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तेलंगाना में पिछड़ा वर्ग से मुख्यमंत्री का दाँव कितना कारगर, बीजेपी की राह है मुश्किल, केसीआर को पहली बार मिल रही है चुनौती

इस बार तेलंगाना विधानसभा चुनाव पिछली बार के मुक़ाबले बेहद दिलचस्प होने वाला है. जिन पाँच राज्यों में नवंबर में विधान सभा चुनाव होना है, उनमें दक्षिण भारत से एकमात्र राज्य तेलंगाना है. इनके अलावा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिज़ोरम में चुनाव होना है. तेलंगाना में सबसे आख़िर में एक ही चरण में 30 नवंबर को मतदान निर्धारित है. इसके बाद तेलंगाना के लिए भी मतों की गिनती बाक़ी राज्यों के साथ तीन दिसंबर को ही होगी. तेलंगाना विधान सभा में कुल 119 सीटें हैं. सत्ता पर क़ाबिज़ होने के लिए बहुमत का आँकड़ा 60 का है.

तेलंगाना का चुनाव बीजेपी के लिए है ख़ास

तेलंगाना जून 2014 में आंध्र प्रदेश से अलग होकर नया राज्य बना था. उसके बाद तेलंगाना में पहला विधान सभा चुनाव दिसंबर 2018 में हुआ था. इस बार तेलंगाना के लिए दूसरा विधान सभा चुनाव होना है. इस बार तेलंगाना का चुनाव कई कारणों से ख़ास है. उसमें भी बीजेपी के नज़रिये से इसका महत्व बाक़ी राज्यों की तुलना में कुछ ज़्यादा ही है. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सत्ता के लिए बीजेपी-कांग्रेस के बीच सीधा टक्कर है. इन राज्यों में जीत चाहे कांग्रेस की हो या फिर बीजेपी, जनाधार और राजनीतिक हैसियत से जुड़ा सवाल बीजेपी के सामने नहीं है. इस संदर्भ में तेलंगाना का चुनाव बीजेपी के लिए सत्ता हासिल करने से ज़्यादा जनाधार के विस्तार और राजनीतिक हैसियत बढ़ाने से जुड़ा है.

केसीआर को पहली बार मिल रही है चुनौती

तेलंगाना में सत्ता को लेकर बीजेपी की दावेदारी में उतना दमख़म नज़र नहीं आता. इसके बावजूद इस बार का चुनाव अलग ही महत्व रखता है. नये राज्य के तौर पर अस्तित्व में आने के बाद से ही तेलंगाना की सत्ता और राजनीति पर भारत राष्ट्र समिति या'नी बीआरएस के सर्वेसर्वा के. चंद्रशेखर राव का एकछत्र आधिपत्य रहा है. केसीआर 2 जून 2014 से तेलंगाना के मुख्यमंत्री हैं. इस बार भी उनकी कोशिश लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने की है. हालांकि पिछले नौ साल में यह पहला मौक़ा होगा, जब केसीआर को बीजेपी और कांग्रेस से मज़बूत चुनौती मिलती दिख रही है.

दक्षिण भारतीय राज्यों को लेकर बीजेपी का मंसूबा

दक्षिण भारतीय राज्यों को लेकर पार्टी के मंसूबों के नज़रिये से बीजेपी के लिए तेलंगाना का चुनाव 'करो या मरो' के समान है. इस साल मई में कर्नाटक विधान सभा चुनाव में बीजेपी को कांग्रेस से बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा था. इस हार से कर्नाटक की सत्ता भी बीजेपी के हाथ से निकल गयी. इसके साथ ही दक्षिण भारत के 5 बड़े राज्यों में कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल में से किसी में भी बीजेपी की सरकार नहीं है.

