सनातन धर्म और संस्कृति में एक-एक श्वास का संबंध भगवान से है. जन्म से लेकर मृत्यु तक 16 संस्कारों की परिपाटी भी नर और नारायण के संबंध को परिलक्षित करती है. पूजा पद्धति से लेकर जीवन के हर चरण में भगवान और भक्त का संबंध निर्बाध रूप से चलता है, समानांतर भाव से आगे बढ़ता है. वेंदों में देख लीजिए, पुराणों को पढ़ लीजिए या फिर दर्शन का अध्य्यन कर लीजिए, हर जगह नर और नारायण का संबंध सनातन संस्कृति में अटूट है. यही सनातन संबंध सनातन धर्म में पगे संस्कारी नर को नारायण बनने की यात्रा पर अग्रसर करता है.
असल में सनातन धर्म का मूल उद्देश्य ही प्रभु से मिलन की भावना का है. जिस-जिस ने भी प्रभु को पा लिया वह नर नहीं रहा; साक्षात नारायण हो गया. या यूं कहें कि ब्रह्म हो गया; त्रिकाल दृष्टा हो गया; नारायण का भी मार्गदर्शन करने वाला हो गया. इस तरह के सहस्त्र उदाहरण आपको मिल जाएंगें. इसी स्थिति का का वर्णन सबसे सरल शब्दों में गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरित मानस में करते हैं.
उलटा नाम जपत जग जाना, बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।
यह चौपाई अयोध्याकांड में मिलती है जिसमें महर्षि वाल्मीकि की चर्चा की जा रही है. वाल्मीकि जी के पूर्व में पाप का प्रभाव इतना था कि राम शब्द उनके जिह्वा से नहीं निकल पा रहा था. इसके बाद उन्हें देवर्षि नारद ने मरा मरा का उच्चारण का करने का आदेश दिया. मरा का उलटा हुआ राम और वही उलटा शब्द जपते जपते वाल्मीकि ब्रह्म के समान हो गया. अर्थात स्पष्ट है कि नर से नारायण बनने की यात्रा दुरूह है परन्तु अप्राप्य नहीं है.
एक विचार यह भी है कि नर को नारायण की यात्रा की आवश्यकता ही नहीं. जिसके अंदर खुद नारायण विराजमान हैं उसे कहीं भटकने की जरूरत ही नहीं, हां पर उस भाव की अनुभूति दृढ़ होनी आवश्यक है. अगर भ्रम रहा तब भटकाव में जीवन नष्ट हो सकता है है. कबीरदास जी ने इस सिद्धांत को बड़े सरल तरीके से समझाया है.
कस्तूरी कुंडली मृग बसे, मृग फिरे वन माहि।
ऐसे घट घट राम है, दुनिया जानत नाहि।।
कबीरदास जी यह बता रहे हैं कि कस्तूरी की खोज में पूरे जंगल में मृग दौड़ता रहता है पर उसे ये पता ही नहीं होता कि वह खुशबू उसी में समाहित है. ठीक यही हालत जगत का भी है. नारायण अंदर ही विराजमान हैं लेकिन उन्हें तलाशने के लिए कहां-कहां का भटकाव मनुष्य नहीं करता. तब प्रश्न यह उठता है कि जब भगवान अपने भीतर ही बैठे हैं तब फिर उस देवत्व से मनुष्य दूर क्यों है. जब अपने भीतर बैठा नारायण नहीं मिल रहा तब वो कहां मिलेगा?
ऐसा भी नहीं है कि केवल सिद्धांत यही है कि नर के भीतर नारायण विराजमान हैं. वरन संपूर्ण जगत नारायण में समाहित और संचालित है. यहा बात स्वयं भगवान ही कहते हैं.
पश्य में पार्थ रूपाणि शतशोअथ सहस्त्रश: ।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।।
पश्यादित्यान्वसून्ररुद्रान अश्विनौ मरुतस्तथा।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याच्यार्णि भारत।।
श्रीमद्भगवदगीता के ग्यारहवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि अर्जुन मेरे हजारों प्रकार के वर्ण और आकृति वाले स्वरूपों को देखो. तुम मुझमें द्वादश आदित्यो को देखो, आठ वसुओं को देखो, एकादश रुद्रों को देखो, दोनों अश्विनी कुमारों को देखो, 49 मरुद्गणों को देखो. ऐसी तमाम आश्यर्य की चीजों को देखो जो पहले से न देखी गई हों.
सबकुछ भगवान में समाया है और हमारे भीतर भगवान समाए हैं. अर्थ स्पष्ट है कि हम नर तो हैं लेकिन नारायण भी हैं. तब प्रश्न उठता है कि समस्या उस संपूर्ण सत्ता को पहचानने की है या फिर कुछ और? इस प्रश्न का उत्तर कबीर के दोहे में देखा जा सकता है.
