सोनिया गांधी अब लोकसभा की जगह राज्यसभा में कांग्रेस की प्रतिनिधि होंगी. हालांकि, इसके पहले सोनिया ने रायबरेली की जनता के नाम एक पत्र लिखा और उनको बहुत-बहुत आभार दिया. इससे कयास लगाए जा रहे हैं कि कांग्रेस शायद यूपी को भी हारी हुई बाजी मान रही है. वहीं दूसरा धड़ा यह मान रहा है कि प्रियंका गांधी को रायबरेली या अमेठी में उतार कर एक नई और आक्रामक कांग्रेस यूपी में उसका भविष्य तलाशने जा रही है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की एक मात्र सीट थी, राहुल गांधी अमेठी हार चुके हैं. कांग्रेस अगर अब भी उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में अपना भविष्य नहीं तलाशेगी तो उसके लिए राष्ट्रीय राजनीति में वजूद तलाशना भी मुश्किल होगा.
उत्तर प्रदेश है सत्ता का गलियारा
सोनिया गांधी ने रायबरेली की सीट छोड़ दी है. यदि अमेठी या रायबरेली की सीट गांधी परिवार छोड़ देता है तो उत्तर प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस का बचा-खुचा आधार भी समाप्त हो जायेगा. अभी भी एक उपस्थिति है, वही कांग्रेस के बजूद को बचा रही है. एक परंपरागत सीट है, फिरोज खान से लेकर राजीव गांधी तक, सभी पीढ़ियां इन सीट की नुमाइश करती रही है. यह संभावना है कि प्रियंका गांधी रायबरेली या अमेठी से चुनाव लड़कर अपनी चुनावी राजनीति की पारी शुरु कर सकती है. राहुल गांधी को लेकर कभी-कभी यह संकेत मिलता है कि भले ही वो पिछला चुनाव हार गए हों, लेकिन राहुल इतनी आसानी से उत्तर प्रदेश की सीट नहीं छोड़ने वाले. एक तीसरी संभावना के ऊपर भी चर्चा जोरों पर है. सियासी हलकों में इस बात की चर्चा है कि बीजेपी में हाशिए पर पहुंचे हुए बागी सांसद वरुण गांधी की कांग्रेस में आमद हो सकती है और यदि वरुण की आमद होती भी है तो क्या रायबरेली की सीट वरुण लड़ेंगे, क्योंकि इनके पिता संजय गांधी इसी सीट से जीतते रहे हैं. आज राहुल गांधी की न्याय यात्रा उत्तर प्रदेश आ चुकी है, उनकी यात्रा के रास्ते में ही ये रायबरेली और अमेठी आते है. प्रियंका गांधी भी राहुल गांधी के साथ हैं. जब यात्रा उस जगह पहुंचेगी तब ये संकेत जरूर मिलेंगे कि कांग्रेस इन सीटों के लिए क्या विचार कर रही है या किस सीट पर किसके आने की संभावना है.
राहुल गांधी जल्दी लें फैसला
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्थानीय ईकाई, अखिलेश यादव के खिलाफ जितनी बयान बाजी करती रही थी, पहला हस्तक्षेप राहुल गांधी को वहीं करना पड़ा था, बयान बाजी खत्म की गई. फिर जब अखिलेश यादव ने सीटों की घोषणा की. उसके बाद भी कांग्रेस का बड़ा बयान आया. इससे एक चीज तय है कि कांग्रेस को यह पता है कि बिना किसी सहारे के वो कोई जगह नहीं बना पायेगी. अखिलेश यादव इसका फायदा भी उठा रहे हैं, हालांकि उन्होंने सीटे छोड़ी हैं और अंदर की खबर तो यह भी है कि वो एक दो और सीटें बलिदान कर सकते हैं, लेकिन हां जिस तरह तेजस्वी यादव ने बिहार में राहुल की गाड़ी की ड्राइविंग सीट संभाली, अखिलेश यादव ड्राइविंग सीट संभालेंगे ये नहीं दिख रहा, वैसे तो उन्होंने यह कहा कि वह राहुल गांधी की न्याय यात्रा में शामिल होंगे. अखिलेश यादव ने दो से तीन दिन का कार्यक्रम निर्धारित किया है. यदि इस बीच कोई घटना नहीं हुई तो अखिलेश यादव और राहुल गांधी को साथ देखा जायेगा. हालांकि, जैसे ही यह यात्रा लखनऊ के आगे जाएगी उसके बाद कांग्रेस को न्याय यात्रा अपने दम पर ही करनी है और इसलिए राहुल गांधी की यात्रा से अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश से हट चुका है, क्योंकि वहां पर जयंत चौधरी अब गठबंधन में नहीं है. दूसरी बात सह कि वहां पश्चिमी यूपी की सीटों को लेकर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच मतभेद रहा है. जिस तरह से तेजस्वी यादव ने बिहार में न्याय यात्रा को लीड किया, उस प्रकार की संभावना नहीं है, लेकिन अखिलेश की मौजूदगी जरूर रहेगी.
