बीआरएस प्रमुख और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव आजकल राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के खिलाफ विपक्षी पार्टियों को लामबंद करने की मुहिम में जुटे हैं. केसीआर इस मुहिम से दशे की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस को दूर रख रहे हैं.


इस साल तेलंगाना में विधानसभा चुनाव भी होना है. तेलंगाना विधानसभा का कार्यकाल 16 जनवरी 2024 को खत्म हो रहा है. ऐसे में यहां मध्य प्रदेश, राजस्थान के साथ नवंबर-दिसंबर 2023 में चुनाव हो सकता है.  केसीआर की जो मुहिम है, उसके जरिए वे भले ही संदेश दे रहे हों कि 2024 में होने वाले आम चुनाव में विपक्षी एकता से बीजेपी के विजय रथ को रोका जा सकता है. लेकिन उनके इस मुहिम के पीछे तेलंगाना की सत्ता को बरकरार रखना असल मकसद है.


तेलंगाना में बीजेपी से मिल रही है चुनौती


तेलंगाना की सियासत में अब तक के. चंद्रशेखर राव का एकछत्र राज रहा है. अलग राज्य बनने के 4 साल बाद 2018 में यहां पहली बार विधानसभा चुनाव हुआ था. उस वक्त तेलंगाना की कुल 119 सीटों में से 88 सीटों पर केसीआर की पार्टी को जीत मिली थी. लेकिन इस बार केसीआर को सूबे के चुनाव में बीजेपी से सीधे चुनौती मिलने वाली है. इस बात से केसीआर भलीभांति वाकिफ हैं.


तेलंगाना में 2019 से बीजेपी का बढ़ा है जनाधार


बीते 4 साल में तेलंगाना में बीजेपी का जनाधार तेजी से बढ़ा है. 2018 के विधानसभा चुनाव में भले ही बीजेपी ज्यादा कुछ हासिल नहीं कर पाई थी. लेकिन उसके 4 महीने बाद ही हुए लोक सभा चुनाव में बीजेपी ने अपने प्रदर्शन से केसीआर की चिंता बढ़ा दी थी.  2018 में बीजेपी 7 फीसदी वोट के साथ सिर्फ एक ही विधानसभा सीट जीत पाई थी. लेकिन अप्रैल-मई 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी 4 सीटों पर जीतने में कामयाब रही. बीजेपी का वोट शेयर भी 19.45% तक पहुंच गया. वहीं 2014 के मुकाबले 2019 में केसीआर की पार्टी को 3 सीटों का नुकसान हुआ.


2019 में बज गई थी खतरे की घंटी


2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों का आकलन अगर विधानसभा सीटों के हिसाब से करें, तो केसीआर के लिए बीजेपी का खतरा उसी वक्त से पैदा होने लगा था. 2018 में बीजेपी 118 सीट पर लड़ने के बावजूद सिर्फ एक विधानसभा सीट जीत पाई थी, लेकिन 2019 के आम चुनाव में 21 विधानसभा सीटों में वो आगे थी. वहीं केसीआर की पार्टी 2018 में 88 सीटें जीती थी. लेकिन 2019 के आम चुनाव में उनकी पार्टी का जनाधार घट गया था. उस वक्त टीआरएस सिर्फ 71 विधानसभा सीटों पर ही आगे थी.


2019 के नतीजों से बीजेपी का बढ़ा भरोसा


तेलंगाना, जून 2014 में आंध्र प्रदेश से अलग होकर नया राज्य बना था. उस वक्त न तो आंध्र प्रदेश और न ही तेलंगाना में बीजेपी कोई बड़ी राजनीतिक ताकत थी. 2019 के आम चुनाव के नतीजों से बीजेपी का भरोसा बढ़ा. उसके बाद बीजेपी बीते 3 साल से सूबे की राजनीति में पकड़ बनाने के लिए जोर-शोर से जुट गई. कांग्रेस और टीडीपी लगातार तेलंगाना में कमजोर होते जा रही थी. बीजेपी ने इसे ही हथियार बनाया. बीजेपी इस नीति पर आगे बढ़ी कि आने वाले वक्त में सूबे के लोगों के लिए वहीं नया विकल्प बन सकती है. उसी का नतीजा है कि इस साल के विधानसभा में बीजेपी तेलंगाना में केसीआर को मात देकर सरकार बनाने का दंभ भर रही है.


