ऐ सुबह तेरे रूप अनेक, ना जाने किस नाम से बुलाएं तुझे
बचपन में मेरी मां कहा करती थीं कि फजीरे उठकर पढ़ा करो तो याद रहेगा. मैं उनके कहने से समझ गया कि वह सुबह उठने के लिए कह रही हैं. मैं फजीरे का अर्थ सुबह समझने लगा और दशकों बाद जब मैं दैनिक जागरण में हिंदी वर्तनी पर काम कर रहा था तो एक शब्द मिला – फ़ज्र या फ़ज़र. यह अरबी का शब्द है और भोर के लिए, सूरज उगने के लगभग दो घंटे पहले के समय को कहा जाता है. फ़ज्र शब्द देखकर अचानक मुझे बचपन में मां द्वारा कहा गया शब्द फजीरे याद आया और लगा कि यह तो फ़ज्र का ही सहोदर है. अरबी का फ़ज्र भोजपुरी में फजीरे हो गया और आम लोगों की ज़बान पर चढ़ गया.
मेरे गांव में सुबह के लिए प्रभात, प्रात:काल, उषाकाल, सूर्योदय आदि तत्सम शब्द नहीं बोले जाते बल्कि तड़के, भोर, बिहान, सबेरे(सवेरे),सुबह (सुब्ह) , भिनसार आदि कहे जाते हैं और फजीरे तो है ही. भोर कहीं-कहीं स्थानीय प्रभाव और उच्चारण बदलने से भोरहरी और भिनसार भिनुसारै हो जाता है. इन सभी शब्दों का अर्थ और उद्गम अलग-अलग है और अर्थ भी.
इसमें भोर अपभ्रंश के भाहर से बना तो तड़के कलियों के चटकने ( तड़कने) के समय के कारण. सूर्योदय के पूर्व कुछ फूलों की कलियां फूल बनने के पहले जब अपनी पंखुरी खोलती हैं तो उनके चटकने की आवाज होती है. कलियों के चटकने के समय को ही तड़के कहा गया. इसी तरह दाल आदि में बघार लगाते समय जीरा आदि के चटकने की आवाज को ही तड़का लगाना कहा गया।. तड़के और तड़का की उत्पत्ति ध्वनि से हुई है. बिहान संस्कृत के विभा या विभात से बना जिसमें दूसरे दिन का भी बोध होता है. अर्थात रात बीतने के बाद आने वाला दिन.
कई नाम से सुबह को किया जाता है संबोधित
विभा का अर्थ होता है प्रकाश, चमक,दीप्ति,प्रभा आदि. इसी से विभाकर अर्थात सूर्य बना है अर्थात जिसकी रश्मियों में प्रकाश है, प्रकाश करने वाला. इसी से विभास बना जिसका अर्थ हुआ प्रभा,चमक. विभावरी रात को कहते हैं, विभा की शत्रु, विभा की अरि. प्रकाश का शत्रु तो अंधेरा,रात ही हुई. इसी तरह विभा से जुड़कर कई शब्द बनते हैं.
सबमें प्रकाश का भाव ही प्रमुख है. भिनसार भी संस्कृत से आया- विनिशर ( अर्थात निशा का अंत) के अपभ्रंश से, अर्थात रात बीत जाने के बाद का समय. इसकी व्याख्या विभा निस्सार के रूप में संधि विग्रह कर की जा सकती है. विभा का निस्सार अर्थात प्रकाश का निकलना. अंधेरा खत्म होने के बाद प्रकाश का निकलना. अल्मोड़ा ( उत्तराखंड ) में एक जगह है विनसर . इसके नाम के पीछे भी यही भाव है.