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहि।
प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहि।।
कबीर दास जी का भाव यह है कि जब तक मन में अहंकार था तब तक ईश्वर का साक्षातकार नहीं हुआ. जब अहं या अहंकार नष्ट हुआ तब प्रभु मिल गए. कबीरदास जी परमात्मा से उस सच्चे प्रेम की बात कर रहे हैं जिसमें मैं समाप्त हो जाता है. संपूर्ण समर्पण भाव ही नर से नारायण के निर्माण की प्रक्रिया का पहला चरण है.
नर से नारायण के निर्माण की इस यात्रा में यह भी ध्यान रखना होगा कि ये दोनों सत्ताएं अलग-अलग प्रतीत हो ने पर भी एक ही हैं. नर में नारायण का वास है और नारायण में संपूर्ण सृष्टि का समावेश है. ठीक वैसे ही जैसे दूध में घी मौजूद है, छाछ भी मौजूद है पर इस तथ्य पर संपूर्ण विश्वास करके उसे बताए नियमों से निकालने की आवश्यकता है. ठीक वैसे ही जैसे लकड़ी में अग्नि मौजूद है, ठीक वैसे ही जैसे जल में विद्युत मौजूद है पर दिखती नहीं है. ठीक वैसे ही नर में नारायण विद्यमान हैं. जब तक नहीं जाना तब तक हाड़-मांस का देह और जैसे ही विश्वास की प्रबलता बढ़ी मनुष्य देवस्वरूप हो जाता है. ईश्वर की सत्ता से जुड़ते ही हम देवमय होने लगते हैं. रामचरित मानस में इसका एक सुंदर उदाहरण मिलता है.
करमनास जलु सुरसरि परई, तेहि को कहहु सीस नहिं धरेई।
गोस्वामी जी लिखते हैं कि कर्मनाशा नदी भी तब महान हो जाती है जब वह गंगा जी में जाकर मिल जाती है. गंगा में मिलते ही कौन ऐसा है जो कर्मनाशा से आ रहे जल को भी अपने सिर पर श्रद्धा से नही लगाता. बस यही तो है नर से नारायण बनन की प्रक्रिया. यही है जड़ से चेतन हो जाने का स्वरूप. यही है नश्वर से ईश्वरत्व की तरफ बढ़ जाने का संकेत.
जगत में ऋषि महर्षियों ने अनेक उपाय और माध्यम बताए हैं जिनके माध्यम से ईश्वर का साक्षात्कार हो सकता है. भगवान ने भी अपनी लीलाओं से उन बातों और सिद्धान्तों को सिद्ध किया है. परन्तु एक बात जो बार बार घूम कर हमारे सामने आ जाती है वो यह कि नर और नारायण अलग नहीं है.
जो भी इस चराचर जगत में है वो नारायण में समाहित है. अर्थात हम भी नारायण में समाहित हैं और जब हम नारायण का अंश है तब हम उनसे अलग नहीं है. भगवान विष्णु के 24 अवतारों में से चौथा अवतार तो नर और नारायण के नाम से ही हुआ. मान्यतानुसार द्वापर युग में नर और नारायण ने ही कृष्ण और अर्जुन के रूप में अवतार लिया. इन बातों का तात्पर्य केवल इतना है कि ऐसा नहीं है कि केवल नर को ही नारायण बनने का आनंद मिलता है. नारायण भी नर बनकर जगत का कल्याण करते हैं, भक्तों पर दया करते हैं और अपनी बनाई सृष्टि का संचालन मृत्युलोक में आकर स्वयं संभालते हैं. अनादिकाल से यह व्यवस्था चली आ रही है और कलुयग में इस व्यवस्था का हिस्सा बनना कहीं ज्यादा सरल और सहज बताया गया है.
कृते यद्धयायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखै: ।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्हरिकीर्तनात।।
अर्थात सतयुग, त्रैता और द्वापर की अपेक्षा कलयुग में भगवान को पाना बहुत सुगम है. जो फल सतयुग में ध्यान करने से, त्रेता में यज्ञ करने से, द्वापर में भगवान के चरण कमलों की सेवा करने से प्राप्त होता है वह कलियुग में केवल भगवान नाम के कीर्तन से प्राप्त हो जाता है. मतल यह कि कलियुग में नर से नारायण बनने की यात्रा ज्यादा सहज और सुगम है.
यह तो रही बात कि कैसे नर से नारायण बनने की यात्रा युगों-युगों से चली आ रही है. अब प्रश्न यह उठता है कि क्या कुछ प्रमाण हैं जिनसे यह विश्वास किया जा सके कि वाकई इसी मनुष्य शरीर के साथ देवत्व प्राप्त किया जा सकता है? इस प्रश्न का उत्तर है हां और इसका सबसे बड़ा उदाहण है महाकुंभ का शाही स्नान.