केंद्र की राजनीति पर फोकस करने के मायने


केसीआर राष्ट्रीय राजनीति के जरिए सूबे का समीकरण साधने की कोशिश कर रहे हैं. केंद्र में सत्ता के समीकरणों की बात करें तो तेलंगाना में महज़ 17 लोकसभा सीटें है. उत्तर भारत के राज्यों को तो छोड़िए, तेलंगाना से बाहर दक्षिण भारत के भी किसी राज्य में फिलहाल केसीआर का कोई जनाधार नहीं है. इसके बावजूद वे 2024 में केंद्र में बीआरएस प्रस्तावित सरकार की सत्ता का ख्वाब बुन रहे हैं. और इसके लिए पिछले कुछ महीनों से वे विपक्ष को एकजुट करने में जुटे हैं. इसी मुहिम के तहत 18 जनवरी को उन्होंने खम्मम में एक बड़ी रैली की, जिसमें आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल और भगवंत मान, सीपीएम नेता और केरल के मुख्यमंत्री पिनरायी विजयन, समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव और सीपीआई के डी राजा भी शामिल हुए. 


तेलंगाना की जनता को देना चाह रहे हैं संदेश


केसीआर नए राज्य बनने से लेकर अब तक तेलंगाना के एकमात्र मुख्यमंत्री है. अगले विधानसभा चुनाव तक केसीआर 9 साल से भी ज्यादा वक्त तक सूबे की सत्ता पर रहेंगे. राज्य में मजबूत होती बीजेपी के साथ ही उनको सत्ता विरोधी लहर (Anti incumbency) का भी सामना करना पड़ेगा. तेलंगाना में बीजेपी की बढ़ती ताकत ने केसीआर की चिंता बढ़ा दी है. राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के खिलाफ मोर्चा बनाने की कवायद इसी का काट है. केसीआर को अंदाजा है कि उनके इस मुहिम से भले ही वे राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी को मात नहीं दे सकें, लेकिन बीजेपी के खिलाफ इस तरह की लामबंदी का लाभ उन्हें तेलंगाना विधानसभा चुनाव में मिल जाएगा. सूबे की जनता के बीच मैसेज देने की कोशिश है कि उनके नेता केसीआर का कद अब राष्ट्रीय राजनीति के पटल पर बड़ा हो चुका है. ये पूरी मुहिम केसीआर को तेलंगाना की पहचान से जोड़ने की कोशिश दिख रही है. अक्टूबर 2022 में केसीआर ने अपने पार्टी का नाम तेलंगाना राष्ट्र समिति (TRS) से बदलकर भारत राष्ट्र समिति (BRS) कर दिया था. पार्टी का नाम बदलने के पीछे भी केसीआर की यहीं मंशा थी. वो खुद को तेलंगाना के अस्तित्व और पहचान से जोड़कर सूबे में बीजेपी के बढ़ते कद से होने वाले नुकसान की भरपाई करना चाह रहे हैं.


तेलंगाना में बीजेपी बन सकती है नया विकल्प


बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व केसीआर के विपक्ष  को लामबंद करने के मुहिम को ज्यादा तवज्जो देने के मूड में नहीं दिख रहा है. हालांकि बीजेपी ने केसीआर के अंदाज में ही दिल्ली से तेलंगाना की जनता को संदेश देने की कोशिश की है. इसकी कमान खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संभाली. 16 और 17 जनवरी को दिल्ली में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई थी. इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीजेपी के तेलंगाना अध्यक्ष बंदी संजय कुमार और तेलंगाना के बीजेपी कार्यकर्ताओं के संघर्ष की जमकर तारीफ की थी. उन्होंने कहा था कि बीजेपी के कार्यकर्ताओं को बंदी संजय कुमार से सीखना चाहिए. पीएम मोदी ने कहा था कि बंदी संजय कुमार ने केसीआर सरकार के खिलाफ जिस तरह की लड़ाई लड़ी है, वो एक तरह से नज़ीर है. प्रधानमंत्री मोदी ने इसके जरिए तेलंगाना की जनता को सीधे दिल्ली से संदेश दिया है कि इस बार वहां बीजेपी सरकार बनाने के बहुत करीब है.


बीजेपी के लिए तेलंगाना है प्रतिष्ठा का सवाल


ऐसे तो बीजेपी के लिए हर राज्य का चुनाव उतना ही महत्वपूर्ण होता है, लेकिन दक्षिण राज्यों में पैठ बढ़ाने के नजरिए से तेलंगाना बीजेपी के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है. फिलहाल कर्नाटक ही एकमात्र दक्षिण राज्य है, जहां बीजेपी की सरकार है. इसके अलावा आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में बीजेपी अभी उतनी मजबूत नहीं है कि सरकार बनाने के बारे में सोच भी सके. इनके अलावा सिर्फ तेलंगाना ही है, जहां बीजेपी मजबूत स्थिति में नज़र आ रही है. अगर इस साल तेलंगाना में सरकार बनाने में कामयाब हो जाती है, तो बीजेपी के लिए दक्षिण के दूसरे राज्यों में भी संभावनाएं बढ़ेंगी. इसके अलावा 2024 के आम चुनाव के लिए जिस तरह की लामबंदी में केसीआर जुटे हैं, वो मुहिम भी काफी हद तक कमजोर हो जाएगी.  बीजेपी नेता और तेलंगाना के प्रभारी तरुण चुग दावा कर रहे हैं कि केसीआर विपक्षी नेताओं के साथ जितना भी मंच साझा कर लें, लेकिन राज्य में उनका वोट बैंक अब नहीं बढ़ने वाला. पीएम मोदी 2022 में 4 बार तेलंगाना का दौरा कर चुके हैं. तेलंगाना को ध्यान में रखकर ही पिछले साल जुलाई में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हैदराबाद में हुई थी.


