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राजनीतिक लोकतंत्र की जटिलताओं के साथ समावेशी समाज का आईना है राष्ट्रपति का आह्वान

14 अगस्त 2024 की शाम राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू के राष्ट्र के नाम संबोधन को ध्यान से पढ़े तो उसमें देशवासियों स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर अब तक की यात्रा की एक तस्वीर मिलती है. देशवासियों को अपनी विरासत की याद दिलाने और सरकार के कामकाज की सूचनाओं के अलावा विभिन्न स्तरों पर समाज और देश की अगुवाई करने वालों के लिए जो संदेश है, यह जानना महत्वपूर्ण लगता है.

उन्होंने पूरे भाषण में देश और समाज की लोकतांत्रिक व्यवस्था को तीन हिस्सों में प्रस्तुत किया है.  राष्ट्रपति ने  बाबासाहेब डा. भीमराव अम्बेडकर के एक कथन को इस रुप में प्रस्तुत किया है. 

"उन्होंने ठीक ही कहा था, और मैं उन्हें उद्धृत करती हूं, ‘हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक .लोकतंत्र भी बनाना चाहिए. राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नहीं टिक सकता जब तक कि उसके आधार में सामाजिक लोकतंत्र न हो."

स्वतंत्रता आंदोलन बनाए रखने की जरूरत 

भाषण के इस हिस्से में वे इस बात पर अपनी सहमति जाहिर करती है कि स्वतंत्रता आंदोलन से जो राजनीतिक लोकतंत्र मिला , उसे बनाए रखने का आधार सामाजिक लोकतंत्र ही हो सकता है. डा. अम्बेडकर ने अपने यह विचार ब्रिटिश सत्ता को बाहर का रास्ता दिखाने के बाद  समस्त भारतीय समाज के लिए एक तरह से चेतावनी की तरह प्रस्तुत किया था. 

डा. अम्बेडकर के इस कथन के साथ राष्ट्रपति ने यह बताया है कि राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र के लिए विकसित करने में अपनी प्रगति की है.   वे कहती है राजनीतिक लोकतंत्र की निरंतर प्रगति से सामाजिक लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में की गई प्रगति की पुष्टि होती है.” लेकिन सामाजिक लोकतंत्र की प्रगति के पीछे राजनीतिक लोकतंत्र की भूमिका से ज्यादा उन्होंने भारत में गहरे स्तर पर सक्रिय एक संस्कृति की भूमिका पर जोर दिया है. वे कहती है “समावेशी भावना, हमारे सामाजिक जीवन के हर पहलू में दिखाई देती है. अपनी विविधताओं और बहुलताओं के साथ, हम एक राष्ट्र के रूप में, एकजुट होकर, एक साथ, आगे बढ़ रहे हैं."

सामाजिक लोकतंत्र को मजबूती पर राय 

इस भाषण में राष्ट्रपति देश और समाज की अगुवाई करने वाले समूहों के लिए एक जो आह्वान करती है वह सामाजिक लोकतंत्र को मजबूत करने के परिपेक्ष्य में उनके भाषण का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है. उन्होने देश और समाज की अगुवाई करने वालों से कहा है कि ‘समावेश के साधन के रूप में, अफर्मेटिव एक्शन Affirmative Action को मजबूत किया जाना चाहिए.’

15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस से पूर्व राष्ट्रपति देश के नागरिकों का संबोधन ऐसा दस्तावेज होता है जो कि सरकार और समाज की स्थिति को प्रस्तुत करता है. उसमे समाज के सामने सरकार की उपल्बधियों की सूचनाओं के अलावा देशवासियों के लिए जो आह्वान किया जाता है वह एक विश्लेषण की मांग करता है. 

भाषण में छीपी हैं कई बात 

राष्ट्रपति ने अपने संबोधन में जब ये कहा कि समाज में आमतौर पर समावेशी की भावना जीवन के हर पहलू में दिखाई देती है , तो इसका सीधा अर्थ समाज और उसकी गतिविधियों के बड़े हिस्से के बीच व्याप्त संस्कृति की तरफ ध्यान दिला रही है. यह वास्तविक है कि भारतीय समाज के बहुतायत हिस्से की केन्द्रीय संस्कृति समावेशी है. लेकिन जब वे यह कहती है कि समावेश के रुप में अफर्मेटिव एक्शन affirmative action को मजबूत किया जाना चाहिए तो वे यह संबोधन समाज के उन हिस्सों के नाम हो सकता है जो कि अफर्मेटिव एक्शन affirmative action की स्थिति में है. 

दुनिया भर में अफर्मेटिव एक्शन वास्तव में विभिन्न स्तरों जो सत्ताएं बनी हुई हैं, उनके लिए एक कार्यक्रम के रुप में विकसित हुआ है. राजनीतिक लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए समाज के उन हिस्सों को सत्ताओं में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने का कार्यक्रम हैं जो सत्ता की चाहरदिवारी से खड़े बाहर मूकदर्शक की तरह खड़े हैं. वंचितों के लिए राजनीतिक सत्ता में प्रतिनिधित्व के दो रास्ते अब तक विकसित किए गए हैं.

पहला जिसे आमतौर पर आरक्षण कहा जाता है। यह वंचित वर्गों के लिए एक अधिकार के रुप में विकसित हुआ है. लेकिन अफर्मेटिव एक्शन  सत्ताओं के द्वारा अपने स्तर पर वंचितों की भागेदारी सुनिश्चित करने की योजना व कार्यक्रम होता है. दुनिया के कई विकसित देश अफर्मेटिव एक्शन की नीति को लागू करने का प्रयास करते हैं. इनमे अमेरिका, ब्रिटेन और कई पश्चिमी देश प्रमुख है.

जटिलताओं को समझने की जरूरत 

राष्ट्रपति का संबोधन दरअसल जमीनी स्तर पर जो राजनीतिक जटिलताएं मौजूद होती है, उसकी तरफ संकेत करता है. देश में संसदीय लोकतंत्र है और उसे एक मुक्कमल राजनीतिक लोकतंत्र के रुप में जड़ जमाने के लिए सामाजिक लोकतंत्र को विकसित करना है, लेकिन संसदीय लोकतंत्र और सामाजिक लोकतंत्र में एक टकराव की स्थिति दिखती रही है.

राष्ट्रपति ने अफर्मेटिव एक्शन को एक साधन के रुप में विकसित करने पर जोर दिया है, यह गौर तलब है. यह केवल संसदीय सरकार को नहीं बल्कि राजनीतिक –सामाजिक और आर्थिक स्तरों पर सत्ताओं को संबोधित है. इसकी पुष्टि राष्ट्रपति के भाषण की अगली पंक्तियों में इस रुप में मिलता है.

मैं दृढ़ता के साथ यह मानती हूं कि भारत जैसे विशाल देश में, कथित सामाजिक स्तरों के आधार पर कलह को बढ़ावा देने वाली प्रवृत्तियों को खारिज करना होगा. ज्ञातब्य है कि राष्ट्रपति का भाषण सरकार द्वारा स्वीकृत होता है. वास्तव में यह देश की मौजूदा राजनीतिक लोकतंत्र की जटिलताओं को समझने का एक आईना है. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं.यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]

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