'द केरल स्टोरी' हो या कोई और, प्रदर्शन से पहले फ़िल्म को रोकना है अनुचित, फिल्मकार भी रखें क्रिएटिविटी और सकारात्मकता का खयाल
एक फिल्म आ रही है 'द केरल स्टोरी'. 5 मई को रिलीज होनी है. रिलीज से पहले ही हंगामा मच गया है. फिल्म केरल से 32 हजार महिलाओं के गायब होने की कहानी सुनाने-दिखाने का दावा करती है. टीजर से पता चलता है कि लव-जिहाद, आतंकवाद और धर्म-परिवर्तन इस फिल्म के प्लॉट का मुख्य हिस्सा हैं. केरल के मुख्यमंत्री ने इसे राज्य को बदनाम करने की साजिश करार दिया है और लव-जिहाद की मौजूदगी से इनकार भी किया है. सोशल मीडिया पर लोग इसे लेकर दो-फाड़ हो गए हैं. वहीं, सुप्रीम कोर्ट में भी इसके प्रदर्शन को रोकने को लेकर याचिका दाखिल हुई है. हालांकि, उस पर बुधवार यानी 3 मई को सुनवाई होनी है.
कैंसल कल्चर है बेहद खतरनाक
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि फिल्म रिलीज होनी चाहिए, चाहे वह 'द केरल स्टोरी' हो या कोई भी. हमारे देश में एक स्थापित प्रक्रिया है, सेंसर बोर्ड है, नियम-कानून हैं, उनके तहत काम होना चाहिए. उन नियमों के तहत अगर वह फिल्म पास की गई है, तो उसे थिएटर में आना चाहिए. एक बात ये भी है कि सिनेमा तो प्रोपैगैंडा से अलग कभी नहीं रहा है. यह कोई नई बात नहीं है. फिल्में किसी न किसी विचार को प्रपोगेट ही तो करती हैं. दूसरी बात ये है कि हमारे देश में हो या विदेशों में भी, अभी की सरकार हो या पहले की सरकारें हों, अपनी राजनीतिक विचारधारा के हिसाब से वो फिल्मों को सपोर्ट करती हैं या आलोचना करती हैं. ये भी कोई नई बात नहीं है. अगर हम थोड़ा पीछे जाकर देखें तो हाल ही में एक डॉक्युमेंट्री को लेकर विवाद हुआ. यूपीए के समय में तो और कमाल हुआ. अश्विन कुमार नामक फिल्मकार हैं. उनकी फिल्म 'इंशाल्लाह फुटबॉल' को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, राष्ट्रपति ने पुरस्कृत किया, देश-विदेश में कई पुरस्कार जीते, लेकिन सेंसर बोर्ड ने उनकी फिल्म दिखाने की अनुमति नहीं दी. कश्मीर में एक बच्चे की मार्मिक कहानी है, यह फिल्म. इसको भी रोक दिया गया. हालांकि, यह कोई राजनीतिक फिल्म भी नहीं थी. तो, हर पार्टी, हर सरकार में ये होता ही रहता है.
फिल्मों का निर्णायक जज केवल दर्शक
हमें पॉपुलर फिल्मों यानी जो फिल्में कमर्शियल तरीके से थिएटर में रिलीज होती हैं, उनके बारे में एक समझ साफ कर लेनी चाहिए, चाहे हम किसी भी विचारधारा के हों. अल्टिमेटली जो जज है इन फिल्मों का, वह तो दर्शक ही होता है. यहां दो उदाहरण देखने चाहिए. 'कश्मीर फाइल्स' को लीजिए. उसकी एस्थेटिक्स, डायरेक्शन, प्रोपैगैंडा वगैरह सब विवाद का विषय हो सकते हैं, लेकिन वह फिल्म सुपरहिट साबित हुई. दूसरी तरफ एक और फिल्म आई 'पृथ्वीराज'. इसके बारे में बाकायदा अखबारों में बड़ा-बड़ा विज्ञापन देकर बताया गया- अंतिम हिंदू राजा की कहानी. हिंदुओं की भावनाओं को भुनाने की पूरी कोशिश हुई. वह फिल्म लेकिन औंधे मुंह गिर गई. इसी तरह 'पठान' को ले लीजिए. तमाम बायकॉट की खबरों के बीच वह हिट हो गई फिल्म. तो, मायने यह हैं कि आप फिल्म पर सवाल उठाइए, कहिए कि फलानी फिल्म गलत है, आप समाज में सांप्रदायिकता न फैलाएं, लेकिन फिल्म को आने तो दीजिए. जिस निर्माता-निर्देशक ने बनाई है कोई फिल्म, वह अगर कह रहा है कि फिल्म देखकर जजमेंट दीजिए, तो इसमें हर्ज ही क्या है..आप फिल्म देखिए, फिर उस पर बात कीजिए. दर्शकों के पास फिल्म आने तो दीजिए.