कर्नाटक में अब पाँच साल बाद ही बीजेपी के पास मौक़ा होगा. आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में पार्टी फ़िलहाल बेहद ही दयनीय स्थिति में है. वास्तविकता यह है कि इन राज्यों के आगामी विधान सभा चुनावों में सत्ता के आस-पास पहुँचने के बारे में पार्टी सोच भी नहीं सकती है. तात्पर्य है कि आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में बीजेपी का जनाधार बेहद ही कमज़ोर है. दक्षिण भारत के पाँच राज्यों में से चार में मज़बूत जनाधार नहीं होने के कारण पैन इंडिया पार्टी के तौर पर बीजेपी की पहचान को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं. दक्षिण भारत के तमाम राज्य बीजेपी की कमज़ोर कड़ी हैं.

क्या तेलंगाना में बीजेपी का बढ़ेगा जनाधार?

दक्षिण भारत के राज्यों में पार्टी के अरमानों को पंख देने के लिहाज़ से तेलंगाना चुनाव का महत्व बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व ब-ख़ूबी समझ रहा है. यही कारण है कि चुनाव तारीख़ों के एलान के काफ़ी महीने पहले से ही बीजेपी ने केसीआर को चुनौती देने के लिए तैयारियाँ शुरू कर दी थी.  कें. चंद्रशेखर राव शुरू से तेलंगाना की राजनीति के सिरमौर रहे हैं. अलग राज्य बनने के बाद से ही उनको किसी और विपक्षी दल से कोई गंभीर चुनौती नही मिली है.

बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व का रहा है फोकस

इस बार तेलंगाना की सत्ता पर नज़र टिकाए बीजेपी ने आम चुनाव, 2019 के बाद से ही सबसे पहले भावनात्मक माहौल बनाना शुरू किया. आम चुनाव, 2019 में बीजेपी तेलंगाना की कुल 17 लोक सभा सीट में से 4 पर जीत हासिल करने में सफल रही थी. यहीं से बीजेपी दावा करने लगी कि भविष्य में केसीआर के ब-जाए वो तेलंगाना के लोगों के लिए नया विकल्प बनेगी. पिछले दो-तीन साल से बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व का ज़ोर तेलंगाना पर ज़्यादा रहा है. जुलाई 2022 में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हैदराबाद में हुई थी. तक़रीबन 18 साल के बाद बीजेपी ने इस तरह की कोई बैठक हैदराबाद में की थी. 2019 लोकसभा चुनाव में मिले अच्छे नतीजों के बाद से ही पार्टी के शीर्ष नेताओं का दौरा भी तेलंगाना में लगातार होते रहा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह बार-बार तेलंगाना गये हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने 2022 में 4 बार तेलंगाना का दौरा किया था.

अमित शाह ज़ोर-शोर से प्रचार में जुटे हैं

जैसे ही चुनाव तारीख़ों का एलान होता है, तेलंगाना में बीजेपी का प्रचार अभियान और तेज़ हो जाता है. बीजेपी के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ख़ुद कमान संभाले हुए हैं. चुनाव की घोषणा के अगले ही दिन 10 अक्टूबर को अमित शाह ने आदिलाबाद में सार्वजनिक बैठक की थी. उसी हैदराबाद में भी अलग-अलग तबक़े के प्रभावशाली लोगों से मुलाक़ात की थी. अमित शाह ने 27 अक्टूबर को सूर्यापेट में चुनावी रैली की.

पिछड़ा वर्ग से मुख्यमंत्री बनाने का दाँव

केसीआर के सामने मज़बूत चुनौती पेश करने और प्रदेश की सत्ता हासिल करने के लिए बीजेपी व्यापक जन समर्थन पाने के लिए तरह-तरह का वादा कर रही है. इसी प्रक्रिया में आगे बढ़ते हुए बीजेपी ने एक नया दाँव चला है. यह दाँव पिछड़ा वर्ग से मुख्यमंत्री बनाने के वादे से जुड़ा है. अमित शाह ने 27 अक्टूबर को सूर्यापेट में जनसभा को संबोधित करते हुए एलान किया कि अगर पार्टी सत्ता हासिल करने में सफल रहती है, तो पिछड़ा वर्ग से आने वाले किसी नेता को मुख्यमंत्री बनाया जायेगा.

