वह छह दिसंबर 1992 की दोपहर थी, सुबह से ही दफ्तर यानि की दैनिक जागरण के नोएडा के संपादकीय विभाग में सरगर्मी थी, हाल ही में मैंने यहां भोपाल से आकर उपसंपादक के पद पर काम करना शुरू किया था. मेन डेस्क यानि की अखबार के पहले पन्ने में जाने वाली खबरों को जहां कांटा छांटा यानि कि संपादन और अंग्रेजी से आई खबरों का अनुवाद किया जाता है वहां कई सारे काम करने वालों में मैं भी था. आज अयोध्या में कारसेवा का दिन था. हमारे अखबार का मुख्य कार्यालय कानपुर में था और ये अखबार मूल रूप से उत्तरप्रदेश का था इसलिए दिल्ली से निकलने वाले अखबारों से बेहतर नेटवर्क यूपी में था. यही इस अखबार की दिल्ली में पहचान भी थी.
हम सब उस दिन बेहद तनाव में थे. टेलीप्रिंटर से लगातार कारसेवकों के अयोध्या में विवादित स्थल तक पहुंचने की खबरें आ रहीं थीं. ये भीड़ क्या करेगी कोई नहीं जानता था. मगर अयोध्या में तैनात पीएसी की 35 और सीआरपीएफ की 4 कंपनियों की तैनाती आश्वस्त कर रही थी कि ऐसा कोई काम नहीं होगा जिससे दुनिया में देश को और सरकारों को नीचा देखना पडे. मगर दोपहर होत-होते हालात बिगड़ने लगे और टेलीप्रिंटर पर खबरें आने लगीं. कारसेवकों ने बैरिकेड तोड़े, कारसेवक विवादित ढांचे की तरफ बढ़े और थोड़ी देर बाद ही वो विवादित ढांचा तोड़े जाने लगा. उन दिनों ना तो समाचार चैनलों की ऐसी बाढ़ थी और ना ही मोबाइल फोन का जमाना. संवाददाता फोन और फैक्स से ही जानकारियां भेजते थे, जो दफतरों तक पहुंचती थी. दफतर में सरगर्मी बढ गयी जो हुआ उसके बारे में सोचा भी नहीं गया था. हमारे साथ काम करने वालों में कुछ खुश थे तो कुछ सदमें में थे कि है भगवान ये क्या हो गया.
प्रबंधन ने जल्दबाजी में एक बैठक बुलायी और तय किया कि अगले दिन के अखबार से पहले भी शाम के लिए भी अखबार निकाला जाए. बस फिर क्या था हम सब अपना विशाद और सदमा भुला कर लग गए शाम के अखबार के लिए खबरें बनाने-संजोने. अयोध्या में इतनी हड़बड़ी थी कि हमारे संवाददाता मुश्किल से फोन तक पहुंच पा रहे थे और हांफते-परेशान होते जो वो बोल रहे थे हम उसे कागज पर उतार रहे थे. ब्यौरा सुनते वक्त कोई प्रतिप्रश्न या और जानकारी लेने का सवाल ही नहीं उठता था. क्योंकि जो मिल रहा था वो कितनी मुश्किलों से आ रहा था हम जानते थे. कुछ घंटों में ही शाम का अखबार तैयार था. जिसमें ढांचे के गिरने की तस्वीरें और ब्यौरा विस्तार से लिखा गया था. नोएडा में अखबार के दफतर के बाहर हॉकर्स की भारी भीड़ थी इस शाम के अखबार को लेकर बांटने की. ये अखबार खूब बिका. देश दुनिया की ये सबसे बडी खबर थी कि बीजेपी नेताओं की उपस्थिति में सैंकडों साल पुराना विवादित ढांचा गिरा दिया गया.
अयोध्या में ढांचा गिरा मगर बीजेपी ने ऊंचाई पा ली, ये आने वाले सालों में हम सबने देख लिया. 1984 में तब की दो सांसदों वाली बीजेपी, 1991 की दसवीं लोकसभा में 120 सांसदों वाली पार्टी थी मगर आज की 17वीं लोकसभा में पार्टी के पास 303 सांसद हैं. यानि की 28 सालों में पार्टी ने मजबूत और अपने दम पर सरकार बनाने वाली पार्टी बन गई है. ये अलग बात है कि 1992 में अयोध्या से राम रथ लेकर चलने वाले नेता अब सारे हाशिये पर हैं. लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिहं और उमा भारती सहित 32 लोगों को बाबरी विध्वंस केस में आरोपी बनाया गया था. पार्टी में नए नेताओं मोदी और शाह की पौध आ गयी है जो पुराने नेताओं से अलग सोचती और काम करती है. पिछले दिनों जब विध्वंस केस में सीबीआई का फैसला आया तो उस जमाने के धुरंधर और मंदिर वहीं बनाएंगे का नारा लगाने वाले दिग्गज नेता जब आरोपी बनकर सीबीआई की अदालत में पेश हुए तब भी वैसा ही अप्रत्याशित परिणाम आया जैसा छह दिसंबर को मिला था. यानि की ऐसा सोचा नहीं था कि 28 साल की लंबी जांच के बाद भी सारे आरोपी बरी हो जाएंगे.
खैर ये हमारी न्याय प्रणाली की कमजोरी है कि भीड़ तंत्र को कसने के लिए कोई कानून नहीं हैं. कोर्ट के फैसले को पढ़ें तो ये सारे लोग अयोध्या में आई भीड़ तंत्र के शिकार हुए. कोर्ट ने कहा कि विध्वंस के लिए कोई षडयंत्र नहीं हुआ और इन नेताओं में अधिकतर ढांचे को बचाना चाहते थे. मगर अंत भला तो सब भला इन आरोपियों में से जिनमें से अधिकतर बेहद उम्रदराज हैं ओर जिन्होंने 28 साल तक जांच और केस का तनाव झेला उसका जिम्मेदार कौन होगा ये सवाल सबके सामने हैं.
सवाल तो उस दरम्यान ये भी उठा कि जब ढांचा टूट रहा था तो हमारे देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव क्या कर रहे थे. बहुत सारी बातें उस वक्त आयीं कि राव साहब सोने चले गए थे किसी ने बताया कि वो पूजा करने चले गए थे किसी ने उनको अपने कमरे में बंद बताया था. मगर इन सारे सवालों का प्रामाणिक जबाव विनय सीतापति की किताब हाफ लायन में है जिसका अनुवाद आधा शेर के नाम से मौजूद है. विनय लिखते हैं कि राव के सोने की बात एकदम गलत है. सवा बारह बजे जब पहले गुंबद पर हमला हुआ तब राव अपने अधिकारियों से बात कर रहे थे. मगर कुछ देर बाद जब टीवी पर उन्होंने जो कुछ देखा उसके बाद वो सामान्य नहीं रह पाये कुछ मिनटों तक वो किसी से बात नहीं कर पाये, कुछ बोल नहीं सके, उन्हें उन सभी लोगों पर बहुत भरोसा था.
हमारे देश का इतिहास भरोसे टूटने की कहानियों से भरा है. बाबरी मसजिद ध्वंस और उसके बाद आया ये फैसला भी उन कहानियों में जुड गया है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)