केसीआर के लिए खतरा हैं बंदी संजय कुमार


तेलंगाना में जिस एक शख्स ने बीजेपी को आज शून्य से उस मुकाम पर पहुंचा दिया है कि अब सियासी गलियारे में सूबे की सत्ता पर बीजेपी की दावेदारी को लेकर चर्चा होने लगी है, वो शख्स बंदी संजय कुमार ही हैं. करीमनगर से सांसद और प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष आज के वक्त में केसीआर के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुके हैं. उन्होंने प्रजा संग्राम यात्रा के जरिए राज्य में बीजेपी के पक्ष में माहौल बना दिया है. उनकी मेहनत की बदौलत बीजेपी तेलंगाना के 80 फीसदी से ज्यादा बूथों पर पन्ना प्रमुख के जरिए सीधे लोगों से संवाद बना रही है. बीजेपी का टारगेट है कि 15 फरवरी तक वहां के हर बूथ पर पन्ना प्रमुख की नियुक्ति कर दी जाए. मार्च 2020 में बीजेपी ने बंदी संजय कुमार को तेलंगाना का अध्यक्ष बनाया था. उनकी तेज-तर्रार और युवा छवि इस बार केसीआर के लिए मुश्किलें पैदा कर सकती हैं. केसीआर के खिलाफ बीजेपी के पास सबसे बड़ा हथियार एंटी इंकंबेंसी तो है ही, इसके अलावा बीजेपी का कहना है कि तेलंगाना के किसान, गरीब से लेकर कर्मचारी तक केसीआर की नीतियों से ख़फा हैं.  दो सालों में बीजेपी ने बीआरएस के नाराज नेताओं और विधायकों को भी अपने पाले में लाने की कोशिश की है. कभी तेलंगाना सरकार में मंत्री रहे ई राजेंद्र ने केसीआर से नाराज होकर बीजेपी का दामन थाम लिया था. नवंबर 2021 में हुजूराबाद सीट पर हुए उपचुनाव में बीजेपी उम्मीदवार के तौर पर ई राजेन्द्र ने टीआरएस को मात दी थी.  ई राजेन्द्र (Eatala Rajender) के बीजेपी में आने से सेंट्रल तेलंगाना में पार्टी मजबूत हुई है. बीआरएस के पूर्व सांसद कोंडा विश्वेशवर रेड्डी (Konda Vishweshwar Reddy) और नरसिया गौड (Narsaiah Goud) के भी आने से बीजेपी की ताकत बढ़ी है.


बीजेपी के पक्ष में ही है केसीआर की मुहिम!


एक और बात है जिससे सियासी महकमे में केसीआर की कवायद पर सवाल खड़े हो रहे हैं. जिस तरह से वे बिना कांग्रेस के विपक्षी एकता की मुहिम को आगे बढ़ाने में जुटे हैं, उससे बीजेपी को नुकसान की बजाय फायदा ही हो सकता है. ये सच है कि केसीआर जिन नेताओं के साथ मंच साझा कर रहे हैं, वे सभी नेता क्षेत्रीय क्षत्रप हैं, उनका जनाधार सिर्फ सीमित राज्यों या यों कहें कि सिर्फ एक ही राज्य में है. उसमें भी बिहार से जेडीयू नेता नीतीश कुमार और कर्नाटक से जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी केसीआर के मुहिम से दूरी बनाते दिख रहे हैं. कांग्रेस ही फिलहाल ऐसी विपक्षी पार्टी है, जिसका जनाधार और संगठन कमोबेश देशभर में है. ऐसे में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस को साथ लाए बिना बीजेपी के खिलाफ कोई भी मोर्चा बनाना, विपक्ष के मंसूबों के लिए नुकसानदायक ही साबित हो सकता है. वहीं विपक्ष के वोट में बंटवारे से इसका सीधा लाभ बीजेपी को मिल सकता है. हालांकि केसीआर खुद की मुहिम को सार्वजनिक तौर से मिशन 2024 के नजरिए से पेश कर रहे हैं, लेकिन तमाम विश्लेषणों से साफ है कि उनकी असली मंशा कुछ और है. 


ये भी पढ़ें:


त्रिपुरा में बीजेपी और सीपीएम-कांग्रेस गठबंधन के मंसूबों पर पानी फेर सकती है क्षेत्रीय पार्टी 'टिपरा मोथा'