ये तो स्वाभाविक है कि जो पाठ्यक्रम में परिवर्तन किए जाते हैं, उससे पूर्व बोर्ड की मीटिंग होती है. वो इसलिए भी होती है कि हम अपने पाठ्यक्रम में हमेशा उनमें नवीनता और नवोन्मेष को बनाये रखें. अभी जो 12वीं कक्षा के सिलेबस से मुगल चैप्टर को हटाया जा रहा है उसे लेकर इतिहास को देखेने का अपना एक भारतीय दृष्टिकोण और एक पक्ष है.
दूसरी बड़ी बात ये है कि हमें यह भी देखना चाहिए कि अब तक जो हमने इतिहास पढ़ा है या इससे पूर्व का जो इतिहास लिखा गया है, हमें उसकी भी गंभीरता को बहुत समझने की जरूरत भी है. किस तरीके से मुगल साम्राज्य का विवरण और उसका महिमामंडन किया गया और उसका 12वीं के छात्रों के मानस पटल और चरित्र पर क्या असर पड़ता है. मुझे लगता है कि उस दृष्टि को एक नए तरीके से रखने की कोशिश की जा रही है.
हमें यह भी समझना पड़ेगा कि जब मुगलकालीन इतिहास लिखा जा रहा था और जब ताराचंद जी इसे लिख रहे थे तो उन्होंने उस वक्त की यह संस्कृति और गंगा-जमुनी तहजीब को दिखाया और फिर इस बात को आर सी मजूमदार ने उसे कैसे परोसा. ये सब तो इतिहासकारों का एक दृष्टिकोण था. उस पर हमें फिर से सोचने और समझने की जरूरत है. दूसरी बात यह है कि हमें किस तरह के इतिहास की जरूरत है. यह भी एक बड़ा प्रश्न है. हम लोगों के समक्ष जो इतिहास लिखने और समझने की जरूरत है उसमें हमें अपनी भारतीय दृष्टिकोण को देखने की आवश्यकता है. इस पर ज्यादा सोचने और विचार करने की जरूरत है.
अब आप उदाहरण के तौर पर मध्यकालीन या मुगलकालीन चित्रकला को देखेंगे और फिर आनंद कुमार स्वामी की जो पुस्तक है 'राजपूत पेंटिंग' पर उस पर गौर करेंगे तो पता चलेगा कि किस तरह से राजपूत काल में चित्रकला का विकास होता है और फिर वह किस तरह से मुगल चित्रकला की दृष्टि बन जाती है. फिर वह इतिहास लेखन के तौर पर सामने आती है और ऐसा दिखाया जाता है कि मुगलों ने ही उस चित्रकला का विकास किया था. लेकिन वो समस्त दृष्टि पूरी तरह से हमारे राजपूत चित्रकला में परिलक्षित होते हुए दिखाई पड़ती है. आज जितना भी सांस्कृतिक पक्ष का हमारा अंतर्प्रवाह बना हुआ है उसमें हमारी अपनी भारतीय दृष्टि रही है. उसका रस प्रवाह बना हुआ है. वो आगे की तरफ आ सकता है या कहें कि उसे सामने लाने की जरूरत है. ये तो एक पक्ष है और दूसरी बड़ी बात यह भी है कि एनसीईआरटी एक टेक्स्ट बुक है, कोई रेफरेंस बुक तो नहीं है. रेफरेंस बुक और शोध का प्रश्न एक अलग चीज है.
चूंकि एक विद्यार्थी के मानस पटल पर इतिहास को कैसे निर्मित किया जाए, यह भी एक बड़ा प्रश्न है और हम जो अभी तक मुगलकालीन इतिहास का महिमामंडन कर रहे थे, उसको अब हटाने का प्रयास हुआ है या हटाया जा रहा है. उसमें ध्यान रखने वाली बात यह है कि उसके सिर्फ आभामंडल को हटाने का प्रयास किया गया है न कि उसके सांस्कृतिक पक्ष को. उदाहरण के तौर पर अगर देखा जाए तो हमारे यहां लिखने से ज्यादा श्रुतियों की परंपरा रही है. यह भारतीय परंपरा पहले से विकसित रही है. प्रश्न यह भी है कि जब सब बातें श्रुतियों में भी लिखी गई हैं तो हम उनको हटा नहीं रहे हैं और उन्हें हटाया भी नहीं जाना चाहिए.
इसके अलावा जो प्रत्यक्ष रूप से स्थापत्य कलाएं हैं, उन्हें हटाने का तो कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता है. यहां प्रयास ये किया जा रहा है कि मुगल साम्राज्य का जो महिमामंडन है सिर्फ उसको हटाया जा रहा है या कहें कि मुगलों के उस चरित्र को हटाने का एक प्रयास है. यह एनसीईआरटी का अपना भी एक पक्ष हो सकता है. उसकी अपनी दृष्टि हो सकती है. लेकिन ये बात हम लोगों को भी ध्यान में रखना चाहिए और समझना चाहिए कि हमें किस तरीके से एक मानस पटल को निर्मित करने की जरूरत है, किस तरह का पक्ष रखने की आवश्यकता है.
मुगल काल के इतिहास को तो बिल्कुल भी नहीं भुलाया जा सकता है. उस पर निरंतर विचार-विमर्श जारी रखनी चाहिए. उन सभी चीजों को हमें इस रूप में देखना चाहिए कि उस दौर के शासनकाल से जो समस्याएं पैदा हुईं या जो उसके गंभीर परिणाम सामने आए हैं और उसे लेकर जो विमर्श चल रहा है उसको खत्म नहीं होने दिया जाना चाहिए. तभी तो हमें यह पता चल पाएगा कि कौन सी चीजें सकारात्मक हैं और कौन सी चीजें नकारात्मक हैं.
दूसरी बड़ी बात यह है कि किसी कालखंड को मिटाना क्या मनुष्य के वश में है. हमें इसे भी ध्यान में रखना चाहिए कि क्या जो पूर्व में लेखन कार्य हुआ वो तर्कसंगत था, क्या वह न्यायसंगत था, क्या वह भारतीय संगत की दृष्टि थी. यह प्रश्न उस भारतीय दृष्टिकोण का भी है. यह स्वाभाविक है कि यदि कोई बदलाव हो रहा है तो उसके भी पक्ष को हमें देखना पड़ेगा, लेकिन वहां हमें बिल्कुल सचेत रहना पड़ेगा कि मुझे उस पूरे कालखंड को मिटाना नहीं है बल्कि उसे सच्चाई के साथ सबके सामने रखना भी है.
यह भी देखना है कि किस तरह इन सब चीजों के होने के बावजूद भी हमारा जो अपना विजन था चाहे वो अंग्रेजों के आने के बाद का हो या स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का हो उसमें जो भारतीय सांस्कृतिक का भाव है, क्या उसमें मेरी दृष्टि बनी हुई है या नहीं बनी हुई है. जो हमारी भारतीयता की दृष्टि है या जो वेदों की परंपरा रही है वो अभी भी हम लोगों के समाज में बनी हुई है या नहीं. हमने तो सभी का अपने यहां आदर किया है और कहा जाए तो जितनी भी संस्कृतियां हैं, उन सभी को समावेशित भी किया है, लेकिन हमने यह ध्यान रखा है कि हमारी जो भारतीय अस्मिता है वो समाप्त नहीं होने पाए.
(ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)