दो अक्टूबर, गांधी जयंती, आई और चली गई. इस बात में कोई शक नहीं कि गांधी जी की हजारों मूर्तियों पर मालाएं चढ़ी होगी, और मुझे शंका है कि कुछ नई मूर्तियां लगाई भी गई होंगी. हम सब जानते हैं कि मोहनदास गांधी ने इस उत्सवों को अस्वीकार किया होगा. उनके लिए मूर्तियों की उपयोगिता नहीं थी, उनका इस्तेमाल कबूतरों के लिए शायद ज्यादा था. मालाओं के लिए फूलों को तोड़ना, जो फिर सड़कों पर और फिर वहां से कचरे के डब्बे में जाते हैं, उनके लिए तर्कहीन था और एक तरीके से अहिंसा भी. मुश्किल से उनके जीवन काल में उन्हें किसी ने सुना, निश्चित तौर पर उनके अंतिम दर्दभरे सालों में भी नहीं सुना, और आज भी बहुत कम लोग हैं जो उन्हें सुनते हैं.


और फिर उन्हें पारंपरा के अनुसार श्रद्धांजलि भी दी जाती है. किसी ने भारत के प्रधानमंत्री का दो अक्टूबर का राष्ट्र को दिया भाषण नहीं सुना जिसमें उन्होंने विशेषरूप से स्कूल के बच्चों से बापू के उदाहरण का अनुसरण करने को कहा था. देशभर के स्कूल प्रिंसिपल ने भी यही किया होगा, गांधी को ऐसे व्यक्ति के तौर पर उदाहरण लिया होगा जिसने शिक्षा के महत्व को समझा और खुद भी अच्छी तरह से स्थापित शैक्षिक प्रणाली के प्रोडक्ट थे. कोई एक चीज जिस पर "तार्किक" और "समझदार" सहमत होंगे, भले ही वे उदार दृष्टिकोण के प्रति संवेदनशील ना हों वो ये कि शिक्षा व्यक्तियों, समुदायों और राष्ट्रों की प्रगति की प्राथमिक शर्त है.


इस प्रकार हमारे लिए यह समझना जरूरी है कि शिक्षा को लेकर गांधी के क्या विचार थे. किसी भी दूसरे विषय की तरह इस विषय ने भी उनका ध्यान उतना ही खींचा. इसीलिए शिक्षा को लेकर भी दृड़, तार्किक और पूरी तरह से गैरपरंपरागत थे. गांधी जिस जिस चीज के लिए भी खड़े हुए उसे आज के भारत में भुला दिया गया है. चाहे फिर उनके स्वच्छता को लेकर विचार ही क्यों ना हों, इसी तरह आज के भारत में शिक्षा को लेकर भी उनके विचार निराशाजनक रूप से आदर्शवादी, पुराने जमाने के और ध्यान ना देने के काबिल हैं. गांधीवादी लोगों ने उनकी शिक्षा को 'नई तालीम' के तौर पर पेश किया, गांधी ने खुद इस शब्द का प्रयोग किया लेकिन उन्हें इससे कोई मदद नहीं मिली. इस शब्द ने मध्यवर्गीय भारतीयों को परेशान कर दिया. मध्यवर्गीय भारतीयों को लगता था कि अगर उन्हें 'नई तालीम' का अनुसरण किया तो उन्हें कभी सेकेंड क्लास यूनिवर्सिटी में भी एडमिशन नहीं मिलेगा. यहां तक कि सेंट स्टीफन, जेएनयू, अशोका यूनिवर्सिटी या ब्रिटेन और अमेरिका के बड़े विश्वविद्यालयों में भी नहीं मिलेगा.


