टेरेंस मैकस्विनी, भूख हड़ताल और आयरिश-भारत संबंध
भारत में आज किसी को भी टेरेंस मैकस्वीनी का नाम याद नहीं, लेकिन एक समय वह दुनिया में किसी किंवदंती की तरह थे. भारत तक उनके नाम की गूंज और सम्मान था. भारत में जब हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के प्रमुख सदस्य और भगत सिंह के खास साथी, बांग्ला क्रांतिकारी जतिन दास ने सितंबर 1929 में लंबी भूख हड़ताल के बाद जेल में दम तोड़ा था तो उन्हें ‘भारत का टेरेंस मैकस्विनी’ कहा गया था. टेरेंस मैकस्वीनी की मौत 1920 में 25 अक्तूबर को हुई थी. आम आदमी की कल्पना में आयरलैंड कविता, राजनीतिक विद्रोहियों और चौतरफा हरियाली वाले के देश की तरह उभरता है. यह सच भी है. अपनी जमीन से जुड़े मेकस्विनी कवि, नाटककार, छोटी-छोटी पुस्तिकाओं के लेखक होने के साथ राजनीतिक क्रांतिकारी थे, जो आयरिश स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में साउथ वेस्ट आयरलैंड में स्थित कॉर्क के लॉर्ड मेयर तक चुने गए.
उस दौर में भारत के राष्ट्रवादी लोग आयरलैंड की घटनाओं पर बारीक नजर रखते थे. ब्रिटिश राज के दौरान भले ही भारत में आयरिश मूल के लोगों ने अत्याचार करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी, मगर इससे पहले खुद आयरिश ब्रिटिश लोगों के शिकार थे और उन्होंने अपने इस पड़ोसी के उपनिवेशवाद के विरुद्ध पराक्रम पूर्ण लड़ाई लड़ी थी. अंग्रेजों ने भारत में अपने खिलाफ हो रहे विद्रोह को दबाने के लिए आयरिश लोगों का इस्तेमाल किया. आप सिर्फ रेगिनाल्ड डायर को याद कीजिए, जिसने जलियांवाला बाग हत्याकांड को अंजाम दिया. उसका जन्म भले मुरे (अब पाकिस्तान में) में हुआ था, मगर उसकी शिक्षा-दीक्षा कॉर्क काउंटी के मिडिलटन कॉलेज में और आगे आयरलैंड स्थित सर्जियंस के रॉयल कॉलेज में हुई.
इसी तरह जलियांवाला बाग हत्याकांड की जड़ तत्कालीन पंजाब का लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ’ड्वायर लिमेरिक में जन्मा आयरिश व्यक्ति था. ड्वायर ने ही डायर को नरसंहार की इजाजत की खुली इजाजत दी थी और बाद में भारतीयों की इस जघन्य हत्या को ‘सैन्य जरूरत’ बताया था.
इंग्लैंड ने भारत में ऐसी बहुत कम चीजें की, जो उसने पहले आयरलैंड में नहीं आजमाई थीं. उसने आयरलैंड को कंगाल देश बनाया और वहां के लोगों को इंसान से नीचे के दर्जे पर पहुंचा दिया था. पोप के प्रति निष्ठा जताने वाले आयरिश लोगों को उसने अंधविश्वासी कैथोलिक बता कर उनका बार-बार अपमान किया. 1897 में जन्मे मैकस्विनी ने अपने जीवन के दूसरे दशक के अंतिम दौर में सक्रिय राजनीति में कदम रखा और 1913-14 तक अपनी महत्वपूर्ण जगह बना ली. उन्होंने आयरिश स्वयंसेवकों के साथ देश के लोगों के लिए तमाम अधिकारों और आजादी के वास्ते एक संगठन की स्थापना करने के साथ राजनीतिक पार्टी सिन फेन की भी स्थापना की, जो देश की संपूर्ण स्वतंत्रता की वकालत करती थी.
