शेरनी से याद आया कि औरतों को आदमी किसी भी जगह बोलने क्यों नहीं देते
शेरनी में विद्या विन्सेंट, यानी विद्या बालन जंगलात अधिकारी है. जब भी बोलने की कोशिश करती है- घर या दफ्तर में, तो उसे टोक दिया जाता है. दफ्तर में पुरुष ही पुरुष हैं. परिवार में पति ही केंद्रीय सत्ता माना जाता है. फिल्म के कई सीन्स को देखकर जापान की सत्तारूढ़ लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी की इस साल की कई बदनाम मीटिंग्स याद आ गईं. ये मीटिंग्स बदनाम इसलिए थीं क्योंकि इनमें पांच महिला सांसदों को बुलाया तो गया था, लेकिन वे मीटिंग में बोल नहीं सकती थीं. मीटिंग के बाद सिर्फ अपनी राय लिखकर दे सकती थीं. जैसा कि फिल्म भी कहती है, क्या जंगल में शेरनी की जगह है? अपने स्पेस को वह कब दोबारा हासिल कर सकती है? क्या उसे अपनी बात कहने और समझाने का मौका मिलेगा?
आदमी औरतों को बोलने नहीं देते
यूं औरतों को अक्सर अपनी कहने-समझाने में दिक्कतों से रूबरू होना पड़ता है. उन्हें बातचीत के दौरान पुरुष बोलने का मौका कम देते हैं. संवाद के दौरान अक्सर उसे ‘इंटरप्शंस’ का सामना करना पड़ता है. यह पुरुषों का प्रभुत्व होता है जिससे इस तरह दिखाने की कोशिश की जाती है. पुरुष ‘इंटरप्ट’ करते हैं और अपने हिस्से से ज्यादा बोलते हैं. उन्हें ऐसा लगता है कि समूह में मौजूद महिलाओं से उनका वजूद ज्यादा है. स्टेटस हाई है. और इस पर दुनिया भर की यूनिवर्सिटीज़ में बहुत काम हुआ है. 1975 में कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के सोशियोलॉजिस्ट्स डॉन जिमरमैन और कैंडेस वेस्ट ने अपनी स्टडी सेक्स रोल्स, इंटरप्शंस एंड साइलेंस इन कनवरजेशंस के लिए कई पब्लिक स्पेसेज़ जैसे कैफे, यूनिवर्सिटी कैंपस और दुकानों में लोगों की बातचीत रिकॉर्ड की. ऐसी 31 बातचीत में 48 बार लोगों ने एक दूसरे की बात को काटा. इनमें से 47 बार ऐसा हुआ था कि पुरुष औरत की बात को काट रहे थे.
इसी तरह जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के 2014 के अध्ययन में कहा गया कि आदमी किसी दूसरे आदमी से बातचीत करे तो टोकाटोकी कम करता है, लेकिन महिला से बातचीत करते समय उसे टोकने की संभावना 33% ज्यादा होती है. अमेरिका में तो एक लॉ स्कूल ने 2017 में एक रिपोर्ट में कहा कि सुप्रीम कोर्ट के पुरुष जस्टिस बातचीत के दौरान पुरुष जस्टिस के मुकाबले महिला जस्टिस को तीन गुना ज्यादा टोकते हैं. तो, लब्बोलुआब यह है कि टोकाटोकी या ‘इंटरप्शंस’ की जड़ में बेइरादा पूर्वाग्रह या भेदभाव है. यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम किसे इतना ताकतवर या ऊंचे ओहदे वाला समझते हैं कि उसकी बात न काटी जा सके. चूंकि ऊंचे पदों पर आदमी ज्यादा हैं और परिवार-समाज में ताकत उन्हीं की मुट्ठी में है, इसलिए वे बातचीत के दौरान औरतों पर हावी होने की कोशिश करता है.
टोकाटोकी से आत्मविश्वास की धज्जियां उड़ती हैं
इसका क्या नुकसान होता है? इससे होता यह है कि औरतों में अपनी बात कहने का आत्मविश्वास नहीं बचता. उनके स्वाभिमान की धज्जियां उड़ जाती हैं. अगर हर बार, हर बात पर, हर दिन घर परिवार में ऐसी टोकाटोकी होती है तो इसका उनके मानसिक स्वास्थ्य पर असर होता है. कई बार वे डिप्रेशन का शिकार होने लगती हैं. नौकरीपेशा, प्रोफेशनल हो तो करियर दांव पर लग जाता है. कैब्रिज यूनिवर्सिटी की एक स्टडी विमेन विजिबिलिटी इन एकैडमिक सेमिनार्स में कहा गया है कि औरतें पुरुषों के मुकाबले ढाई गुना कम सवाल करती हैं. दिलचस्प यह है कि यह दुनिया भर का हाल है. स्टडी में 10 देशों के 35 स्कूलों के 250 सेमिनार्स को शामिल किया गया था जहां जेंडर रेशो बराबर था. इस स्टडी में लोगों से पूछा गया था कि वे अगर सेमनार में सवाल नहीं पूछते तो इसका क्या कारण है? इस सवाल के जवाब में औरतों ने कहा था कि उन्हें नहीं लगता कि वे इतनी होशियार हैं कि सवाल पूछें. वे नर्वस हो जाती हैं. उन्हें इस बात की चिंता सताती है कि कहीं उन्होंने सेमिनार के कंटेंट को गलत तो नहीं समझ लिया है. यह झिझक इस बात से पैदा होती है कि सार्वजनिक समूहों में औरतों को बोलने नहीं दिया जाता. तो डर भी पैदा होता है और घबराहट भी.