साल 1930 में गांधी के जीवन की एक कहानी से मॉर्डन शिक्षा को लेकर उनके कट्टर संदेहवाद को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है. एक अमेरिकी पादरी जिसका नाम रेनेरेंड मोट था सेवाग्राम में कुछ दिन उनके पास रहने और चर्चा के लिए आया. अपने प्रवास के आखिरी समय में उसने और अधिक स्पष्ता के लिए गांधी के सामने दो प्रश्न रखे. उसने गांधी से पूछा, ''महात्मा मुझे बताइए कि वो क्या है दो दशक के स्वतंत्रता संग्राम के बाद भी आपको उम्मीद देता है? गांधी ने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया, 'मुझे जो सबसे बड़ी उम्मीद देता है वो आज भी उकसावे के बावजूद कई भारतीयों का विश्वास अहिंसा में बना हुआ है.' रेव मोट ने अगला सवाल पूछा, 'और वो क्या है जो आपको डर और दुख से भर देता है?' गांधी ने एक लंबा विराम लिया और कहा, 'जो मुझे सबसे ज्यादा दुखी करता है शिक्षितों की कठोर ह्रदयता है.''


इस बात की संभावना आज ज्यादा है कि गांधी अपने साथी भारतीयों के अहिंसा में विश्वास के अनुपालन पर सवाल उठाएं. लेकिन यह बात ध्यान देने वाली है कि जब पढ़ा लिखा समुदाय बहुत कम था तब से ही गांधी औपचारिक शिक्षा की मूल्यों और उपयोगिता पर संदेह करते थे. कुछ लोगों का मानना था कि यह सिर्फ एक पाखंड था कि गांधी ने खुद लंदन में उच्च शिक्षा हासिल की लेकिन अपने दो बेटों को ऐसा नहीं करने देना चाहते थे. जिस वक्त गांधी और कांग्रेस स्वदेशी संस्थाओं का प्रचार कर रहे थे उस वक्त वे अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए लंदन भेजने में असमर्थ थे. लेकिन गांधी यह सब अच्छा दिखने या फिर राजनीतिक रुप से सही दिखने के लिए नहीं कर रहे थे. जबकि यह उनका उच्च शिक्षा को लेकर अपना अनुभव था जिसके कारण उनपर यह नैतिक जिम्मेदारी थी कि वे कथित लाभ का सबके सामने लाएं.


गांधी जी ने मॉर्डन शिक्शा को जो समझा, इसमें कई सारे ऐसे विच्छेद हैं जो एक व्यक्ति के नैतिक मूल्यों और पूर्ण अस्तिव के लिए घातक हैं. इस तरह की औपचारिक शिक्षा जो बच्चों के स्कूल जाने के साथ ही शुरू हो जाती है और आगे के सालों में भी बढ़ती जाती है. विश्वविद्यालय की शिक्षा में इसका सबसे ज्यादा असर देखने को मिलता है. इस तरह की शिक्षा मस्तिस्क और ह्रदय के बीच, मन और शरीर के बीच, बौद्धिक कार्य और शारीरिक श्रम के बीच, तर्क और भावना के बीच, सोच और भावना के बीच के अंतर को बढ़ाता जाती है.


उन्होंने अक्सर कहा कि भारत में किस तरह शिक्षा क्रांति हुई, इसे लेकर बात की. मस्तिष्क को हाथ के माध्यम से शिक्षित किया जाना चाहिए. अगर मैं एक कवि होता, तो पांचों उंगलियों की संभावनाओं पर कविता लिख ​​सकता. ” (हरिजन, 18 फरबरी, 1939). गांधी लगातार इस बारे में लिखते रहे. 22 अक्टूबर 1937 को वर्धा शिक्षा सम्मेलन में उन्होंने कहा, ''अब मैं यह कहना चाहता हूं कि जो भी बच्चों को पढ़ाया गया है वो सबकुछ व्यापार या हस्तकला के जरिए ही पढ़ाया जाना चाहिए था.'' लेकिन गांधी उन लोगों की आपत्तियों पर आशंका जाहिर करते हैं जो कहते थे कि आधुनिक दुनिया में सिर्फ एक तरह की हस्तकला सीखना व्यर्थ है. इसके लिए गांधी तर्क देते वो यह कि हम हस्तकला के साथ ज्ञान को भी बढ़ाना चाहते हैं. तकली के माध्यम से छात्र सूत का इतिहास, लैंकशायर और ब्रिटिश साम्राज्य के बारे में भी सीखते.