यह पहाड़ी बहुत ऊंचाई पर है और यहां सूर्योदय सबसे पहले दिखता है. यहां विनिशर ही विनसर हो गया है. भाषाविद डॉ सुरेश पंत कहते हैं कि उत्तराखंड के कई जगहों पर सुबह को भिंसरि कहा जाता है. बिनसर महादेव कई जगह पर हैं. कुमाऊं में कई जगह सुबह को रात्तिबियाण भी कहा जाता है. यहां रात के प्रसव का संदर्भ है अर्थात रात बीती प्रसव के रूप में सुबह हुई. सवेरा संस्कृत के स और वेला की संधि से बना. इसी तरह सुबह अरबी के सुब्ह से बना. इसमें सूरज निकलने के बाद दोपहर के पहले तक का समय आता है. फ़ज्र सूरज निकलने के पहले और सुब्ह सूरज निकलने के बाद. शायरी में सुबह को सुबुह भी लिख बोल देते हैं.
फजीरे से लेकर तड़के तक
यहां ध्यान देने की बात है कि रात बीतने के बाद और सूरज निकलने के पहले से तथा उसके बाद के समय को बहुत ही सूक्ष्म अंतर के कारण कई शब्दों से व्यक्त किया गया है जैसे भोर और तड़के में रात बीतने का बोध तो होता है लेकिन तारे कुछ दिख रहे हैं और अंधेरा पूरी तरह नहीं छंटा है।. यही फजीरे और भिनसार के साथ भी है. लेकिन सुबह और सवेरे के साथ ऐसा नहीं है. इसमें सूरज निकल चुका है या फिर बस निकलने ही वाला है. तत्सम शब्दों में उषाकाल, प्रभात, प्रात:काल, सूर्योदय आदि इन्हीं स्थितियों के लिए हैं.
एक चर्चा के दौरान काशी हिंदू विश्वविद्यालय के ज्योतिष विभाग के अध्यक्ष प्रो गिरिजा शंकर शास्त्री का कहना है कि हिन्दी शब्दों की व्युत्पत्ति संस्कृत शब्दों की भांति नहीं होती, अतः कुछ घुमाफिराकर अर्थ पकड़े जाते हैं . तड् आघाते धातु है जिससे तडित् बिजली के लिये या तालाब के लिये तड़ाग बनता है. जो अन्धकार पर आघात करने लगता है वह तड़के अथवा जब सब्जी दाल आदि छौंकी जाती हैं तो अग्नि का आघात सा होता है इसलिए तड़का. भिन्नत्ति आसार अन्धकारम् इति भिनसार . भोर भी अधिकार का मन्द हो जाना और विहाय माने हटाकर पूर्व दिन का त्याग ही विहान या बिहान बन गया होगा .
दूरी के साथ बदलता है शब्दों का स्वरूप
शब्दों की यात्रा ऐसी ही होती है. अपने मूल स्थान से चलकर दूसरी जगह पहुंचते हुए उनका स्वरूप बदल जाता है और कभी-कभी अर्थ भी लेकिन उनका अस्तित्व बना रहता है. यही प्रकृति का नियम है. जिसने अपने को समय के अनुरूप बदला, वह बना रहता है लेकिन जिसमें लचीलापन नहीं आया, उसका अस्तित्व खतरे मे रहता है. शब्दों की यात्रा के साथ चलना आनंददायी होता है.
उनसे बात कीजिए तो वे अपने मूल से लेकर आजतक की यात्रा को बताते चलते हैं. जैसे हर यात्रा का एक पड़ाव विश्राम या अंत होता है उसी तरह शब्दों का भी एक जीवन होता है और वे कभी-कभी प्रचलन से दूर हो जाते हैं लेकिन खत्म नहीं होते.
आज फजीरे बोलने वाले भी कम ही मिलेंगे. यह शब्द अस्तित्व में तो है लेकिन प्रचलन में कम है. इसी तरह अनेक शब्द प्रचलन से बाहर हो जाते हैं और अतीत के गह्वर में पड़े रहते हैं. भाषा साधकों( लेखकों ) का कर्तव्य है कि इनका प्रयोग करते रहें और उन्हें प्रचलन से बाहर न जाने दें. हमें गोस्वामी तुलसीदास का ऋण मानना चाहिए कि उन्होंने अवधी के हजारों शब्दों को अपनी रचनाओं में स्थान देकर अमर बना दिया.
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