उत्तर प्रदेश में सपा का बार-बार उम्मीदवार बदलना देता है असमंजस के संकेत, भाजपा में भी अंदरूनी कलह
उत्तर प्रदेश देश के सबसे बड़े राज्यों में से एक है. कहावत है कि दिल्ली की गद्दी का रास्ता उतर प्रदेश से होकर ही गुजरता है. लोकसभा के लिए यूपी में कुल 80 सीटें है. यूपी की राजनीति हालांकि वर्तमान में अलग तरह की दिख रही है. यूपी में अभी तक सपा ने मात्र 40 सीटों पर ही अपने उम्मीदवार उतारे हैं. इसमें सपा की अंदरूनी राजनीति के शिकार नेताओं और आंतरिक कलह की भी बात सामने आ रही है. ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ सपा या अन्य पार्टियों के लिए है बल्कि भाजपा का भी 80 में 80 सीटों को जीतने का लक्ष्य बड़ा और कठिन लग रहा है. उधर सपा ने ताबड़तोड आठ सीटों पर उम्मीदवार बदल दिए हैं. इससे उसके कार्यकर्ताओं और समर्थकों में कई तरह के सवाल खड़े हो गए हैं.
सपा में उम्मीदवारों का बदलाव
निश्चित तौर पर उम्मीदवारों के बदलाव की जो प्रक्रिया समाजवादी पार्टी में तेज हो गई है, वह कई तरह के सवाल उठाती है. कुछ जगहों पर तो एक के बाद एक तीन प्रत्याशी तक बदल दिए गए. मुरादाबाद के प्रत्याशी को जिस तरीके से दबाव में बदलना पड़ा, इसका सीधे तौर पर ये संकेत है कि अखिलेश यादव की रणनीति में कुछ अलग तरीके की चीज दिखाई दे रही है. समाजवादी पार्टी के कुछ नेताओं का कहना है कि उम्मीदवार का बदला जाना उनकी रणनीति है, इससे वो सबको और खासकर भाजपा को चौंकाने का काम करेंगे. दूसरी तरफ अगर चीजों को देखा जाए तो यह लगता है कि कहीं ना कहीं अंदरूनी राजनीति का दबाव भी है. जैसे कि रामपुर में जिस तरीके से आजम खान ने आखिरी मिनट पर दबाव बनाया.
उसके बाद मुरादाबाद में नामांकन के दिन प्रत्याशी बदला गया, वो भी बहुत संदेह पैदा करता है. रामपुर में आजम खान के करीबी लोगों को टिकट ना देकर अखिलेश यादव द्वारा दिल्ली से लाए गए उम्मीदवार को टिकट दिया गया. ये यह भी बताता है कि दबाव आजम खान बनाना चाह रहे थे, एक जगह तो वह कामयाब हो गए, लेकिन दूसरी जगह अखिलेश यादव ने इस दबाव को नहीं माना . ऐसे में एक अजब सी स्थिति बनी हुई है.
हालांकि, कुछ जगहों पर ऐसा जरूर हुआ है कि प्रत्याशियों का जो नाम या टिकट बदला गया है, वो भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी सामने आने के बाद या फिर बसपा के प्रत्याशी के नाम सामने आने के बाद बदला गया है. जब उत्तर प्रदेश में चुनाव जातीय समीकरणों पर लड़ा जा रहा हो, तो ऐसे में कुछ बदलाव ऐसे होते हैं. उसको दूसरे तरीके से देखने की जरूरत है, लेकिन अगर ज्यादा संख्या में सीटों के बदलाव हो रहे तो निश्चित तौर पर फिर से विधानसभा के 2022 की स्थिति याद आने लगती है. जब बहुत सारे समाजवादी पार्टियों के प्रत्याशियों के नामांकन के दिन तक टिकट बदले गए. बाद में उसका नतीजा ये हुआ कि कई जीतती हुई सीटें या जो सीटें जीती जा सकती थी, उस पर हार का सामना करना पड़ा.
चुनाव की तैयारी और कम वक्त
लोकसभा चुनाव के पहले चरण के वोटिंग में अब 15 दिनों से भी कम का समय बचा है. पहले चरण की वोटिंग 19 अप्रैल को होने वाली है.आधी सीटों पर अभी तक प्रत्याशी तय नहीं हो पाए है. अखिलेश यादव जो प्रत्याशी लेकर आए थे, उसका भी नामांकन रद्द हो गया है. चुनाव के तौर पर देखें तो ये सच बात है कि कोई नया नेता 15 दिन में आकर चुनाव लड़ ले, ये बहुत कठिन बात है. हालांकि, जिस तरीके का विपक्षी पार्टियों का गुणा-गणित जातीय समीकरण को लेकर है और दूसरा जो भाजपा विरोधी वोटों को इकट्ठा करने की बात है, उस पर काम हो रहा है. लोकसभा का क्षेत्र लेकिन काफी बड़ा होता है. 15 दिनों में प्रत्याशी पूरा क्षेत्र भी नहीं घूम पाता. हालांकि, इस बार जो उम्मीदवारों की घोषणा हो रही थी, उसमें सबसे पहले स्थान पर सपा ही था. सीटों पर उम्मीदवारों के घोषणा होने के बाद प्रत्याशियों ने क्षेत्र में घूमना और लोगों से मिलने का काम शुरू कर दिया था, और ऐसे अंत समय में उम्मीदवार के बदले जाने से कहीं न कहीं पार्टी का नुकसान होता है. अगर सपा को ये लगता है कि भाजपा विरोधी वोट और जातीय समीकरण से ही चुनाव जीता जा सकता है तो फिर उम्मीदवार का तो कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा. ये रणनीति कामयाब होगी या नहीं ये आने वाला समय ही बताएगा.