देश के महान संतो को चरण में बैठकर एक अदभुद् कथा सुनने को मिली. यह कथा बताती है कि हर कार्य नारायण ही नहीं करते बल्कि कुछ अंश उन्होंने अपने भक्तों को भी सौंप रखा है और यही अंश उनके नारायण स्वरूप को पुष्ट करता है.
संतों की बताई कथा के अनुसार जब मां गंगा भगवान शिव की जटाओं से धरती पर आने लगीं तो उन्हें चिंता हुई कि मृत्युलोक पर भयंकर पाप है. कहीं ऐसा न हो कि लोगों के पाप धोते-धोते मैं खुद मैली हो जाउं. यही प्रश्न उन्होंने भगवान शंकर से किया. तब भगवान शंकर ने मां गंगा से कहा आप अपनी पवित्रता की चिंता न करें. जब भी तपस्वी साधु-संत आपके जल में स्नान करेंगे तब उनके तब के प्रभाव से आपका कलुष नष्ट हो जाएगा. क्या कोई स्वप्न में भी सोच सकता है कि वह गंगा को पवित्र कर सकता है? ऐसा तो भगवान ही कर सकते हैं या फिर वह जिन पर नारायण की इतनी कृपा हो गई हो कि वह नारायणमय हो गया हो. मतलब स्पष्ट है कि अखंड विश्वास और भक्ति से नारायणत्व को प्राप्त किया जा सकता है. इस संबध में परंपरा से चला हा रहा एक दोहा भी मिलता है जो केवल पतित पावनी गंगा ही नहीं बल्कि हर पवित्र तीर्थस्थल पर लागू होता है.
बालापन से हरि भजें, जग से रहें उदास।
तीरथ उनकी आसा करैं, कब आवैं हरि के दास।।
अर्थात जगत से उदासीन और बाल्यकाल से ही हरिभजन में लगे संतों के आगमन के आस में संपूर्ण तीर्थ रहते हैं. इसका कारण यही है कि लोगो के पाप को धोते-धोते जो कलुष एकत्र हुआ है उसको हरि के दास अपने तप के बल से नष्ट कर दें. अब इससे बड़ा और सुंदर उदाहरण क्या मिल सकता है?
नर से नारायण बनने की प्रक्रिया के 9 सोपान बताए हैं जिनके माध्यम से यह मार्ग पुष्ट किया जा सकता है.
श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम।।
मतलब यह कि भगवान की कथाओं का श्रवण, कीर्तन, स्मरण करने से भगवान को प्राप्त किया जा सकता है. पादसेवन, अर्चन, वंदन और दास्य भाव के साथ आत्मनिवेदन भी भगवान को पाने का माध्यम है. इसे ही नवधा भक्ति कहा गया है जो भगवान श्रीराम ने माता शबरी को बताया था.
नारायण हममें समाहित हैं यह भी पता है, किस माध्यम से उन्हें प्रसन्न किया जा सकता है यह भी आध्यात्मिक ग्रन्थों ने विस्तार से समझाया है. भगवान की प्राप्ति का सबसे सुगम युग कलियुग है यह भी आध्यात्मकि आख्यानों में स्प्ष्ट है. हर वह परिस्थिति वर्तमान में अनुकूल है जिसमे नर से नारायण तक की यात्रा को सफल बनाया जा सकता है. बस एक बात को लेकर अगर सावधानी बरत ली जाए तब फिर नर के नारायण से मिलन की प्रकिया का सफल होना शत-प्रतिशत तय है.
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन: ।।
श्रीमद्भगवतगीता के चौथे अध्याय में वर्णन मिलता है कि अज्ञानी तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष नष्ट हो जाता है. ऐसे लोगों के लिए न तो लोक है, न परलोक और न सुख.. जो व्यक्ति न तो विश्वास और न ही ज्ञान के अधिकारी होते हैं, और जो शंकालु स्वभाव के होते हैं वह पतन का शिकार होते हैं.
कहने का तात्पर्य यह है कि जिस यात्रा की हम चर्चा कर रहे हैं उसका पहला चरण दृढ़ विश्वास है. अगर पहले ही चरण में अविश्वास और कुतर्क का प्रवेश हुआ तब नारायण तो छोड़िए नर बने रहना भी बहुत समय तक संभव नहीं रह पाता. यह भाव बल के साथ अंतर्मन में बना रहे उसके लिए आवश्यक है कि मार्ग दिखाने वाले गुरु भी मिलें और सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय की रुचि भी जागृत हो.
ऐसी स्थिति में कोई भी यात्रा दुष्कर नहीं रह जाती. जो नर है वही नारायण है, जो नारायण है वही नर है. बात बहुत छोटी सी है लेकिन इसे समझने और साक्षात्कार करने की यात्रा जन्म-जन्मांतरों की है. जिन्होंने इस यात्रा को सुगम बनाया है उन्हीं के मार्ग पर चलकर हम अपने जीवन को कृतार्थ कर सकते हैं, नारायणत्व को प्राप्त कर सकते हैं.
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्मम।
देवी सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत।।
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