दरअसल जिस तरह से शुरू से तेलंगाना की राजनीति पर केसीआर और उनकी पार्टी का दबदबा रहा है और वर्तमान में भी है, उसकी काट निकालना बीजेपी के लिए बेहद मुश्किल है. सत्ता मिलने पर पिछड़ा वर्ग से आने वाले किसी नेता को मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा बीजेपी ने प्रदेश के सियासी समीकरणों को अपने पाले में करने के लिए किया है.

केसीआर की काट के लिए बीजेपी का नया दाँव

अलग राज्य बनने के बाद से ही तेलंगाना की मुख्यमंत्री रहे केसीआर ने वादा किया था कि भविष्य में प्रदेश में कोई दलित नेता मुख्यमंत्री बनेगा. वेलामा (जमींदार) समुदाय से संबंध रखने वाले केसीआर अपने इस वादे पर अमल नहीं कर पाए और ख़ुद ही प्रदेश की सत्ता पर लगातार क़ाबिज़ रहे हैं. उनकी बेटी के. कविता और बेटे के. टी. रामाराव भी राजनीति में है. बीजेपी आरोप लगाती रही है कि 69 वर्षीय के. चंद्रशेखर राव भविष्य ने अपने बेटे के. टी. रामाराव मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं. अमित शाह ने सूर्यापेट में इस बात को भी ज़ोर-शोर से उछाला.

हिंदु-मुस्लिम के नाम पर वोटों का ध्रुवीकरण नहीं

बीजेपी को समझ में आ गया है कि तेलंगाना में हिंदु-मुस्लिम के नाम पर वोटों का ध्रुवीकरण मुमकिन नहीं है. 2011 की जनगणना के मुताबिक़ तेलंगाना में 85 फ़ीसदी हिन्दू हैं और तक़रीबन 13 फ़ीसदी मुस्लिम हैं. यहां सवा फ़ीसदी के आसपास ईसाई भी हैं. बीजेपी के स्थानीय नेता केसीआर पर हिंदुओं के साथ भेदभाव करने का आरोप लगाते रहे हैं. हालाँकि चुनावी साल में नुक़सान की आशंका को भाँपते हुए केसीआर ने भी जमकर हिंदुओं से जुड़े मुद्दों पर तत्परता दिखाई. चाहे मंदिरों को दी जाने वाली सहायता राशि हो या पुजारियों को मानदेय..इन सभी मसलों पर केसीआर ने काम किया. मई में हैदराबाद के गोपनपल्ली में 9 एकड़ में बने ब्राह्मण सदन भवन का उद्घाटन किया था. इस तरह के कई और मुद्दों पर आगे बढ़कर केसीआर ने काम किया, जिसको आधार बनाकर बीजेपी उनको घेर रही थी.

जातीय समीकरणों को साधने की कोशिश

जैसे-जैसे चुनाव नज़दीक आता जा रहा है, बीजेपी के लिए तेलंगाना की राह मुश्किल दोती जा रही है. इसी मद्द-ए-नज़र अमित शाह ने पिछड़ा वर्ग से जुड़ा दाँव चला है. इस दाँव के साथ ही बीजेपी दलित मुख्यमंत्री के वादा को लेकर भी केसीआर को घेर रही है. बीजेपी पिछड़ा वर्ग से मुख्यमंत्री का शिगूफ़ा छोड़कर जातीय समीकरणों को आधार बनाकर केसीआर को चुनौती देना चाह रही है.

2011 की जनगणना के लिहाज़ से तेलंगाना में अनुसूचित जाति की जनसंख्या 15.4 फ़ीसदी है, जबकि 9.5% आबादी अनुसूचित जनजाति से है. तेलंगाना विधानसभा में 18 सीटें अनुसूचित जाति और 9 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. तेलंगाना के 33 जिलों में से 9 जिले संविधान के अनुच्छेद 244(1) के तहत शेड्यूल एरिया में आते हैं. एससी और एसटी दोनों ही समुदाय में केसीआर की पार्टी की पकड़ बेहद मज़बूत मानी जाती है. आदिवासियों को  'पोडू' (Podu) लैंड का टाइटल बाँटने और 'दलित बंधु' योजना के तहत व्यवसाय के लिए एससी समुदाय से आने वाले परिवारो को आर्थिक मदद जैसी योजनाओं से केसीआर की पार्टी की पकड़ इन समुदायों में कमज़ोर नहीं हुई है.

