सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के रिटायर्ड जजों के लिए राजनीतिक नियुक्ति में होना चाहिए 'कूलिंग ऑफ पीरियड'
बॉम्बे लॉयर्स एसोसिएशन ने एक जनहित याचिका याचिका दायर की है. इसमें मांग की गई है कि सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के किसी भी रिटायर्ड जज की राजनीतिक नियुक्ति को स्वीकार करने से पहले दो साल की 'कूलिंग ऑफ' अवधि तय की जाए.
ये पीआईएल रिटायरमेंट के बाद जजों के लिए कूलिंग पीरियड की मांग से जुड़ी है. निश्चित रूप से ये एक बड़ा ही इनोवेटिव आइडिया है. जज की स्वतंत्रता को मजबूत करने के लिए ये जरूरी है कि रिटायरमेंट के बाद, दो, तीन या चार साल जो भी उचित हो, उसका कूलिंग पीरियड होना चाहिए.
जब कोई सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट का जज अपने पद पर होते हैं तो वे सरकार के खिलाफ और पक्ष में भी निर्णय देते हैं. लोगों का परसेप्शन होता है कि कोई फैसला अगर सरकार के पक्ष में आता है तो पोस्ट रिटायरमेंट कोई जॉब या राजनीतिक नियुक्ति इस वजह से तो नहीं दी गई है. इसमें बहुत सारे ट्रिब्यूनल हैं, कमीशन हैं. इनका पोस्ट रिटायरमेंट के बाद जजों को मिल जाता है तो लोगों को लगता है कि उसी वजह से मिला है. सच्चाई क्या है कोई नहीं जानता है और न ही मैं जानता हूं.
लेकिन पब्लिक के परसेप्शन को आप ऐसे खत्म नहीं कर सकते हैं क्योंकि पब्लिक का परसेप्शन एक अंतिम परसेप्शन होता है. चूंकि न्यायपालिका चुने हुए लोगों पर आधारित नहीं होता है. न्यायपालिका की जवाबदेही सीधे पब्लिक को लेकर नहीं होता है. यही कारण है कि न्यायपालिका स्वतंत्र है. जबकि कार्यपालिका यानी सरकार इसलिए स्वतंत्र नहीं होती है क्योंकि उनकी जवाबदेही सीधे पब्लिक की होती है.
न्यायपालिका का निर्णय कानून के आधार पर होता है. पब्लिक के मूड से न्यायपालिका के किसी फैसले का कोई संबंध या प्रभाव नहीं होता है. यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट में इस तरह की याचिका पहले भी दायर की गई है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना हाथ खड़ा कर दिया था कि अनुच्छेद 14, 19 और 21 के तहत वो इस तरह का कोई आदेश नहीं दे सकती है.
निश्चित रूप से ये एक नई याचिका है. अभी चीफ जस्टिस भी नए हो गए हैं. लॉ कभी फिक्स नहीं होता है. मान लिया जाए कि पहले कोई याचिका खारिज हो गई है, बाद में उसको फाइल किया गया है तो हो सकता है कि कोर्ट इस पर कुछ निर्णय दे.
ये कोई नई बात नहीं है. ये होना चाहिए क्योंकि इससे आम जनता में जो धारणा है, उसे दूर करने में मदद मिलेगी. लोगों का भी मानना है कि इस तरह की व्यवस्था होनी चाहिए. इसमें कोई शक नहीं है कि कहीं न कहीं कूलिंग पीरियड नहीं होने के कारण लोगों के मन में भ्रम की स्थिति है. लोग बोलते भी हैं और इसके लिए पहले भा आवाज उठाई जा चुकी है, लेकिन अभी तक सफलता नहीं मिली है. मैं आशा करता हूं कि इस बार इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट कुछ अच्छा निर्णय दे.
कायदे से कूलिंग पीरियड 5 साल होना चाहिए क्योंकि 5 साल में सरकार बदल जाती है. अगर लोगों के बीच ये धारणा है कि कोई जजमेंट किसी ख़ास सरकार के वक्त में उनके पक्ष में आया है तो सरकार फैसले देने वाले जज को रिटायरमेंट के बाद उसके एवज में कुछ देती है. इसलिए जरूरी है कि रिटायरमेंट के बाद कूलिंग ऑफ पीरियड जरूर होना चाहिए ताकि बीच में एक गैप आ जाए और जिसकी वजह से न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनी रहे. ऐसा होने पर अगर किसी जज ने सरकार के पक्ष में कोई जजमेंट दिया तब ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि रिटायरमेंट के बाद जो पद मिला है, उस फैसले के एवज में मिला है.
संविधान में शक्तियों का बंटवारा किया गया है. भले ही सवाल उठते हो लेकिन बड़े संदर्भ में सोचें तो भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता तो है. इमरजेंसी काल में आए फैसलों को छोड़कर कोई भी जजमेंट उठाकर देख लें तो उसमें मुझे नहीं लगता है कि कहीं भी न्यायपालिका की स्वतंत्रता से समझौता किया गया है. जस्टिस डिलीवरी सिस्टम में सबसे जरूरी तत्व है न्यायपालिका की स्वतंत्रता.
देश का जो संविधान है वो बड़ा व्यापक है. उसमें न्यायपालिका की स्वतंत्रता का पूरा ध्यान रखा गया है. जब जजों की नियुक्ति और कॉलेजियम सिस्टम की बात आती है तो भले वहां पर प्रश्न उठते हैं. जब कहीं लोकतंत्र होता है तो वहां कार्यप्रणाली में सवाल उठना स्वाभाविक होता है. सकारात्मक आलोचना कहीं भी किया जा सकता है. लेकिन अगर ये कहा जाए कि हमारे देश में न्यायपालिका की स्वतंत्रता नहीं है को ये ग़लत होगा.
कूलिंग पीरियड की जो चर्चा है, उसे मैं सही मानता हूं क्योंकि देश में एक वर्ग है जो ये मानता है कि कहीं न कहीं जज सरकार से प्रभावित होकर सरकार के पक्ष में निर्णय देते हैं. न्यायपालिका के खिलाफ ये जो नेगेटिव परसेप्शन है, उसे दूर करने के लिए कूलिंग पीरियड का होना जरूरी है. इस परसेप्शन को दूर करने की जरूरत है. आज न्यायपालिका इतनी मजबूत है, उसका कारण लोगों का भरोसा ही है. इस नजरिए से भी कूलिंग पीरियड का महत्व है. इस मसले पर संविधान साइलेंट है.
हमारा कानून डायनेमिक है, जो समय के हिसाब से बदलते रहता है. उसकी व्याख्या अलग-अलग तरीके से की जाती है. अगर कोई याचिका एक साल पहले खारिज कर दी गई है, तो ये जरूरी नहीं कि वही याचिका अब भी खारिज हो जाए. हो सकता कि दूसरे जज उसकी व्याख्या अलग तरीके से करें. परिस्थिति के हिसाब से उसकी व्याख्या की जाती है.
कानून में बदलाव सामाजिक सच्चाई के हिसाब से होता है. अगर सामाजिक सच्चाई बदल गई है तो फिर कानून की सच्चाई को भी बदलना होगा. 21वीं सदी में परिस्थितियां बदल गई हैं, तो बदली हुई परिस्थितियों के हिसाब से कानून में भी बदलाव होना चाहिए. इस तरह की याचिका दायर की जाती है तो सुप्रीम कोर्ट को बहुत अच्छे से विचार करके उस पर तर्कसंगत आदेश होना चाहिए. इससे न्यायपालिका की स्वीकार्यता और भी मजबूत होगी और लोगों का भरोसा और बढ़ेगा.
(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)