फिल्म में चाहे जो भी हो, उसे आने तो दीजिए
जहां तक केरल स्टोरी और उसमें दिखाए जाने वाले लव-जिहाद की बात है, तो उसमें सबसे बड़ी बात तो यह है कि एक स्त्री और एक पुरुष के रिश्ते को लेकर बहुत एंगल नहीं निकालने चाहिए. दूसरे, अगर कहीं कोई धर्मांतरण है, किसी महिला या पुरुष को अगर बरगलाकर या फुसलाकर अपराध की दुनिया में धकेला जाता है, या कुछ औऱ गलत होता है, तो उससे निपटने के लिए बाकायदा कानून है, एक तंत्र है. विजयन ने जो बात कही है, उसे देश की एजेंसियां कह चुकी हैं कि लव-जिहाद एक फैब्रिकेटेड मसला है. आप खुद सोचिए कि केरल में अगर 32 हजार महिलाएं गायब हो जाएं, उनके साथ लव-जिहाद हो जाए, तो समाज में उथल-पुथल मच जाएगी. ऐसा तो होगा नहीं कि एक लड़की गायब हो गई और सब कुछ ठीकठाक है. केरल एक छोटा राज्य है. 32 हजार बड़ी संख्या है. इसके अलावा एक बात और है कि हरेक साल हजारों बच्चे-बच्चियां गायब हो जाते हैं, अपहृत होते हैं. किसी को वेश्यावृत्ति के लिए, किसी को भीख मंगवाने के लिए, किसी को और किसी काम के लिए. अगर चिंता करनी है तो इन बच्चों की कीजिए.
जहां तक ये टर्म है, लव-जिहाद. इसमें ही कम्युनल एंगल है. एक-दो मामलों में अगर ऐसा कुछ हुआ है कि प्यार के नाम पर किसी ने किसी को बरगलाया है तो सजा भी हुई है और मामले भी दर्ज हुए हैं. इस्लामिक स्टेट या अल-कायदा की बात कीजिए तो यह समझना चाहिए कि हमारे देश में मुस्लिम जनसंख्या अच्छी-खासी है. यहां तक कि विश्व के पहले या दूसरे नंबर पर हम इस मामले में होंगे. इस बात को भारत गर्व से कह सकता है कि पश्चिमी देशों में जो मुस्लिम आबादी है, ब्रिटेन से, अमेरिका से, जर्मनी से, फ्रांस इत्यादि से वहां से लोग आइएसआइएस में भर्ती हुए, पाकिस्तान से जो लोग हैं, वे अल-कायदा या आइसिस में भर्ती हुए, लेकिन भारत से गिने-चुने लोग हुए. सरकार को भी दाद देनी होगी कि उसने तुरंत रिपोर्ट दी. कुछ के परिवारवालों ने ही शिकायत की. कुछ जो फंस गए थे, उन्होंने गुहार भी लगाई. हमारे पास पहले से इस मामले में हमारे पास तथ्य हैं. वैसे भी, रचनात्मक कर्म में लगे लोगों को सकारात्मक होना चाहिए, बहती गंगा में हाथ नहीं धोना चाहिए. आप 'कश्मीर फाइल्स' देखिए. उसमें मंजे हुए कलाकार है, उसकी स्क्रिप्ट कसी हुई है, उसमें प्रयोगधर्मिता है. आप केवल यह सोचकर कि एक दौर है, तो मैं भी इस टाइप की फिल्म बना लूं, ये करेंगे तो नहीं चलेगा. वरना तो हरेक फिल्मकार जो दक्षिण में द्रविड़ मुद्दों पर फिल्में बना रहा है, वह सुपरहिट होतीं. मोहनलाल और मम्मूटी की फिल्में औंधे मुंह नहीं गिरती, पृथ्वीराज ही फ्लॉप नहीं होती.
देश के तौर पर हमें क्या करना चाहिए?
एक सोसायटी में जब मिली-जुली आबादी होती है, तो वहां के लोग आपस में मिलते-जुलते हैं और लड़के-लड़कियों के भी आपस में संबंध होते हैं. ये स्वाभाविक प्रक्रिया होती है. अच्छा, समूहों के अंदर कुद को बढ़ाने-बचाने के लिए भी काम करते हैं. उनमें से कुछ लोग अतिवादी और षडयंत्रकारी-आपराधिक हो सकते हैं. केरल से लेकर अमेरिका तक, ये एक ही मामला है. सवाल तो यह है कि एक समाज के तौर पर, देश के तौर पर हमें क्या करना चाहिए? पूर्व सीएम अच्युतानंदन ने अगर लव-जिहाद शब्द का इस्तेमाल किया है, पीएफआई वगैरह को दोषी बनाया है, तो मैं उसका खंडन नहीं करूंगा. वह सीजन्ड पॉलिटिशियन हैं, लेकिन हमें यह मानना चाहिए कि जब कुछ लोग दूसरों पर आरोप लगाते हैं तो आपके भी राजनीतिक हित भी सामने रहते हैं. स्टेट से यह सवाल पूछना चाहिए कि जब उनके पास सभी तरह की एजेंसी हैं, सभी तरह के साधन हैं, तो उसका उपयोग करने में क्या दिक्कत है?
आखिरकार, हमें यह कोशिश करनी चाहिए कि इन सब घटनाओं से एक-दूसरे के प्रति संशय न बढ़े, भय न बढ़े. दूसरे मजहब की बात छोड़ दीजिए. अगर एक ही धर्म का कोई व्यक्ति दूसरे को प्रेम का स्वांग रचाकर उसे अपराध में धकेल रहा है, बरगला रहा है, तो यह तो खुद ही अपने में जुर्म है. इसको भी रोकना चाहिए.
(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)