तेलंगाना में जाति फैक्टर कितना महत्वपूर्ण?

तेलंगाना की आबादी में ओबीसी क़रीब 51 फ़ीसदी है. यह आँकड़ा 2014 में तेलंगाना सरकार की ओर से हुए हाउसहोल्ड सर्वे से सामने आया था. तेलंगाना में ओबीसी, एससी, एसटी और अल्पसंख्यकों को मिला दें, तो यह कुल आबादी का क़रीब 90 फ़ीसदी हो जाता है. एससी, एसटी और अल्पसंख्यकों के बीच केसीआर की भारत राष्ट्र समिति की पकड़ में सेंध लगाना बीजेपी के लिए बेहद मुश्किल है. इस समीकरण को ध्यान में रखते हुए अब बीजेपी की नज़र ओबीसी वोट बैंक पर है.

हालाँकि बीजेपी के लिए ओबीसी के समीकरण को साधना इतना आसान नहीं है. इसमें एक समस्या है. तेलंगाना में आम तौर से कभी भी धार्मिक आधार पर मतों का ध्रुवीकरण नहीं हो पाया है. उसी तरह से प्रदेश के चुनाव में जाति का पहलू बड़े स्तर पर मुख्य कारक नहीं रहा है. 

केसीआर को हर तबक़े से मिलता रहा है समर्थन

के.चंद्रशेखर राव की पार्टी को 2018 के विधान सभा चुनाव में हर जाति और धर्म का वोट जमकर मिला था. इसी कारण से तय कार्यकाल से कुछ महीने हुए चुनाव में केसीआर की पार्टी बीआरएस (उस वक़्त टीआरएस) कुल 119 में 88 सीट जीतने में सफल रहती है. उसको वोट शेयर भी क़रीब 47 फ़ीसदी रहता है. बीजेपी को उस वक़्त 6.98% वोट शेयर के साथ महज़ एक सीट पर ही जीत मिल पाती है. कांग्रेस 28.4% वोट शेयर के साथ 19 सीट जीतकर मुख्य विपक्षी पार्टी बनती है. इनके अलावा असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) सात सीट पर जीतने में सफल रही थी. हालांकि ओवैसी की पार्टी का जनाधार हैदराबाद और उससे लगे इलाकों तक ही सीमित है.

केसीआर को चुनौती से जुड़े दावों में कितना है दम?

विधान सभा चुनाव 2018 के पाँच महीने बाद ही हुए आम चुनाव 2019 में बीजेपी यहाँ 4 लोक सभा सीट जीतने में कामयाब हो जाती है. उसका वोट शेयर 19.65% रहता है. केसीआर की पार्टी 9 लोक सभा सीट पर जीत जाती है. लेकिन एक नज़रिये से उसके जनाधार में कमी दिखाई दी थी. 2019 के लोक सभा चुनाव में विधान सभा निर्वाचन क्षेत्रों में बढ़त के आधार विश्लेषण करें, तो चौंकाने वाला पहलू निकलकर सामने आया था. बीजेपी 21 विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र में आगे रही थी. वहीं केसीआर की पार्टी 71 विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र में आगे रही थी, जबकि 2018 में उसे 88 विधान सभा सीटों पर जीत मिली थी.

कांग्रेस के कमज़ोर होने से बीजेपी को मिला लाभ

कांग्रेस और तेलुगु देशम पार्टी के कमज़ोर होने से तेलंगाना में बीजेपी के विस्तार की संभावनाओं को बल मिला था. हालाँकि कांग्रेस तेलंगाना में फिर से अपनी पकड़ मज़बूत करने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रही है. पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का लगातार दौरा हो रहा है. इनमें राहुल गाँधी, प्रियंका गाँधी वाद्रा से लेकर राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे जैसे नेता शामिल हैं. कांग्रेस भी ओबीसी समुदाय में पकड़ बढ़ाने के लिए उम्मीदवारों की सूची में इस समुदाय के लोगों को ख़ूब टिकट दिया है. कांग्रेस ने भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन के साथ ही पूर्व सांसदों मधु याशकी गौड़, पोन्नम प्रभाकर और पोंगुलेटी श्रीनिवास रेड्डी को भी चुनाव मैदान में उतारा है.