भाजपा की सूची भी नहीं हुई फाइनल
भाजपा ने पहली लिस्ट जारी की, लेकिन दो चरणों के नामांकन के दिन पूरे हो गए. उसके बाद अभी तक यूपी में भाजपा के उम्मीदवार की सूची नहीं आई है. पहली सूची में करीब एक दर्जन के आसपास ऐसे उम्मीदवार थे, जिनको क्षेत्र में विरोध का सामना करना पड़ा. इसका पार्टी के भीतर भी जमकर विरोध हुआ. इन सब चीजों से कहीं न कहीं भाजपा भी सतर्क है. दूसरी ओर मुख्तार अंसारी की मौत जिस प्रकार से हुई या जिन परिस्थितियों में हुई उनको लेकर भी प्रश्न खड़े हो रहे हैं. इसको लेकर गंगापट्टी में एक खास प्रभाव पड़ेगा और इससे कोई इंकार नहीं कर सकता. बनारस से लेकर बलिया तक की जो सीट है उसमें घोसी भी शामिल है. उन सीटों पर सीधे तौर पर इसका असर देखने को मिलेगा. उसके विरोध में भाजपा के पास एक बड़ी चुनौती वहां पर उम्मीदवार को चुनना भी है.
घोसी की सीट हालांकि भाजपा ने गठबंधन सहयोगी सुभासपा को दे दी है और वहां पर ओमप्रकाश राजभर के बेटे चुनाव मैदान में है, लेकिन उनकी कोई खास पकड़ अब नहीं बन पा रही है. ऐसे में भाजपा भी अपने उम्मीदवारों का चयन काफी सतर्कता से करेगी. भाजपा ने अब तक जिन सीटों पर उम्मीदवार उतारे हैं, उनमें कई पर विरोध हो रहा है और पार्टी के अंदर भी हो रहा है. बरेली के प्रत्याशी ने रोते हुए चुनाव लड़ने से मना कर दिया और गाजियाबाद के प्रत्याशी के साथ हाथापाई की वारदात हो चुकी है. कई जगहों पर भाजपा के प्रत्याशी सहज नहीं है. इससे पार्टी भी सतर्क हो गई है. ऐसा लगता है कि नामांकन से पहले सभी पार्टियां अपने उम्मीदवार घोषित करेगी.
नहीं दिख रही मोदी की लहर
पीएम नरेंद्र मोदी दो चुनाव जीतने के बाद तीसरे चुनाव में लहर पैदा नहीं कर पा रहे हैं. अभी तक भाजपा कोई लहर पैदा नहीं कर पा रही है. अब पीएम मोदी के चुनावी भाषणों में वो लय नहीं दिख रही है, कोई मुद्दा नहीं दिख रहा है, जिससे वह सीधे तौर पर लोगों से जुड़ सकें. जिस प्रकार के भाषण या संचार के लिए नरेंद्र मोदी जाने जाते है. वर्तमान में वो भ्रष्टाचार और परिवारवाद की बात कर रहे हैं. श्रीलंका को दिए जाने वाले द्वीप कच्चातिवु का उन्होंने मामला उठाया तो अब उसको भी अब गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है. उसको इस तौर पर देखा जा रहा है कि लद्दाख का मामला छिपाने के लिए उन्होंने ये मामला उठाया है. यूपी में रैली होने के बाद भी अभी तक कोई लहर पैदा नहीं हो पाई है.
इस बार बसपा से भी भाजपा का फायदा हो, ऐसा नहीं है. यूपी में ये अक्सर माना जाता है कि जब मायावती उम्मीदवार उतारती है तो विपक्ष के लोगों को ही नुकसान होता है. विपक्ष के वोट कटते हैं. इस बार कुछ अलग देखा जा रहा है. शुरुआत में जब मायावती ने मुस्लिम उम्मीदवार उतारे तो माना जा रहा था कि इससे समाजवादी पार्टी को नुकसान होगा. अब जो एक दर्जन से अधिक उम्मीदवार उतारे हैं उसमें जातीय समीकरण सामने आ रहा है,उससे सीधे तौर पर तो भाजपा को नुकसान होता दिख रहा है. अगर मायावती सवर्णों के वोट में सेंध मारती है तो इस बार भाजपा के लिए नुकसान होगा.
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