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Opinion: अदालतों में शोक सभा के कारण कामकाज ठप्प करने की प्रथा

देश की 6 फीसदी आबादी मुकदमों में उलझी हुई है. अदालत में वर्षों तक मुकदमे चलते रहते हैं. कई स्तरों पर न्यायालय और न्यायाधीशों के साथ सरकार की तरफ से मुकदमों के त्वरित निपटारे का प्रयास किए जाने का दावा किया जाता है. मुकदमों की संख्या की तुलना में न्यायाधीशों की कमी को दूर करने का प्रयास भी इसमें एक है.

अदालतों में मुकदमे का तत्काल निपटारा नहीं होने के पीछे ऐसी और बहुत सारी ढांचागत कमिया बताई जाती है. हालांकि, हम मुकदमों की संख्या बढ़ने के कारणों को दूर करने पर बात कम करते हैं. जैसे पिछले साल (2022) संविधान दिवस पर सुप्रीम कोर्ट में देश की राष्ट्रपति ने भी कहा कि जेलों की संख्या का बढ़ना विकास के लक्षण नहीं हो सकते हैं बल्कि जेलों की संख्या कम हो ये प्रयास होना चाहिए.

बढ़ते मुकदमे, दूर होता इंसाफ

बहरहाल, मैं भी आपके समक्ष अदालतों में मुकदमों की उम्र में सहायक एक प्रथा की तरफ आपका ध्यान लेकर जाना चाहता हूं. आपको पता ही होगा कि देशभर में अदालतों में शोक सभाएं जब आयोजित होती है तब अदालतों में उस दिन कामकाज ठप हो जाता है. 

हाल में गोरखपुर में यूपी के पूर्व आईएसआर दारापुरी, पत्रकार डॉ. सिद्धार्थ रामू और अंबेडकर जन मोर्चा के संयोजक श्रवण कुमार निराला समेत दस लोगों को भूमिहीनों के लिए जमीन की मांग करने वाले एक प्रदर्शन में 10 अक्टूबर 2023 को भाग लेने के बाद गिरफ्तार कर लिया गया. पहले उनकी जमानत की अर्जी सीजेएम की अदालत से खारिज कर दी गई. उन्हें जिला अदालत में जमानत के लिए 20 अक्टूबर को सुनवाई की तारीख मुकर्रर की गई.

लेकिन, उन दिन सुनवाई नहीं हो सकी क्योंकि अदालत परिसर में शोक सभा बुलाई गई थी. शोकसभा के बाद अदालत में कामकाज ठप्प हो जाता है, फिर उनकी जमानत के लिए 26 अक्टूबर की तारीख दी गई.

वहां से मुझे ये जानकारी मिली कि 'शोक अवकाश' अदालतों में सामान्य है. अदालत के सदस्यों में किसी की मौत हो जाती है तो कामकाज के दिन शोकसभा आयोजित की जाती है. अदालत में मुकदमों पर अगली सुनवाई के लिए नई तारीखें दे दी जाती है. अदालतों के सदस्यों में सरकार की तरफ से नियुक्त न्यायिक अधिकारी और मुकदमें लड़ने वाले वकील होते हैं. बार के सदस्यों के लिए शोक दिवस की संख्या अधिकतम होती है.

अदालतों के काम पर शोक दिवस भारी

ये कहना मुश्किल है कि देश की किस अदालत में शोक के कारण सालभर में कितने दिन कामकाज नहीं हुए, क्योंकि ये निश्चित नहीं है. इस बारे में मुझे पटना हाईकोर्ट के एक वकील ने जरूर बताया कि वहां की नई प्रथा के अनुसार महीने में एक दिन शोकसभा आयोजित की जाती है और उस महीने में दिवंगत होने वाले अदालतों के अधिकारियों और सदस्यों को श्रद्धांजलि दी जाती है. यानी, हाईकोर्ट में साल के 12 दिन शोक सभाओं के कारण कार्य मुक्त दिवस घोषित है जो कि अदालत की तरफ से निर्धारित अवकाश की सूची में दर्ज नहीं होता है.