अगर कांग्रेस हुई मज़बूत तो बीजेपी को हानि

बिहार में जातीय सर्वेक्षण जारी होने के बाद से कांग्रेस ज़ोर-शोर से देशव्यापी स्तर पर जातीय जनगणना की माँग को हवा दे रही है. जातीय जनगणना से सबसे ज़्यादा असर ओबीसी की जनसंख्या पर ही पड़ने की संभावना है क्योंकि एससी-एसटी की जनसंख्या की जानकारी हर जनगणना से मिलती रहती है. ऐसे में तेलंगाना में भी कांग्रेस इस मसले को ज़ोर शोर से उठा कर जातीय समीकरणों के आधार पर पार्टी का जनाधार बढ़ाने में जुटी है.

अगर तेलंगाना में एक बार फिर से कांग्रेस मज़बूत होती है, तो यह बीजेपी के राजनीतिक विस्तार के नज़रिये से सही नहीं होगा. बीजेपी केसीआर को किस हद तक चुनौती दे पाती है, यह  नतीजों के बाद ही पता चलेगा. इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि कांग्रेस का तेलंगाना में फलना-फूलना बीजेपी के हितों को नुक़सान पहुँचायेगा. यह भी एक वज्ह है, जिसके चलते बीजेपी ने पिछड़ा वर्ग से मुख्यमंत्री बनाने का वादा किया गया है. बीजेपी कतई नहीं चाहेगी कि तेलंगाना में कांग्रेस एक बार फिर से बड़ी राजनीतिक ताक़त के तौर पर उभरे. कांग्रेस के गैप को भरते हुए ही बीजेपी तेलंगाना में अपना जनाधार बढ़ा सकती है.

तेलंगाना में बीजेपी का धीरे-धीरे बढ़ा जनाधार

तेलंगाना ऐसे राज्यों में से एक है, जहाँ बीजेपी की स्थिति अच्छी नहीं मानी जाती थी. बीजेपी को विधान सभा चुनाव, 2018 में कुछ ख़ास हाथ नहीं लगा था. हालांकि 2019 के लोक सभा में प्रदर्शन से पार्टी का हौसल बढ़ा. उसके बाद शीर्ष नेतृत्व की नज़र में तेलंगाना उस राज्य के तौर पर उभरा, जिसमें बीजेपी बेहतर प्रदर्शन कर सकती है. मार्च 2020 में करीमनगर से सांसद बंदी संजय कुमार को प्रदेश अध्यक्ष बनाया सजाता है. उनकी अगुवाई में पार्टी धीरे-धीरे केसीआर के ख़िलाफ़ प्रदेश में हवा तैयार करने में जुट गयी. इसका असर भी दिखने लगा. प्रदेश के साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर केसीआर की राजनीति को लेकर चर्चा होने लगी कि उन्होंने बीआरएस को अपने परिवार की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने का ज़रिया बना दिया है.  हालाँकि बीजेपी के सामने एक और परेशानी है.

बीजेपी के लिए अंदरूनी कलह भी समस्या

इस बार के चुनाव में बीजेपी के लिए अंदरूनी कलह भी समस्या है. तेलंगाना में बीजेपी के पास अब बीआरएस और कांग्रेस से आए नेताओं की एक अच्छी ख़ासी संख्या है. हालांकि इससे प्रदेश के अलग-अलग इलाकों में पार्टी के फैलने में मदद मिलने की संभावना है, लेकिन इसका एक स्याह पक्ष भी है. इससे बीजेपी के परंपरागत नेताओं और बाहर से आए नेताओं के बीच एक प्रकार की तनातनी भी बढ़ी है. इसी का नतीजा है कि जुलाई में बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को प्रदेश इकाई की कमान संभाल रहे करीमनगर से सांसद बंदी संजय कुमार को अध्यक्ष पद से हटाना पड़ता है. उनकी जगह केंद्रीय मंत्री जी. किशन रेड्डी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाता है. बंदी संजय कुमार उन नेताओं में गिने जाते हैं, जिनकी वज्ह से तेलंगाना में बीजेपी उस स्थिति में आ पायी है कि वो इस बार केसीआर को सीधे चुनौती देने का दंभ भर रही है.

