लॉकडाउन में सिनेमाहॉल बंद है ऐसे में मनोरंजन का एक ही ज़रिया है- 'ओटीटी'. 'ओटीटी' यानी नेटफ़्लिक्स, अमेज़न प्राइम और हॉट स्टार जैसी 'ओवर द टॉप' सेवाएं. इन दिनों फ़िल्में और सीरिज़ लगातार इन्हीं प्लेटफ़ॉर्म पर रिलीज़ हो रही हैं. हाल ही में नेटफ़्लिक्स पर 'चमन बहार' नाम की एक फ़िल्म आई है जिसकी ठीक-ठाक चर्चा हो रही है. ऐसी चर्चा के बीच इसके कंटेंट को लेकर कई सवाल हैं.
फ़िल्में समाज को प्रेरित करती हैं. भारतीय समाज में फ़िल्मों ने प्रेम की नई परिभाषा गढ़ी है. महिलाओं के सशक्तिकरण पर भी फ़िल्में बनीं जिसके जरिए मर्दों ने कंसेंट यानी सहमति के बारे समझना शुरू किया. उदाहरण के लिए 'पिंक' जैसी फ़िल्म देखने के बाद 'No Means No' यानी 'ना का मतलब ना होता' है पर बहस ही शुरु हुई.
'चमन बहार' ऐसी बहस को कमज़ोर करने वाली फ़िल्म है और इसे देखने के बाद मन में सवाल उठा कि आख़िर ये फ़िल्म लोगों को किस ओर ले जाएगी? फ़िल्म की कहानी बिल्लू नाम के एक पनवाड़ी और स्कूल में पढ़ाई कर रही रिंकू निनौरिया के ईर्द-गिर्द घूमती है. रिंकू के घर के सामने ही बिल्लू की दुकान है जहां रिंकू के लिए लड़कों का जमावड़ा लगता है.
रिंकू के पीछे कस्बे के सारे मनचले पड़ जाते हैं. उसका स्कूटी चलाना और स्कर्ट पहनना लड़कों की बातचीत का केंद्र बिंदु होता है. पूरी फ़िल्म में दर्जनों लड़कों को रिंकू का पीछा करते दिखाया गया है, बदनाम करने की सारी हदें पार की जाती हैं. जब आप इसे देखेंगी तो एक लड़की के तौर पर ये आपके शरीर में सिहरन पैदा करना वाला अनुभव हो सकता है. लेकिन इस फ़िल्म में लड़की इन सबके ख़िलाफ़ कुछ नहीं बोलती.
फ़िल्म के कई दृश्यों ने मुझे निजी तौर पर बहुत असहज किया. गांव-कस्बे से ताल्लुक रखने के नाते कई दृश्यों को देखकर काफ़ी गुस्सा भी आया. चमन बहार देखकर ये सवाल भी उठा कि लड़कों की ऐसी हरकतों को फ़िल्ममेकर्स कब तक बढावा देते रहेंगे? वो भी इस कदर की रिंकू के किरदार को एक डायलॉग भी नसीब ना हो. फ़िल्ममेकर होने के नाते क्या आपकी ज़िम्मेदारी नहीं कि आप उसमें दूसरा पक्ष भी दिखाएं?
शहर हो, कस्बा हो या गांव...लड़कियों को अक्सर ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता है. लड़कियों को मानसिक रुप से ये सब बहुत ज़्यादा प्रभावित करता है. हालांकि, चमन बहार में ऐसा दिखाया गया है कि हर वक्त पीछा किए जाने के बावजूद रिंकू को कोई फ़र्क नहीं पड़ता. जैसे उसके आस-पास हो रही चीज़ों का उसे अंदाजा ही न हो! ये सब बहुत परेशान करने वाला है!
मर्दों का झुंड जब लड़की का पीछा करे या उसके घर के पास जमावड़ा लगा दे तो उसके लिए ये सब बिल्कुल वैसा नहीं होता जैसा इस फ़िल्म में दिखाया गया है. फ़िल्म के डायरेक्टर अपूर्व धर हैं. उनसे सवाल भी है कि आख़िर वो सिर्फ एक पक्ष दिखाकर क्या मिसाल पेश करना चाहते हैं? क्या लड़कियां ये सोचें कि उन्हें हर वक्त गूंगे बनकर रहना चाहिए? चुप रहने में ही भलाई है? फिर लड़के ये सोचें कि वो जो कर रहे हैं वो बिल्कुल सही कर रहे है?
ऐसे मनचलों को सबक सिखाने की बजाय यूं ही जाने देना कहां तक जायज़ है? फिल्म किस उद्देश्य से बनाई गई? यहां कहीं भी ये फिल्म उस गलत मानसिकता पर चोट करते नहीं दिखती है. उल्टे क्लाइमेक्स में बिल्लू के हाथ एक स्केच लगता है जिसे लेकर ये एहसास दिया गया है कि रिंकू ने ही ये स्केच बिल्लू के लिए बनाया होगा.
नोटबंदी के दौरान एक नोट पर लिखा ‘सोनम गुप्ता बेवफा है’ जब वायरल हुआ तो लोगों ने इसे स्लोगन बना दिया. इसे ख़ूब चटकारे लेकर शेयर किया गया. यहां भी फ़िल्म का हीरो नोटों और दीवारों पर लिख देता है- 'रिंकू निनौरिया बेवफा है'. इन सब से साफ़ है कि अभी भी बॉलीवुड में ऐसी फ़िल्में बन रही हैं जो पितृसत्तात्मक सोच को ख़ूब बढ़ावा देती हैं. महिलाएं क्या सोचती हैं इसके लिए ऐसी फ़िल्मों में कोई जगह नहीं होती.
पिछले दिनों कबीर सिंह पर बहुत हंगामा मचा लेकिन फ़िल्म ने ख़ूब कमाई की. मेकर्स और एक्टर्स ने फ़िल्म के विषय को जस्टिफाई भी कर दिया. 'चमन बहार' भी कबीर सिंह के आस-पास भटकती फ़िल्म है. लेकिन सवाल ये है कि क्या बतौर दर्शक हम ऐसी सोच को बढावा देने को तैयार हैं? किसी फ़िल्म का अच्छा और ख़राब लगना लोगों की निजी पसंद और उनकी अपनी राजनीति पर निर्भर करता है. लेकिन जिन्हें चमन बहार पसंद आई है उनसे ये पूछा जाना चाहिए कि कौन सा हिस्सा बहुत अच्छा था? लड़की को छेड़ा जाना, पीछा किया जाना या फिर उसे बदनाम किया जाना?
ये किसी से छिपा नहीं है कि फ़िल्म में पुरुषों का बोलबाला है. 'चमन बहार' में हल्के-फुल्के तौर पर महिला किरदार को एकतरफ़ा ट्रीटमेंट देना काफ़ी निराश करता है. उसके साथ 'मास मॉलेस्टेशन' सदमे से भर देने वाला है. हालांकि, दर्शक होने के नाते सवाल हम पर भी है कि आख़िर कब तक ऐसी फ़िल्म को बढ़ावा देते रहेंगे?
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