लेकिन, अन्य अदालतों में बारह दिनों की ये सीमा भी निश्चित नहीं है. 'शोक अवकाश' के दिन अनिश्चित है. मैंने गोरखपुर जिले की अदालत में 20 अक्टूबर 2023 को सुनवाई नहीं हो पाने की घटना की चर्चा की है तो मुझे ये जानने की तीव्र जिज्ञासा हुई कि ऐसे कितने दिनों तक अवकाश की सीमा है तो मुकदमें परेशान एक पत्रकार मित्र ने बताया कि महीने में चार-पांच दिन हो ही जाते हैं. भोजपुर की जिला अदालत से रिटायर्ड न्यायाधीश ने बताया कि वहां महीने में तीर-चार दिन तक शोक दिवस में चले जाते थे.

मैं शोक अवकाश के आंकड़े जमा करने की कोशिश कर रहा हूं. वैसे आप अपने स्तर पर देशभर की अदालतों में शोक अवकाश के आंकड़े मंगवा सकते हैं. मैं आरटीआई के जरिए ये कोशिश कर सकता हूं क्योंकि ऐसी जानकारियों के लिए अनुरोध पत्र का जवाब देने की संस्कृति लुप्त हो गई है. वैसे आरटीआई का इस्तेमाल भी ऐसी सूचनाओं के लिए संभावनाओं को लेकर बहुत उम्मीद नहीं देता है.

जिला अदालतों के कामकाज पर सीजेआई उठा चुके सवाल

भारत के मुख्य न्यायाधीश का जिला स्थित अदालतों को लेकर कामकाज की संस्कृति पर भाषण सुन चुका हूं, जिसमें कई चिंताएं जाहिर की गई हैं. मैं ये अनुरोध करना चाहता हूं कि शोक अवकाश के लिए एक गाइडलाइन जारी की जानी चाहिए. ये भी हो सकता है कि वर्ष में हर अदालत के लिए एक शोक दिवस के अवकाश को सुनिश्चित किया जा सके.

मैं ये महसूस करता और इसमें यकीन करता हूं कि जीवन में अपने प्रियजनों या सहयोगी का शोक मनाना जीवन की जरूरी गतिविधियों का हिस्सा है. शोक सभाएं जरूर आयोजित की जाए. लेकिन, हम ये भी महसूस कर सकते हैं कि कामकाज ठप्प करने से शोक सभा के दिन हम अदालतों के सदस्यों से ज्यादा बड़ी संख्या में मुकदमें में उलझे लोगों के लिए कई तरह की परेशानियां खड़ी होती है.

यूपी में बाराबंकी के एक वकील मित्र ने बताया कि वहां के अदालत परिसर में रोजाना 1,000  से 1200 की संख्या में लोग अपने मुकदमों के सिलसिले में रोजाना आते हैं और यहां यह निश्चित नहीं है कि महीने में कितने दिन शोक दिवस मनाया जा सकता है.

मैं इस तरह के ख्याल को बिल्कुल ही गलत और इंसानी भावना के विपरीत मानता हूं कि शोक से होने वाले नुकसान का आर्थिक लेखा-जोखा पेश किया जाए. आर्थिक लेखा-जोखा के नजरिए से जीवन को देखना बनियादी इंसानी मूल्यों, अधिकारों व भावनाओं को नजरअंदाज करने की राजनीतिक विचारधारा है. शोक और श्रद्धांजलि बेहद नाजुक भावनात्मक गतिविधि और जीवन की गति का हिस्सा है. लेकिन, मैं ये जरूर कह सकता हूं कि बहुत सारे लोग मुकदमेबाजी के कारण तबाह हो जाते हैं और शायद समाज का एक वंचित हिस्सा ऐसा भीहै जो कि अपने दो वक्त की रोटी की कीमत पर अदालतों की कार्रवाई में भाग लेने के लिए दूर-दराज से पहुंचता है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]

   

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