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नीतीश चाहे सेक्यूलर हो जाएं या ईमानदार, लालू के साथ सरकार बनाएं या बीजेपी के साथ...वोटर क्या कर लेगा!

बिहार में बीजेपी के साथ सत्ता में वापसी करने वाली नीतीश सरकार में रामविलास पासवान की पार्टी एलजेपी के एक विधायक को मंत्री बनाए जाने के बाद कई यादें खुद ब खुद अतीत के पन्ने को पलटने लगी. रामविलास पासवान के सेकुलरिज्म और नीतीश बेदाग़ छवि के अनेक किस्से कुछ सवालों की शक्ल में फूटते हैं जवाब से जा भिड़ते हैं.

2002 में गोधरा दंगों के सवाल पर सेकुलरिज्म के चैंपियन बने रामविलास ने साल 2005 में मुस्लिम सीएम की मांग को लेकर सूबे को मध्यावधि चुनाव की आंधी में धेकल दिया था. तब रामविलास सत्ता के किंगमेकर बनते-बनते रह गए, अब मौसम विज्ञानी माने जाते हैं.

दरअसल, जब साल 2005 में बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे आए तो किसी के पास बहुमत नहीं था. लेकिन सत्ता की चाबी पासवान के पास थी. जिसके साथ जाते उसकी सरकार बन जाती. तब उन्होंने लालू-नीतीश को सत्ता के केंद्र से दूर रखने के लिए मुस्लिम सीएम का शिगूफा छेड़ा. लालू-नीतीश में कोई राजी नहीं हुआ. राज्य में छह महीने के भीतर फिर चुनाव हुए. लालू का राज खत्म हुआ. पासवान मिटे. बीजेपी और जेडीयू को बहुमत मिल गया. सरकार जो बनी वो बीच की छोटी-मोटी रुकावटों और अंतराल के बाद अब तक जारी है.

साल 2013 आते-आते मौसम वैज्ञानिक पासवान देश में हर तरफ सेकुलरिज्म की बयार बहा चुके थे और इससे बोर हो गए थे. सो वो फिर एनडीए में शामिल हो गए. दिलचस्प है कि एनडीए में वे उसी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में शामिल हुए जिनके 2002 के गोधरा दंगों की बुनियाद पर वाजपयी सरकार से अलग हुए थे.

बेदाग और ईमानदार नीतीश

अब बात नीतीश कुमार की जो शुरू से ईमानदार छवि के रहे हैं. छवि उनकी राजनीति का हिस्सा नहीं बल्कि उनकी पूरी राजनीति है. साल 2013 तक सब ठीक चल रहा था. 15 साल के लालू राज ने बिहार में सरकार के पक्ष में ऐसी दहशत पैदा कर दी थी कि लोग भूल नहीं भूल पा रहे थे. साल 2004 में यूपीए की जीत, आडवाणी की हार और बीजेपी के कमज़ोर पड़ने की वजह से नीतीश के लिए राज्य में गठबंधन सहयोगी बीजेपी कोई बड़ा फैक्टर नहीं रह गई थी. वो राज्य की सरकार एकछत्र चला रहे थे जिसकी शिकायत अक्सर बिहार बीजेपी के बड़े नेता करते मिला जाते थे.

फिर साल 2013 आ गया. अमेरिका की टाइम मैगज़ीन में राहुल बनाम मोदी वाली स्टोरी के बाद से भारतीय मीडिया का एक तबका मोदी को पीएम बनाने में लग गया. जैसा की भारत में लगभग हर नेता का एक दिन पीएम बनने का ख्बाव होता है. नीतीश के इस ख्वाब में मोदी सबसे बड़ी खलल रहे हैं. मोदी से नीतीश को पिछड़े मुसलमानों के वोटा का नुकसान होने जैसे ख़तरे भी रहे हैं. इन तमाम खतरों को ध्यान में रखते हुए साल 2013 में नीतीश भी पासवान की तरह अचानक से सेक्यूलर हो गए और एनडीए से 17 साल पुराना रिश्ता तोड़ दिया. नीतीश ने आम चुनावों के लिए कमर कस ली. नीतीश को 2014 में करारी हार मिली. मोदी लहर में नीतीश की पार्टी की सीटें लोकसभा में 20 से घटकर दो हो गईं. जिसके बाद हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए उन्होंने सीएम पद से इस्तीफा दे दिया और सीएम पद जीतन राम मांझी को सौंपकर बाहर से काम करने का निर्णय लिया.

लेकिन बिहार में सीएम बनाए गए मांझी मनमोहन सिंह बनने के तैयार नहीं थे. पीएम का सपना तो गया ही, बिहार के सीएम की कुर्सी के भी लाले पड़ गए. ऐसे में राजीनितक शुचिता को ताखे पर रखकर उन्होंने वो सब किया जो कुर्सी बचाने के लिए ज़रूरी था. इसमें मांझी को बाहर का रास्ता दिखाने से लेकर लालू और कांग्रेस से हाथ मिलाने तक जैसे कदम शामिल थे.