करीमनगर से सांसद और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष बंदी संजय कुमार को भी बीजेपी ने विधान सभा चुनाव मैदान में उतारा है. इनके अलावा निजामाबाद के सांसद अरविंद धर्मपुरी को कोरुतला से और आदिलाबाद से सांसद सोयम बापू राव को बोथ से उम्मीदवार बनाया है. बीजेपी कोई ख़तरा मोल लेना नहीं चाहती है. इसलिए 2018 चुनाव में जीतने वाले प्रदेश में पार्टी के एकमात्र विधायक टी राजा सिंह का निलंबन रद्द कर उन्हें फिर से गोशामहल से उम्मीदवार बनाया है.  उन्हें मुस्लिम धार्मिक भावनाओं को आहत करने से जुड़ी टिप्पणियों के लिए पिछले साल पार्टी से निलंबित कर दिया गया था. टी राजा सिंह को इस मामले में जेल भी जाना पड़ा था. 

पिछड़ा वर्ग से भरपूर समर्थन पाने का प्रयास

ऐसे तो बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व से मुख्यमंत्री पद के लिए बतौर चेहरा किसी नाम का एलान नहीं किया गया है, लेकिन पिछड़ा वर्ग का दाँव चलने के बाद इस पर भी चर्चा होने लगी है कि बीजेपी में कौन नेता हैं, जिन्हें संभावना बनने पर मौक़ा मिल सकता है. इसमें तीन नाम ख़ास है. पहला बंदी संजय कुमार, दूसरा एटाला राजेंदर, तीसरा अरविंद धर्मपुरी.

एटाला राजेंदर से बीजेपी को कितना लाभ? 

एटाला राजेंदर बीआरएस से बीजेपी में आए नेता है. तेलंगाना में संख्यात्मक रूप से सबसे बड़े तबक़े में से एक मुदिराज समुदाय से आने वाले  एटाला राजेंदर केसीआर सरकार में वित्त मंत्री और चिकित्सा स्वास्थ्य मंत्री रह चुके हैं. ई राजेंद्र ने मंत्रिमंडल से हटाने के बाद केसीआर से नाराज होकर बीजेपी का दामन थाम लिया था. नवंबर 2021 में हुजूराबाद सीट पर हुए उपचुनाव में बीजेपी उम्मीदवार के तौर पर एटाला राजेंदर  ने टीआरएस के उम्मीदवार को मात दी थी. एटाला राजेंदर के  बीजेपी में आने से सेंट्रल तेलंगाना में पार्टी मजबूत हुई है.

सियासी गलियारों में इसकी भी चर्चा ख़ूब रही है कि चुनाव से ठीक 4 महीने पहले बंदी संजय कुमार को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाने का निर्णय पार्टी शीर्ष नेतृत्व को एटाला राजेंदर की वज्ह से ही लेना पड़ा था.  एटाला राजेंदर और बंदी संजय कुमार के बीच तालमेल बनाने की कवायद के तौर पर केंद्रीय मंत्री जी.किशन रेड्डी को प्रदेश इकाई का अध्यक्ष बनाया गया.  हुज़ूराबाद के गजवेल सीट पर  एटाला राजेंदर सीधे  मुख्यमंत्री केसीआर या'नी कल्वाकुंतला चन्द्रशेखर राव को चुनौती देने जा रहे हैं.  केसीआर 2014 और 2018 विधान सभा चुनाव में लगातार दो बार गजवेल सीट से जीत चुके हैं.