एक तरफ गांधी जहां शिक्षित लोगों की कठोर ह्रदयता की बात करते हैं वहीं दूसरी तरफ वे यह भी जानते थे कि मॉर्डन शिक्षा व्यवस्था गरीबों और जिनके साथ गलत हुआ उनके लिए करुणा या सहानुभूति सिखाने के लिए नहीं बनी. शिक्षा एक अर्थशास्त्री को यह तो बता सकती है कि गरीबी को कैसे हटाना है लेकिन वो यह नहीं समझा सकती कि गरीब कैसा महसूस करते हैं. और तो और अर्थशास्त्री का मॉडल गरीबों की स्थिति को और खराब कर देगा. अपने धूर्तपूर्ण खेलों के जरिए अर्थशास्त्री इस तथ्य को नजरअंदाज कर देते हैं कि अधिकांश मॉडलों का शायद ही कभी उस वास्तविकता से कोई संबंध होता है जिसका वे वर्णन करते हैं. ये अर्थशास्त्री दूसरे अर्थशास्त्रियों के मॉडल का उहादरण देते हैं, इससे पहले कि अच्छे अर्थशास्त्री को सही स्थिति पता चले गरीबों की स्थिति संख्याओं और कपोल कल्पनाओं के बीच रह जाती है. इस सब में गरीबी का सही मतलब कभी पता नहीं चल पाता. इस सब के बीच अर्थशास्त्री को शायद खुद के अनुशासन की गरीबी देखनी चाहिए.


असफल होने के बावजूद गांधी ने शिक्षा को लेकर कभी हार नहीं मानी. एक व्यक्ति अपनी जिंदगी के आखिर तक सीखता रहता है. गांधी ने शिक्षित लोगों की कठोर ह्रदयता को लेकर खेद व्यक्त किया था ना कि उनके ह्रदय विहीन होने को लेकर, जो एक बहुत बड़ा अंतर है. मुझे शंका है कि गाँधी ने कभी किसी को ह्रदय विहीन सोचा है, और वो उपन्यासकार ईएम फॉर्सटर से सहमत होंगे कि अंग्रेजों का ह्रदय अविकसित था. शिक्षा की वजह से अंग्रेजों का ह्रदय भी कठोर हो गया था. 1931 में ब्रिटेन जाने के दौरान उन्होंने पाया कि कामकाजी वर्ग से उन्हें ज्यादा तरहीज मिली, विशेषकर लैंकशायर के मिल वर्करों से. जिन्होंने ब्रिटिश टेक्सटाइल के बहिष्कार का सबसे ज्यादा नुकसान उठाया था, जो कि गांधी ने भारत में शुरू किया था.


आज के दौर के भारत में ऐसे कई सारे मानक हैं जो ये बताते हैं कि भारत में शिक्षा का स्तर काफी गिरा हुआ है. राज्य द्वारा संचालित विद्यालयों की कहानियां पूरी तरह से जर्जर हैं. हजारों शोधकर्ताओं, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसका दस्तावेजीकरण किया गया है. आजादी के सत्तर साल से ज्यादा समय बाद भी प्रभावी साक्षरता दर 50% से कम है; राजस्थान, उत्तर प्रदेश, झारखंड और मध्य प्रदेश के कुछ जिलों में महिला साक्षरता दर अभी भी 10% है.

सबसे अच्छे सार्वजनिक विश्वविद्यालयों को हटा दिया गया है; जो कुछ बचा है वह "उत्कृष्टता" के पुरस्कारों का एक दिखावा है. गांधी के विचार में जो कुछ भी था वो आज नहीं हो रहा है. मैं तो यह सोचता हूं कि आज की कठोर ह्रदयता को वो कैसे समझते. बिना किसी गलती के भारतीय शिक्षा की जो सबसे बड़ी समस्या है कि इसका केंद्र 'अविकसित ह्रदय' है.''


विनय लाल UCLA में इतिहास के प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं. साथ ही वो लेखक, ब्लॉगर और साहित्यिक आलोचक भी हैं. 

वेबसाइटः http://www.history.ucla.edu/faculty/vinay-lal
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ब्लॉगः https://vinaylal.wordpress.com/

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)