जनलोकपाल के तमाशे ने कांग्रेस की छवि ऐसी मिट्टी में मिलाई थी कि आप किसी से कांग्रेस के समर्थन की बात करनी तो छोड़िए, ऐसी बात खुद से करने के बारे में नहीं सोच सकते थे. वहीं लालू का नाम सुनते दिमाग में जो पहली बात आती है वो है चारा घोटाला और भ्रष्टाचार. लेकिन इनसे हाथ मिलाते वक्त नीतीश सेकुलर थे. ईमानदारी प्राथमिकता नहीं थी. मौके की नज़ाकत को ध्यान में रखते हुए नीतीश के हिसाब से देश और बिहार के वोटरों के लिए कांग्रेस, लालू का भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं था और नीतीश का इनसे हाथ मिलाना तो कतई कोई मुद्दा नहीं था.

मीडिया के लिए नीतीश का लालू और कांग्रेस के साथ जाना मुद्दा था जिससे नीतीश की छवि को नुकसान हो रहा था और अपवाद को छोड़कर कोई नीतीश को फिर से बिहार का सीएम बनते नहीं देख रहा था. ऐसी तमाम संभावनाओं को नकारते हुए नीतीश, लालू और कांग्रेस के महागठबंधन ने करप्शन और मोदी लहर को धत्ता बताते हुए बिहार में एनडीएन का रथ तब रोक दिया जब लड़ाई "भ्रष्टाचारियों" (नीतिश+ लालू, कांग्रेस गठबंधन) और "ईमानदारों" (बीजेपी और उसके सहियोगी) के बीच थी.

जातिगत समीकरण का आलम ऐसा था कि राज्य के सारे प्रमुख दलित नेता बीजेपी के साथ थे, ऊपर से पीएम मोदी और अमित शाह जैसे स्टार प्रचारक होने के बावजूद लालू की पार्टी पहले नंबर की पार्टी बनी, संख्या के हिसाब से नीतीश दूसरे नंबर पर थे और देशभर में लुट चुकी कांग्रेस की सीटें पिछले विधनसभा चुनाव में 3 से बढ़कर 2015 विधानसभा चुनाव में 27 हो गईं. वोटरों ने साफ कर दिया था कि भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है.

लालू ने वादे के मुताबिक (राजनीतिक तौर पर कमज़ोर पड़ जाने की वजह से भी) नीतीश को राज्य का सीएम बने रहने दिया. सरकार ठीक ही चल रही थी कि सुशील मोदी द्वारा लगातार लगाए जा रहे आरोपों में से एक आरोप में सीबीआई ने राज्य के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी पर एक बेहद पुराने मामले में एक एफआईआर दर्ज कर दिया. राज्य की राजनीति को लेकर तमाम तरह की अटकलें लगाई जा रही थीं कि तभी नीतीश एक रोज़ शाम को पासवान की तरह सेक्यूलर नहीं रहे और अचनाक से फिर ईमानदार हो गए. इस ईमानदारी में उन्होंने उस लालू और कांग्रेस का साथ छोड़ दिया जिनकी बेईमानी सरेआम होने के बावजूद राज्य की जनता ने नीतीश के गठबंधन को मैंडेट दिया था. नीतीश उस भ्रष्ट लालू और कांग्रेस से अलग हो गए जो कभी ईमानदार थे ही नहीं और ये जानते हुए भी नीतीश ने ये गठबंधन किया था.

खास बात ये रही कि ईमानदारी का चोला ओढ़े नीतीश उस बीजेपी के साथ गंठबंधन कर बैठे जिसके मुखिया यानि देश के पीएम पिछले तीन साल में लोकपाल की नियुक्ति नहीं करा पाए, जो पनामा पेपर्स की जांच नहीं करा पाया, जिनका खुद का नाम परोक्ष तौर पर सहारा बिड़ला डायरी में आया. लेकिन बाद इसके भी भ्रष्टाचार मुद्दा है और नीतिश, बीजेपी, एनडीए और इससे जुड़े लोग ईमानदार हैं.

ऐसे में आप तब किसी सदमे में मत पड़िएगा जब आप फिर किसी दिन सोकर उठें और भविष्य में बिहार में होने वाली संभावित मॉब लिंचिंग में हाथ सने होने के बाद भी नीतीश किसी दिन अचानक से फिर सेक्यूलर हो जाएं. फिर चाहे वो चाहे सेक्यूलर हों या ईमानदार, वो बीजेपी के साथ सरकार बनाएं या लालू के साथ...वोटर क्या कर लेगा.

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार और आंकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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