जन सेना पार्टी से हाथ मिलाने का होगा फ़ाइदा!

चुनाव से ठीक पहले पूर्व विधायक कोमाटिरेड्डी राज गोपाल रेड्डी का बीजेपी से जाना भी पार्टी के लिए सही संकेत नहीं है. पिछले साल ही कांग्रेस से बीजेपी में आए राज गोपाल रेड्डी ने फिर से कांग्रेस का दामन थाम लिया है. पवन कल्याण की जनसेना पार्टी के साथ भी बीजेपी के मिलकर चुनाल लड़ने को लेकर अभी स्थिति साफ नहीं हुई है. जन सेना प्रमुख पवन कल्याण ने इस बाबत बीजेपी के शीर्ष नेताओं के साथ 25 अक्टूबर को दिल्ली में बातचीत भी की थी.

कहा यह जा रहा है कि जन सेना पार्टी बीजेपी के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन के तहत तेलंगाना में 15 से 20 सीटों पर चुनाव लड़ सकती है. बीजेपी शीर्ष नेतृत्व इस पर एक दो दिन में फ़ैसला कर सकता है. हालांकि जन सेना से हाथ मिलाने का बीजेपी को तेलंगाना में कोई ख़ास फ़ाइदा होने की संभावना कम ही है.

जन सेना पार्टी का तेलंगाना में जनाधार नहीं

अभिनेता से नेता बने पवन कल्याण की पार्टी का जो भी थोड़ा बहुत जनाधार है, वह आंध्र प्रदेश में है. तेलंगाना में जन सेना पार्टी का जनाधार नगण्य ही माना जायेगा. ऐसे में बीजेपी के लिए जन सेना पार्टी से हाथ मिलाना कितना कारगर होगा, यह तो चुनाव नतीजों के बाद ही पता चलेगा. इस कवायद से इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि केसीआर की जगह ख़ुद को नया विकल्प बताने का दंभ भरने वाली बीजेपी की स्थिति तेलंगाना में उतनी अच्छी नहीं है. अगर अकेले दम पर केसीआर को चुनौती देने या प्रदेश में मुख्य विपक्षी दल के तौर पर कांग्रेस का विकल्प बनने की क्षमता बीजेपी में होती, तो जन सेना जैसी पार्टी के साथ हाथ मिलाने के बारे में सोचने की नौबत नहीं आती. 

एंटी इनकंबेंसी का लाभ बीजेपी या कांग्रेस को!

लगातार नौ साल से तेलंगाना के मुख्यमंत्री पद की ज़िम्मेदारी संभाल रहे केसीआर के सामने इस बार एंटी इनकंबेंसी या'नी सत्ता विरोधी लहर की चुनौती है. हालाँकि सत्ता विरोधी लहर का ज़्यादा लाभ लेने की स्थिति में बीजेपी नहीं दिख रही है. इस मोर्चे पर कांग्रेस की स्थिति मज़बूत नज़र आ रही है. जिस तरह से कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की ओर से पिछले डेढ़ साल से प्रदेश में पार्टी के कुनबे को बढ़ाने और पुराने नेताओं को फिर सा साथ लाने को लेकर ख़ास दिलचस्पी दिखाई गयी है, उससे तेलंगाना में केसीआर के लिए बीजेपी से बड़ी चुनौती कांग्रेस पेश करती हुई नज़र आने लगी है. बीजेपी को इस ख़तरे से होने वाले नुक़सान पर अधिक ध्यान देने की ज़रूरत है.

