मंत्री सेंथिल का इस्तीफा स्टालिन को ले लेना चाहिए था. ऐसा एक उदाहरण हमने लालकृष्ण आडवाणी के मामले में देखा भी था, जब उन पर हवाला घोटाले में शामिल होने का आरोप लगा था और उन्होंने तत्काल इस्तीफा दे दिया था. उसके बाद बेदाग छूटने के बाद ही वह लोकसभा में वापस गए थे. तो, नैतिक रूप से तो मुख्यमंत्री को हटा ही देना चाहिए, खासकर तब जब वह 2024 के चुनाव में विपक्ष एकजुट होकर लड़ने की कोशिश कर रहे हैं, तो उनको चाहे वह आरजेडी के लालू प्रसाद हों, आम आदमी पार्टी के नेता हों या फिर स्टालिन की पार्टी के दागी, इनके साथ रहने से राजनीतिक लाभ तो नहीं ही मिलेगा. यह ठीक है कि गवर्नर के पास यह अधिकार नहीं है. महाराष्ट्र के मामले में हमने देखा कि शिंदे को जब उन्होंने मुख्यमंत्री की शपथ दिलाई, तो सुप्रीम कोर्ट ने वह फैसला पलटा भले नहीं हो, लेकिन यह जरूर कहा कि फैसला बहुत उचित नहीं था. वह तो तमिलनाडु के राज्यपाल ने अच्छा किया कि अपना फैसला वापस ले लिया, वरना उनको कोर्ट की फटकार मिलनी ही थी.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]