किसान आंदोलन और आमचुनाव
जयंत चौधरी के सामने भी कुछ सवाल खड़े हैं, क्योंकि पिछला किसान आंदोलन देखें तो उस समय वह किसानों के साथ थे, बाकायदा धरने पर बैठे नजर आये थे. उन्होंने किसानों का सर्मथन किया था जिसकी वजह से जयंत ने अपनी पहचान बनाई. उत्तर प्रदेश का एक वर्ग राकेश टिकैत के वो आंसू अभी तक नहीं भूला है, जिसने आंदोलन की पूरी दिशा ही बदल दी. हालांकि, उसके बाद राकेश टिकैत के ऊपर भी आरोप लगे और भारतीय किसान यूनियन उत्तर प्रदेश में टूट गई. उसके बाद पहलवानों की घटना हुई, उस समय भी यह कहा गया कि उन्होंने सरकार के साथ मिलकर मैनेज कर दिया है. राकेश टिकैत की क्रेडिबिलिटी भी दाव पर लगी हुई है. यदि जयंत चौधरी किसान आंदोलन का सर्मथन करते है तो वो एनडीए के खिलाफ जाएंगे और यदि वो इसके विरोध में रहते है तो उनके जमीर पर सवाल खड़े होंगे. जाट राजनीति में अगर स्थानीय स्त्रोतों की मानें तो जयंत चौधरी के इस पाला बदल से एक हिस्सा थोड़ा नाराज हो सकता है. क्योंकि जाट समाज में भाववात्मक मुद्दे रहे हैं, खासतौर पर महिला पहलवान की बात हो या किसानों की बात हो, उसे लेकर सरकार से बेहद नाराजगी है.
जयंत चौधरी भी हैं खेल में
जयंत चौधरी की प्रासंगिकता कितनी बन पाती है, यह अभी कसौटी पर आनी बाकी है. विधान सभा चुनाव में उन्हें जो सफलता मिली थी, वो जाट मुस्लिम कॉम्बिनेशन से मिली थी जब वे समाजवादी पार्टी के साथ थे. इस बार जाट-मुस्लिम समाज उनके साथ नहीं रहेगा. ऐसे में वह बीजेपी के लिए कितने रेलिवेंट हो पाएंगे, कितने प्रासंगिक हो पाएंगे, मनोवैज्ञानिक रूप से ये प्रकार की जीत है कि इंडिया अलायंस टूटा. लेकिन जयंत चौधरी जमीन पर कितना फर्क डाल पायेंगे इसे लेकर चीजों को अभी साबित होना बाकी है. एक बात सामने आ गई है कि इंडिया अलायंस के रचनाकार कमजोर पड़ गए है. वो इसलिए कमजोर हुए है क्योंकि जो शुरू के ही दो तीन मीटिंग के अंदर समन्वय को लेकर जो कंफ्यूजन बना हुआ था, कोई संयोजक उस तरह से नहीं आ रहा था, कांग्रेस आयेगी या नीतीश कुमार होंगे या शरद पवार, ये सब कुछ चल रहा था. ये कंफ्यूजन हमेशा बना ही रह गया. इसकी वजह से इंडिया अलायंस एकजूट नहीं हो पाया.
विपक्षी गठबंधन को होना होगा परिपक्व
अभी जब पांच राज्यों के चुनाव हुए थे तब इंडिया गठबंधन में रार के लिए बची हुई कसर को कांग्रेस के स्थानीय नेताओं ने पूरा कर दिया. एक गठबंधन के तौर पर कोई इंडिया अलायंस में कोई नया चेहरा नहीं दिख रहा है. इसे यूपीए का पूराना चेहरा माना जा सकता है. बीजेपी के सामने चुनौतियां कम नहीं हुई है. क्योंकि जब नरेंद्र मोदी ने 370 को लेकर नारा दिया, उसके लिए जरूरी है कि वो अपने 2019 के प्रर्दशन को दोहरा पाएं. भाजपा को भी यह पता है कि परिदृश्य बदला हुआ है, इसलिए भाजपा छोटे-छोटे नेताओं के नखरे उठाते हुए उन्हें वापस लाते हुए दिख रही है. गठबंधन को बचाने और बनाने की बात करें तो बीजेपी निश्चित तौर पर साथियों को जोड़ रही है, अपने विपक्ष को तोड़ पा रही है. एक और बात साफ हो रही है कि ग्रांउड पर लड़ाई वन-टू-वन स्थापित हो गई है. इंडिया अलायंस के चेहरे बदल गए, हो सकता है कि इंडिया अलायंस में नीतीश कुमार न हो, यह तय है कि बिहार में एनडीए बनाम तेजस्वी की लड़ाई बिहार में है, उत्तर प्रदेश में मायावती न हों इंडिया अलायंस में, लेकिन ये बात साफ है कि उत्तर प्रदेश में लड़ाई सपा और भाजपा की है. ऐसी परिस्थिति पूरे देश में है. ऐसा लग रहा है कि इस बार कई जगहों पर बीजेपी को भारी टक्कर मिलने वाली है, क्योंकि किसान आंदोलन की वजह से हरियाणा और पंजाब में संभावना बन चुकी है. इंडिया अलायंस बिखरता जा रहा है लेकिन बीजेपी की लड़ाई आसान नहीं होने वाली है.
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