भाजपा के कुशल प्रबंधन और कांग्रेस की निष्क्रियता ने किया केजरीवाल को दिल्ली-बदर

इस बार जो अपेक्षित था और चौतरफा जैसी फिजा थी, दिल्ली के नतीजे वही रुझान दिखा रहे हैं. मतगणना का आधा दिन बीतने पर दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की सरकार साफ बहुमत से बनती हुई दिखाई दे रही है, हालांकि कई दौर की गिनती बाकी रहने के कारण कुछ सीटों पर बदलाव देर शाम तक संभव है. इसके बावजूद विधानसभा के त्रिशंकु रहने का कोई कारण नहीं है क्योंकि तीसरी ताकत यानी कांग्रेस पार्टी अपना खाता खोलती हुई नहीं दिख रही है, उस पर से उसके वोट प्रतिशत भी इस चुनाव में करीब ढाई प्रतिशत कम हुए हैं.
भाजपा ने लगा दी पूरी ताकत
इस बार भाजपा जितनी बेचैन और बरजोर रही, पिछले तीन असेंबली चुनाव में ऐसा देखने को नहीं मिला था. अव्वल तो 2013 से लेकर 2015 तक कांग्रेस-विरोधी, भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन का जोर था, जिसका मुख्य उद्देश्य कांग्रेस को दिल्ली से उखाड़ना था इसलिए भाजपा ने उसमें मदद ही की. अन्ना आंदोलन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा का योगदान अब ऐसी सार्वजनिक रूप से खुल चुकी बात है, जिसे भाजपा के नेता भी मानते हैं. फिर, 2020 के असेंबली चुनाव के पहले नागरिकता संशोधन विरोधी आंदोलन (सीएए/एनआरसी) ने जहां मुसलमानों को एकवट कर दिया था तो दिल्ली के साम्प्रदायिक दंगे ने हिंदुओं को ऊहापोह में डाल दिया था. ध्यान रखना चाहिए कि दिल्ली का मतदाता उत्तर प्रदेश या अन्य हिंदी पट्टी के राज्यों के मतदाता जैसा नहीं है जो किसी दंगे से आसानी से ध्रुवीकृत हो जाए. एकजुट मुसलमान वोट और बिखरे हुए हिंदू वोटों ने एक बार फिर अरविंद केजरीवाल को सरकार बनाने का मौका दे डाला.
इस बार स्थितियां बिलकुल भी नाटकीय नहीं थीं, बल्कि कहें तो बेहद सामान्य और सुगम थीं. इतनी सहज, कि दिल्ली में किसी भी पार्टी की प्रत्यक्षत: कोई हवा ही नहीं बन पाई. इसीलिए दिल्ली के मतदाताओं का किसी प्रचार के प्रभाव में कोई धारणा-निर्माण नहीं हो सका और उनका फोकस स्थानीय मुद्दों पर ही टिका रहा. ये स्थानीय मुद्दे सड़क से लेकर साफ-सफाई, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि रहे. इन मुद्दों पर दिल्ली के मतदाताओं का लंबा अनुभव यही कहता था कि केंद्र में भाजपा और दिल्ली में आम आदमी पार्टी के बीच छत्तीस का आंकड़ा उनके बुनियादी सार्वजनिक कामों में रोड़ा बना हुआ है.
मतदाताओं ने डबल इंजन की बात समझी
इसलिए, मौजूदा असेंबली चुनाव के संदर्भ में मतदाताओं के पास कोई एक दलील थी तो वो यह थी कि भाजपा अगर दिल्ली की सत्ता में रहे तो कम से कम कुछ काम तो हो जाएं, आम आदमी के विधायकों के पास तो कोई पावर ही नहीं है. और यह सच बात थी. अरविंद केजरीवाल की सरकार की ताकत तो दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सरकार संशोधन कानून 2021 के राज्यसभा में 24 मार्च 2021 को पास होते ही चली गई थी. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 28 मार्च 2021 को जब इस कानून पर अपनी मुहर लगाई और इसके प्रावधान 27 अप्रैल को लागू हुए, उसके साथ ही दिल्ली अरविंद केजरीवाल के हाथ से चली गई. यही वह निर्णायक बिंदु था जिसने 2025 के विधानसभा चुनाव की पृष्ठभूमि रची.
