विपक्षी दलों के गठबंधन में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. डेढ़-दो साल तक प्रयास करने के बाद इस अलायंस को अमली जामा पहनाने वाले नीतीश कुमार की पार्टी ने भी अब मध्य प्रदेश में खम ठोंकने का ऐलान कर दिया है. अखिलेश यादव पहले से ही नाराज चल रहे हैं. कांग्रेस बस इस बात के इंतजार में है कि पांचों राज्यों के चुनावी नतीजे मे ऊंट किस तरफ बैठता है, यह देख लिया जाए तो फिर वह सीटों के बंटवारे या बाकी चीजों पर ध्यान दे. बाकी, छोटे दलों को कांग्रेस की इस बात से ही दिक्कत है. बिना किसी कार्यक्रम और घोषित एजेंडे के केवल मोदी-विरोध के नाम पर एकजुट हुए ये दल कितनी दूर चल पाते हैं, यह अभी से संशय के घेरे में आ गया है. 


बिना कार्यक्रम का है इंडिया अलायंस


गठबंधन का बिखरना लगभग तय था. पूरी दुनिया की राजनीति में आप देख लें तो वे गठबंधन चलते हैं, जिनमें एक कार्यक्रम और दीर्घकालीन राजनीति के तहत सैद्धांतिक-वैचारिक कार्यक्रम तय होते हैं. ये जो गठबंधन बना है, जिसे कोई इंडिया गठबंधन कहता है तो भाजपा वाले घमंडिया गठबंधन कहते हैं, इसका एकमात्र आधार जो है, वह है भारतीय जनता पार्टी और पार्टी में भी नरेंद्र मोदी का विरोध. यह व्यक्ति विशेष के विरोध पर बना हुआ गठबंधन था, तो इसका बिखरना तय था.



आप अतीत के गठबंधनों को देखें, जैसे 1989 में हुआ था, या 1977 में हुआ था या 1996 में हुआ था, तो उनमें कहीं न कहीं एक कार्यक्रम था. हालांकि, बुनियादी तौर पर उसमें भी वही था कि कांग्रेस को हटाना है, खासकर 1977 में तो इंदिरा को हटाना था. जब बुनियादी बातों की अनदेखी हुई तो वो गठबंधन भी बिखर गए. इतिहास इसका गवाह है. चाहे वो जनता पार्टी का बिखराव हो, राष्ट्रीय मोर्चा का बिखराव हो, संयुक्त मोर्चा का बिखराव हो, कुछ उसी अंदाज में इस गठबंधन का भी बिखराव होना ही था.


बिखराव तो लगभग तय


अतीत के गठबंधनों की खासियत थी कि वे सारे कांग्रेस के खिलाफ हुए थे, ये पहला गठबंधन है जो भाजपा के खिलाफ बना है और उसमें कांग्रेस भी एक हिस्सा है. कांग्रेस अभी तक अपने अतीत के व्यामोह से निकल नहीं पायी है. वह अभी तक मानती है कि पूरी दुनिया उसी के इर्द-गिर्द घूमती है. इसमें उसका नेतृत्व खासकर राहुल गांधी जिस तरह व्यवहार कर रहे हैं, तो ऐसा होना तय ही था. इसलिए, इसमें आश्चर्य की कोई खास बात नहीं है. यह तो पहले से ही लगभग तय था और इसमें कोई अनहोनी नहीं हो रही है. यह बिखराव की पूर्वपीठिका है.


नीतीश कुमार की राजनीति ऐसी ही


नीतीश कुमार की पूरी राजनीति वैसी ही है कि वह दूसरों की पीठ पर चढ़कर ही बड़े होते रहे हैं. पहले वो छोटे नेता थे तो लालू प्रसाद या जॉर्ज फर्नांडीस की पीठ पर चढ़कर बड़े हुए. बाद में वह भाजपा के साथ हुए. 2020 के चुनाव के बाद भी वह छोटी ही पार्टी के नेता रहे. कभी लालू की मजबूरी रही, कभी भाजपा की मजबूरी रही और इसी का फायदा उठाकर वह सत्ता का सूत्र अपने हाथों में रखते रहे. ठीक है कि वह भाजपा का साथ छोड़कर आरजेडी के साथ चले गए, लेकिन उनकी अतीत में जो भी राजनीति रही है, वह लालू प्रसाद की राजनीति के विरोध में रहे हैं. लालू प्रसाद की राजनीति का एक चरित्र भी है और सीमा भी. जब वह सत्ता में रहते हैं तो उनका चरित्र कुछ और होता है, सत्ता से बाहर होने पर कुछ और. ठीक है कि वह अभी नीतीश के साथ हैं और नीतीश उनके अगुआ हैं, लेकिन राजद के जो दूसरी पंक्ति के नेता हैं, यानी लालू-तेजस्वी के बाद के नेता, वह लगातार कहते हैं कि नीतीश जल्द से मुख्यमंत्री पद छोड़कर तेजस्वी को ताज दें. इन बातों का खंडन लालू या तेजस्वी ने कभी किया भी नहीं है, इसका मतलब है कि वे भी यही चाहते हैं. नीतीश इन बातों से असहज महसूस करते हैं. वह भी ऐसी किसी जगह की तलाश में हैं, जहां असहज न हों और याद रखना चाहिए कि भाजपा के साथ वह असहज कभी नहीं रहे.