दुर्भाग्य का शिकार हुई आयरलैंड की अप्रैल 1916 की ईस्टर बगावत के दौरान मैकस्विनी पूरी तरह सक्रिय थे. यह सशस्त्र क्रांति छह दिनों तक चली, जिसे ब्रिटिश सेना ने अपने तोपखाने और विशाल सैन्य ताकत से दबा दिया. डबलिन के अधिकतर हिस्से को मलबे में तब्दील कर दिया गया. ऐसा संभव नहीं है कि यह विद्रोह इतिहास के पन्नों की धुंध में खो जाए, लेकिन महाकवि विलियम बटलर यीट्स ने अपनी कविता ‘ईस्टर 1916’ में यह लिखते हुए इसे अमर कर दिया कि: ‘ऑल चेंज्ड, चेंज्ड अटरली/अ टैरीबल ब्यूटी इज बॉर्न.’ अगले चार वर्षों तक मैकस्विनी एक राजनीतिक बंदी के रूप में ब्रिटिश जेलों में अंदर-बाहर होते रहे.
लेकिन मैकस्विनी ने अगस्त 1920 में जब भूख हड़ताल शुरू की तो उन पर भारत और शेष विश्व की नजरें पड़ीं. 12 अगस्त को उन्हें ‘देशद्रोही आलेख और दस्तावेज’ अपने पास रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया -यह उस वक्त ठीक आज के भारत जैसा परिदृश्य था- और कुछ ही दिनों में अदालत ने उन्हें इंग्लैंड के ब्रिक्सटन जेल में दो साल कैद की सजा भुगतने का फैसला सुना दिया. तब मैकस्विनी ने ट्रिब्यूनल के सामने घोषणा की, ‘मैंने अपने कारावास की अवधि तय कर ली है. आपकी सरकार चाहे जो कर ले, एक महीने के भीतर मैं आजाद हो जाऊंगा, जिंदा या मुर्दा.’
यह कहते हुए उन्होंने भूख हड़ताल शुरू की कि उन्हें सजा सुनाने वाली सैन्य अदालत का उन पर कोई अधिकार नहीं है, तब उनके साथ ग्यारह अन्य रिपब्लिकन कैदी भी कंधे से कंधा मिला कर खड़े हो गए. अमेरिका से आयरिश रिपब्लिकनों को अपना समर्थन देने वाली आयरिश आबादी उनके पक्ष में उतर आई, लेकिन इससे भी बड़ी बात यह हुई कि मैड्रिड से रोम तक और ब्यूनस आयर्स तथा न्यूयॉर्क से आगे बढ़ते हुए दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया तक से मैकस्विनी की रिहाई के लिए न केवल मजदूर वर्ग आवाज उठाने लगा बल्कि मुसोलिनी और अश्वेत राष्ट्रवादी मार्कस गार्वे ने भी उन्हें रिहा करने की मांग कर डाली.
जैसे-जैसे दिन आगे बढ़े, मैकस्विनी के समर्थकों ने उनसे भूख हड़ताल खत्म करने की प्रार्थना शुरू कर दी, जबकि जेल में ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें जबरदस्ती खाना खिलाने के भरपूर प्रयास किए. अक्तूबर 1920 को मैकस्विनी कोमा में चले गए और अपनी भूख हड़ताल के 74 दिनों बाद उन्होंने 25 अक्तूबर को दम तोड़ दिया. आयरलैंड की तरह भारत भी मैकस्विनी के शोक में डूब गया. कई लोग मानते हैं कि मैकस्विनी से गांधी बहुत ‘प्रभावित’ हुए, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि संकल्प शक्ति, देशभक्ति और धीरज को अपनी शक्ति बनाने वाले गांधी ने ‘उपवास’ और ‘भूख हड़ताल’ का फर्क बनाए रखा. बावजूद इन बातों के मैकस्विनी सशस्त्र क्रांतिकारियों और जवाहरलाल नेहरू के लिए भी एक हीरो थे.