क्या औरतें सचमुच होती हैं, बातूनी
अब यह भी मजेदार है कि बातूनी औरतों पर लतीफों से हमारे मसखरेपन का खजाना भरा पड़ा है. आप गूगल के सर्च बार में टाइप करेंगे- वाई डू विमेन... तो वह आपका वाक्य खुद ब खुद पूरा करेगा- टॉक सो मच. यानी हममें से ज्यादा लोग यही सोचते हैं कि औरतें ही ज्यादा बोलती हैं. हां, सच है कि लड़कियां लड़कों के मुकाबले भाषा का ज्ञान आसानी से हासिल कर लेती हैं. लेकिन ऐसा नहीं है कि कोई जेंडर वाला शख्स कम बोलता है, कोई ज्यादा. वॉशिंगटन पोस्ट के एक आर्टिकल हू डज़ द टॉकिंग हेयर में कहा गया था कि औरतें एक दिन में औसत 16,000 से कुछ ज्यादा शब्द बोलती हैं, आदमी 16,000 से कुछ कम. तो हमारा पूर्वाग्रह कहता है कि औरतें बातूनी होती हैं. यह पूर्वाग्रह अरस्तू के समय से कायम है जोकि कहा कहते थे कि औरतें ज्यादा झूठ बोलती हैं और शिकायतें भी करती हैं. इसने पश्चिमी विचारकों की सोच को प्रभावित किया. लोग मानकर चलने लगे कि औरतें ज्यादा बोलती हैं. जापान के पूर्व प्रधानमंत्री और टोक्यो ओलंपिक 2020 के हेड योशिरो मोरी ने खेल संगठनों में महिलाओं के बातूनी होने पर कमेंट किया जोकि इन संगठनों में औरतों को जगह देने से इनकार करने का तर्क था. क्या हम अब भी यही मानेंगे कि पावरफुल पदों पर औरतों को न आने देने के तमाम कारणों में एक कारण यह पूर्वाग्रह भी है.
इसका मुकाबला कैसे करती हैं औरतें
ताकत का दिखावा करने वाला पुरुष, औरतों को चुप करा देने वाला पुरुष कायर ही साबित होता है. जैसा कि फिल्म में डायलॉग है, जंगल में जब आप टाइगर को ढूंढने निकलेंगे तो हो सकता है कि आपको वह एक बार दिख जाए. पर टाइगर जरूर आपको 99 बार देख लेगा. इस 99 बार में वह खुद को आपके लिए तैयार कर लेगा. यानी औरत 99 बार ज्यादा खुद को मर्दों के लिए तैयार कर लेती है. एक ऐसी ही औरत ने खुद को मर्दों की दुनिया के लिए तैयार किया. वह है अमेरिका की उप राष्ट्रपति कमला हैरिस. पूर्व उप राष्ट्रपति माइक पेन्स के साथ जब वह प्रेज़िडेंशियल डिबेट कर रही थीं तो माइक ने उनकी बात बीच में काटी. करीब दस बार. यहां तक कि मॉडरेटर सुजन पेज कोशिश कर रही थीं कि पेंस अपना स्पीकिंग टाइम लिमिट में रखें. पर पेंस मान नहीं रहे थे. हैरिस नेशनल स्टेज पर जिस सच्चाई का सामना कर रही थीं, वह दुनिया भर में लोगों ने महसूस किया. इस पर आखिर में कमला ने कहा- मिस्टर वाइस प्रेज़िडेंट, आई एम स्पीकिंग. अब चाहे तरीका जो भी हो, अपनाना तो पड़ेगा. 99 बार उसकी तैयारी भी करनी होगी. जैसे उस वक्त कमला ने कहा था- क्या आप मुझे अपनी बात खत्म करने देंगे. इसके बाद हम बातचीत कर सकते हैं- ओके?? बातचीत तो कर सकते हैं, पर बिना टोकाटोकी के.
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