गठबंधन में सारे दल दिखाएंगे ताकत


भाजपा अपने नेताओं को ही चुप कराकर नीतीश की बात मानने को मजबूर करता रहा है. हां, पिछले चुनाव में भले भाजपा ने कुछ खेल कर दिया, जिससे गुस्सा कर उन्होंने अलग राह चुन ली. वह राह लेकिन भाजपा के साथ से भी कठिन है. उनको लगता था कि वह विपक्ष को एकजुट करेंगे तो ऐसा होगा कि वह संयोजनक बन जाएंगे और ममता बनर्जी ने भी उनको सुझाव दिया कि कांग्रेस के हाथ में लगाम न जाए, इसलिए पटना में पहली बैठक हुई. अब जब नीतीश के हाथ में नेतृत्व नहीं आया, तो नीतीश कुमार की स्थिति खराब हुई और फिर उन्होंने अपनी राह चुननी शुरू की. अभी हाल ही में जब मोतिहारी केंद्रीय विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में उन्होंने भाजपा के लोगों को पुराना दोस्त कहा तो वह दरअसल जैतून की पत्ती ही बढ़ा रहे थे. हालांकि, भाजपा का नया नेतृत्व इस बार मूड में नहीं है कि वह नीतीश कुमार के साथ फिर जाए. तो, ऐसे में जब वह कांग्रेस से भी निराश हैं तो उनको चुनाव लड़ना ही था.


कांग्रेस के लिए है मैसेज


वह मध्य प्रदेश में चुनाव लड़ाएंगे और जब कांग्रेस को डेंट होगा. तभी तो कांग्रेस को भी पता चलेगा कि उसके साथ के लोगों की क्या औऱ कितनी ताकत है? तो, अखिलेश हों, नीतीश हों या आम आदमी पार्टी हो, सबको चुनाव लड़ना ही है और यह एक तरह से लिटमस टेस्ट भी है. अगर कांग्रेस इनको अकोमोडेट नहीं करती है, तो ये अपने दम पर लड़ेंगे. हो सकता है कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में ये पार्टियां खाता भी न खोल सकें, लेकिन आखिरकार ये पार्टी कांग्रेस की राजनीति को ही डेंट करेंगी, उसी की राजनीति को नुकसान पहुंचाएंगी. ये कांग्रेस के लिए मैसेज भी है कि दिल्ली, उत्तर प्रदेश या बिहार हो..अगर आप इन दलों को बाहर नहीं मैनेज कर रहे हैं तो इन तीनों राज्यों में कांग्रेस को अपने लिए भी उम्मीद छोड़ देनी चाहिए.    


यह कांग्रेस को ही महंगा पड़ेगा. हालांकि, कांग्रेस के जो शुभचिंतक हैं, सिविल सोसायटी में या बुद्धिजीवी वर्ग में या मीडिया में, वो कोशिश कर रहे हैं कि बात बिगड़े नहीं, बात बन जाए. हालांकि, ऐसा लग रहा है कि बात पहले ही बिगड़ चुकी है. कांग्रेस के एक नेता का अखिलेश के खिलाफ बयान या फिर कमलनाथ का गठबंधन की बैठक को टालना, ये सब देखकर तो विपक्षी नेताओं को पहले ही समझ लेनी चाहिए थी. फिलहाल, कांग्रेस पांच राज्यों के चुनाव का इंतजार कर रही है. उसको तो झुकना होगा और अगर वह नहीं झुकी तो समय से पहले इस गठबंधन का बिखराव भी हो सकता है.


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