मैकस्विनी की मृत्यु के कुछ वर्ष बाद अपनी बेटी इंदिरा को एक पत्र में नेहरू ने लिखा कि इस आयरिश की भूख-हड़ताल ने आयरलैंड समेत पूरे विश्व को ‘व्याकुल’ कर दिया. नेहरू ने लिखाः ‘जब उसे जेल में डाला गया तो उसने घोषणा की कि वह जिंदा या मुर्दा बाहर निकल आएगा और फिर उसने भोजन त्याग दिया. 75 दिनों बाद अंततः उसके मृत शरीर को जेल से रिहाई मिल गई.’ इस बात में जरा संदेह नहीं कि 1929 के मध्य में भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त और लाहौर षड्यंत्र के मामले में जेल में बंद अन्य सेनानियों ने जब ‘राजनीतिक कैदी’ के दर्जे की मांग करते हुए भूख हड़ताल की तो उनके सामने गांधी का नहीं बल्कि मैकस्विनी का उदाहरण और आदर्श सामने था. इस भूख-हड़ताल में बंगाल के राजनीतिक कार्यकर्ता और बम-बनाने वाले जतींद्र नाथ दास भी शामिल हो गए. उनका विरोध जेल की खराब स्थितियों और राजनीतिक कैदियों के अधिकारों के लिए था.
63 दिनों की भूख-हड़ताल के बाद 13 सितंबर 1929 को जतिन की मौत हो गई. पूरा देश दुख के सागर में डूब गया. नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा, ‘जतिन की मौत ने पूरे देश में सनसनी फैला दी.’ दास को कलकत्ता में वैभवपूर्ण ढंग से अंतिम विदाई दी गई और उसमें तमाम बड़े लोगों के साथ सुभाष चंद्र बोस भी शामिल हुए.
गांधी भले ही उपवास करने में सबसे आगे थे मगर आधुनिक इतिहास में भूख-हड़ताल की शुरुआत टेरेंस मैकस्विनी से होती है. यह काफी हद तक संभव है कि खास तौर पर मैकस्विनी की शहादत के बाद गांधी ने यह पहचाना हो कि भूख-हड़ताल कैसे राजनीति के रंगमंच पर न केवल देश भर का ध्यान आकर्षित करती है बल्कि पूरी दुनिया में वैचारिक हलचल पैदा कर देती है. वैसे भारत में मैकस्विनी की कहानी अपने लोगों के अधिकारों की रक्षा की लड़ाई के अलावा भी कई अन्य कारणों से पहचानी या याद की जानी चाहिए, जैसा कि मेरा मानना है, इंग्लैंड ने भारत को बर्बाद करने से पहले आयरलैंड को अविकसित रखा और कई मायनों में उसे भारत में लागू की गई अपनी भूमि बंदोबस्त, कराधान, अकाल राहत, विद्रोह को कुचलने समेत तमाम नीतियों की प्रयोगशाला बनाया. यह भी विचलित करने वाला तथ्य है कि भारत आए आयरिश लोगों की कहानी बताती है कि जिन पर अत्याचार होता है वह दूसरों का दमन करते हैं. भारत के उपनिवेशीकरण में आयरिश लोगों की भूमिका, विस्तार से अध्ययन करने का विषय है.
दूसरी तरफ टेरेंस मैकस्विनी की यह दंतकथा उस जटिल इतिहास की ओर भी इशारा करती है, जिसमें हाल के वर्षों में भारतीय-आयरिश एकजुटता के पन्ने कुछ इतिहासकारों द्वारा खोजे गए हैं. उदाहरण के लिए भारतीय लंबे समय से आयरिश महिला एनी बेसेंट से परिचित हैं, लेकिन उनके योगदान, सहयोग और संयुक्त संघर्ष के विभिन्न संस्करण हैं. ऐसे दौर में जबकि संकीर्णता और राष्ट्रवाद की हवा में दूसरी नस्ल या अपनी धरती पर विदेशी लोगों के प्रति नफरत दुनिया में आम बात हो चली है, मेकस्विनी की कहानी मानवता के सीमाओं से परे होने की तरफ महत्वपूर्ण संकेत करती है.
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