केसीआर की लोकप्रियता में कमी नहीं

तेलंगाना में अभी भी लोकप्रियता के मामले में केसीआर तमाम बाक़ी नेताओं से काफ़ी आगे हैं. कई मोर्चे पर वादा पूरा नहीं करने के बावजूद उन्होंने देशव्यापी पैमाने पर अलग राज्य बनने के बाद  तेलंगाना की अर्थव्यवस्था को बेहद मज़बूत स्थिति में ला दिया है. ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट ( GSDP) 5,05,849 करोड़ रुपये से बढ़कर 12,93,469 करोड़ रुपये हो चुका है. या'नी इस मोर्चे पर ढाई गुना से ज़्यादा इज़ाफ़ा हुआ है. तेलंगाना प्रति व्यक्ति आय के मामले में राज्यों में देश में पहले नंबर पर है. प्रदेश में  कैपिटा इनकम सालाना 3.17 लाख रुपये तक पहुंच गया है, जो राष्ट्रीय औसत 1.70 लाख रुपये से काफ़ी ज़्यादा है. 2014 के मुक़ाबले तेलंगाना में प्रति व्यक्ति आय में दोगुना इज़ाफ़ा हुआ है. तेलंगाना के ग्रामीण इलाकों में किसानों से लेकर ग़रीबों तक केसीआर सबसे भरोसेमंद नेता के तौर पर अपनी पहचान बरक़रार रखने में कामयाब रहे हैं. वहीं बीजेपी की सबसे बड़ी समस्या ही यही है कि उसे पास तेलंगाना में न तो तो केसीआर के बर-'अक्स ने तो कोई चेहरा है और न ही प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में पार्टी की पकड़ बन पा रही है.

तेलंगाना की अस्मिता बड़ा चुनावी मुद्दा

इसके साथ ही इस बार के चुनाव में केसीआर की पार्टी भारत राष्ट्र समिति तेलंगाना की अस्मिता को भी बड़ा मुद्दा बना ही है, जिसका लाभ उन्हें हो सकता है. बीआरएस के नेता प्रचार अभियान में बीजेपी को बाहरी बताने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ रहे हैं. साथ ही केसीआर को तेलंगाना की अस्मिता की सबसे बड़ी पहचान के तौर पर स्थापित करने का कोई अवसर बीआरएस के नेता नहीं गँवा रहे हैं. बीजेपी के सामने इस भावनात्मक पहलू से होने वाले नुक़सान से भी निपटने की चुनौती है.

'मिशन साउथ' के लिए तेलंगाना बीजेपी की उम्मीद

'मिशन साउथ' के नज़रिये से अभी बीजेपी के लिए एकमात्र उम्मीद तेलंगाना ही है. यहाँ बीजेपी अपने प्रदर्शन से साबित कर सकती है कि दक्षिण भारतीय राज्यों में भी पार्टी अपने पैर पसार सकती है. तेलंगाना में भले ही वो सत्ता हासिल नहीं कर पाए, लेकिन अगर बीजेपी मुख्य विपक्षी पार्टी बनने में भी कामयाब हो जाती है, तो इसे क़ाबिल-ए-तारीफ़ ही माना जायेगा. ऐसा हुआ और अगर तेलंगाना में बीजेपी अपना जनाधार बढ़ाने में कामयाब रही, तो भविष्य में प्रदेश की राजनीति में केसीआर के सामने बीजेपी की चुनौती सबसे बड़ी और मज़बूत होगी. इससे बीजेपी की दक्षिण भारत के बाक़ी राज्यों से जुड़ी उम्मीदो को भी बल मिलेगा. आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में  बीजेपी के कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाने के लिहाज़ से यह एक कारगर संदेश साबित हो सकता है.  

इसके साथ ही बीजेपी के उभार से तेलंगाना में कांग्रेस के अस्तित्व पर सवालिया निशान भी लग सकता है. अगर बीजेपी तेलंगाना में मुख्य विपक्षी दल बनने में कामयाब हो जाती है, तो प्रदेश के लोगों के लिए फ़िलहाल कांग्रेस का विकल्प बीजेपी बन जायेगी. चंद महीने बाद होने वाले आम चुनाव 2024 के लिहाज़ से इसकी काफ़ी अहमियत है. लोक सभा चुनाव 2019 में  कांग्रेस तेलंगाना में 3 सीट जीतने में सफल रही है. अगर कांग्रेस का प्रदर्शन इस बार के विधान सभा चुनाव में पिछली बार के मुक़ाबले और ख़राब हुआ, तो 2024 के लोक सभा चुनाव में इसका सीधा फ़ाइदा बीजेपी को मिल सकता है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]

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