कांवड़ रूट पर पहचान बताने के फरमान का 18 साल पहले मनमोहन सिंह और समाजवादी पार्टी सरकार से है कनेक्शन
एक किताब है. अपर्णा वैदिक की- माय सन्स इनहेरिटेन्सः अ सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ ब्लड जस्टिस एंड लिंचिंग इन इंडिया. इसमें खैर वह यही स्थापित करने का प्रयत्व करती हैं कि भारतीयों को ऐसी कोई गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि उनकी संस्कृति बहुत अहिंसक है, बल्कि वह तो पूरी जो विरासत है, उसी को हिंसा से जोड़ देती हैं. खैर, उसमें बहुत सारी बातों के अलावा एक बात यह भी दर्ज है कि इंदौर में हुए दंगों के बाद वहां उनकी पुरानी पहचान के एक 'मुस्लिम' दुकानदार को अपनी दुकान बेचनी पड़ी थी और उसके मामा ही उसमें संलिप्त थे.
बहरहाल, दंगो का एक सच यह है और एक सच आज के उत्तर प्रदेश में है, जहां एक सरकारी आदेश के बाद शोलों ने रफ्तार पकड़ ली है. आदेश था कि कांवड़ पथ पर सभी दुकानदारों, ठेले वालों को अपना नाम और पता बड़े अक्षरों में चिपकाना पड़ेगा यानी नेमप्लेट लगानी पड़ेगी. बस, इसी पर बवाल हो गया. कुछ नेता तो इसे यूडेनबायकॉट और नाजीवाद तक से जोड़ लाए.
तिल को ताड़ बनाने की आदत
हमारे देश में एक बहुत मशहूर बात है कि कौआ कान ले गया, सुनकर हममें से अधिकांश कान नहीं टटोलते, कौए के पीछे दौड़ने लगते हैं. जिस आदेश की बात हो रही है, वह आदेश मुख्यतः 2006 का है. तब केंद्र में यूपीए थी और उ.प्र. में सपा की सरकार थी. यह खाद्य वस्तुओं की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए दिया गया आदेश था, जो सरकारी फाइलों की सुस्त चाल में चलते हुए 18 साल के बाद प्रकट हुआ है. अब अगर इस फैसले का विरोध किया जा रहा है तो फिर 'हलाल' उत्पादों की पैरवी कोई कैसे कर पाएगा?
आखिर, मुस्लिम भी तो खाने-पीने से लेकर अब न जाने कितनी चीजों में पहले हलाल का सर्टिफिकेट देखते हैं, मक्का में गैर-मजहबियों का प्रवेश वर्जित है, यहां तक कि मक्का से होकर वे यात्रा भी नहीं कर सकते हैं. फिर तो ये मामला न जाने कहां का कहां पहुंच जाएगा? एक कानून जो पहले का है, उसे लागू करने में धर्मनिरपेक्षता कहां से आ जाती है, नाजीवाद कहां से आ जाता है?
इस आधार पर तो बुर्का का भी विरोध करना होगा, क्योंकि वह तो अनिवार्यतः 'पहचान की राजनीति' का प्रतीक है. इसके साथ ही, यह एक और बहुत सूक्ष्म मानसिकता की ओर भी इशारा करती है, जो धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इस देश में लगातार थोपी गयी है. वह है कि इस्लाम की किसी भी बात को, किसी भी मसले को 'स्क्रूटनी' से मुक्त रखा जाएगा, परीक्षण की बात नहीं होगी और जितने भी प्रयोग करने हैं, वे हिंदू जन के ऊपर किए जा सकते हैं. इसलिए, शबरीमाला का प्रश्न हो या जलीकट्टू, वहां आस्था के हिसाब से या किसी ग्रंथ के हिसाब से फैसला नहीं दिया जा सकता है, लेकिन बाकी जो भी मसले होंगे, उसमे यह एक 'सीमा' आ जाती है.
नाजीवाद से क्या लेना-देना?
दुकानों के संचालकों और मालिकों को अपना नाम देना होगा, यह फैसला अब योगी सरकार ने पूरे प्रदेश के लिए लागू कर दिया है. यानी, मुजप्फरनगर से शुरू होकर, सहारनपुर के रास्ते लखनऊ होकर अब यह फैसला पूरे राज्य के लिए लागू है. इसका भला नाजीवाद से क्या लेना-देना है, बल्कि ऐसा सोचना न केवल अतिरंजना है, बल्कि फीयर-मॉन्गरिंग भी है. आमतौर पर जनता यह जानती है कि कांवड़ यात्रा बड़ी कठिन और कई शुचिता के लिहाज से कड़े फैसलों के बीच संपन्न होती है. यहां तक कि कई कट्टर मांसाहारी हिंदू भी सावन के महीने में मांसाहार से दूरी बरतने लगते हैं.
बहरहाल, कांवड़ की जहां तक बात है, तो इसके कई प्रकार होते हैं, कोई बिना किसी विश्राम के चलता है, कोई लगातार कांवड़ को खड़ा ही रखता है, यानी कंधे पर ही. तो, उस दौरान खानपान को लेकर लगातार शुद्धता और स्वच्छता बरतने की बात है. शाकाहार की बात है. अब मुस्लिम मालिक की दुकान होगी, तो वहां मांसाहार भी होगा ही, अगर नहीं होगा तो जनता वहां जाएगी ही. इसमें भला नाम से कितना फर्क पड़ता है.
सोचने की बात यह भी है कि जो हिंदू ही मांसाहारी हैं, वही इसे धार्मिक भाव से कितना देख पाते हैंँ? शायद एकाध प्रतिशत, क्योंकि यह इन-बिल्ट नहीं है, यह अनिवार्य नहीं है. हिंदू 'झटका' पर ही नहीं अडता, बल्कि कई तो खोजते भी नहीं, चेक भी नहीं करते. वहीं, मुस्लिम के लिए यह मजहबी मामला है, वह 'हलाल' ही खाएगा. तो, यह जीवनपद्धति है. इसको जबरन विवाद का विषय क्यों बनाना? मुस्लिमों पर अगर जीवन-पद्धति सौंपी जाए या जबरन उनकी दुकानें बंद करायी जाएं, तो मसला जरूर संवैधानिक है. उसके पहले ये सब दूर की कौड़ी है. यह बात भी कौन नहीं जानता कि गोरखपुर मंदिर के आसपास की दुकानों में बड़ी संख्या मुसलमानों की है, यहां तक कि प्रसाद और फूलों की भी. बहुतेरे मंदिरों के बाहर यही स्थिति है. अब, अगर बात सिर्फ अपना नाम बताने की है, तो इसमें हंगामा बरपाने की भला जरूरत ही क्या है?
मुसलमान होली के दिन रंगों से परहेज करते हैं, पर डांडिया बहुत पसंद करते हैं. उसी तरह व्यापार में उनको पहचान नहीं जाहिर करनी है, जबकि बाकी सभी जगह उनकी राजनीति ही पहचान की है. बहुसंख्यक समुदाय इसी के प्रति अविश्वास से भर गया है और इसको पाटे बिना न भारत का कल्याण है, न ही इसके हिंदू-मुस्लिम समुदाय का ही. विश्वास बहाल करने के लिए सबसे पहला कदम होता है, एक दूसरे को अपनी सच्ची पहचान बताने का. इस एक छोटे पग से शायद बड़ी मंजिलें तय हो पाएं.
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