केजरीवाल को इसका अहसास था, तभी उन्हें दस साल बाद दिल्ली के जंतर-मंतर पर उतर के जनता से खुलेआम पूछना पड़ा कि ‘’अब मुख्यमंत्री कहां जाएगा?” जनता से पूछा उनका यह सवाल उनके मुस्तकबिल का अहम सवाल था, जिसका जवाब उसी साल के अंत तक आते-आते तिहाड़ जेल बनी. केवल वे ही नहीं, उनके दो मंत्री भी जेल चले गए. सरकार का रहा-सहा इकबाल भी खत्म हो गया.
केजरीवाल की साख और पार्टी का नुकसान
सत्ता-प्रतिष्ठान के आभिजात्य और खानदानी चरित्र के हिसाब से देखा जाए, तो केजरीवाल या नरेंद्र मोदी जैसे चामत्कारिक नेताओं को परंपरागत रूप से राजनीति का ‘’आउटसाइडर’’ माना जाता है. इन नेताओं का जोर और जादू तभी तक रहता है जब तक इनके निजी व्यक्तित्व पर कोई आंच न आए. नरेंद्र मोदी कमोबेश अब तक प्रत्यक्ष रूप से अपना व्यक्तित्व ऐसे किसी भी हादसे से बचाते रहने में कामयाब रहे हैं और इसीलिए लुटियन की दिल्ली में आउटसाइडर होते हुए भी सत्ता में हैं. केजरीवाल अपना दामन नहीं बचा पाए. दिल्ली के कथित शराब घोटाले ने उनके दामन पर जो दाग लगाया, वह उनकी पार्टी और सरकार को ले डूबने के लिए काफी था क्योंकि सब कुछ उन्हीं के इर्द-गिर्द खड़ा था. जिस तरह बीते दसेक वर्ष से भाजपा का हर एक प्रत्याशी मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ता रहा है, वैसे ही आप का हर प्रत्याशी भी केजरीवाल के चेहरे के भरोसे रहा है. केजरीवाल की छवि बिगड़ी, तो प्रत्याशी के पास अपना कुछ खास नहीं बचा जीतने के लिए.
केजरीवाल की बिगड़ चुकी छवि के बाद भाजपा के पास बहुत कुछ करने के लिए नहीं बचता था, जिसके लिए केजरीवाल अब वैसे ही बन चुके थे जैसे कभी इंदिरा गांधी के लिए भिंडरावाला. यानी, यह असेंबली चुनाव भाजपा के लिए दिल्ली का ऑपरेशन ब्लूस्टार था जिसमें केजरीवाल को निपटाना ही उसका धर्म था. उधर, कांग्रेस बारह बरस से केजरीवाल से खार खाये बैठी ही थी. केजरीवाल ने इंडिया अलायंस को दिल्ली में तोड़कर उसका काम और आसान कर दिया. जिन शीला दीक्षित ने पूरी दिल्ली को बनाया और संवारा- और यह बात हर पार्टी का नेता व कार्यकर्ता खुले मन से मानता है- उसे एक आंदोलन खड़ा कर के हटाए जाने का दुख चौतरफा दिल्लीवालों के मन में अब तक है. कांग्रेस जानती थी कि अपने बल पर वह शीला दीक्षित का प्रतिशोध केजरीवाल से नहीं ले सकती, सो उसने अपनी लड़ाई भाजपा को आउटसोर्स कर दी. आखिरकार उसे एक भिंडरावाले को निपटाने का अतीत का अनुभव जो था. जाहिर है, उसे लड़ते हुए दिखना भी था ताकि कार्यकर्ताओं का मनोबल बना रहे. सो उसने बाकायदा सारी सीटों पर प्रत्याशी उतारे और लड़ी भी, लेकिन बेमन से.
भाजपा के प्रबंधन और कांग्रेस की निष्क्रियता ने मिलकर अंतत: राजनीति में किसी चमत्कार की तरह उभरे और दशक भर में अविश्वसनीय हो चुके एक आउटसाइडर का मर्सिया लिख दिया. अरविंद केजरीवाल के संघर्ष के असली दिन अब शुरू हो रहे हैं क्योंकि डूबते जहाज से चूहों के भागने का सिलसिला भी अब शुरू होगा. अब तक तो केजरीवाल और उनकी पार्टी कांग्रेस-मुक्त भारत की भाजपाई परियोजना का एक औजार थी जो कालान्तर में किन्हीं कारणों से भोथरा हो गई, लेकिन अब असल मौका आया है जब केजरीवाल खुद को एक स्वतंत्र राजनीतिक ताकत के रूप में स्थापित कर सकते हैं, बशर्ते शेर के मुंह का निवाला बनने से वे बच जाएं.


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