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सुखी घर सोसायटी: प्रवासी जीवन, पहचान और संघर्ष की कहानी

विनोद दास, एक प्रतिष्ठित कवि, आलोचक और अनुवादक के रूप में समादृत नाम हैं. अपने सद्यः प्रकाशित  उपन्यास ‘सुखी घर सोसायटी’ के माध्यम से गद्य साहित्य में एक महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज की है. लगभग तीन सौ पृष्ठों का यह उपन्यास मुंबई के मीरा रोड स्थित एक सोसायटी के माध्यम से पूरे महानगर की जीवनगाथा कहता है. यह बिहार और उत्तर प्रदेश से आए प्रवासियों के संघर्ष और सपनों को समेटते हुए मुंबई के भूगोल और सामाजिक संरचना की कई परतें खोलता है. 

शहरी जीवन और प्रवासियों की दुविधा

उपन्यास मुंबई के उपनगर में स्थित एक छोटे-से समाज का चित्रण करते हुए उन प्रवासियों की कहानी कहता है, जो गांवों से रोज़गार की तलाश में आते हैं, लेकिन खुद को कठिनाइयों और असुरक्षा के एक अंतहीन चक्र में फंसा पाते हैं. यह केवल सुखी घर सोसायटी तक सीमित नहीं रहता, बल्कि मुंबई के इतिहास और समकालीन लोकतांत्रिक मूल्यों से भी इसे जोड़ता है.

सुखी घर सोसायटी में रहने वाले परिवार मात्र किरायेदार नहीं हैं, बल्कि वे भारतीय लोकतांत्रिक समाज की विविध जटिलताओं और अंतर्विरोधों के प्रतीक भी हैं. उपन्यास उन लोगों की दास्तान बयां करता है जो गांव छोड़कर शहर तो आ जाते हैं, लेकिन अपने भीतर गाँव को पूरी तरह मिटा नहीं पाते. यह प्रवासियों की अस्थिरता, उनकी दोहरी मानसिकता और सामाजिक पहचान के संकट को प्रत्यक्ष लाता है. यह कृति पाठकों को सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या प्रवासी कभी सच में ‘स्थायी’ हो पाते हैं, या वे हमेशा एक अनिश्चित भविष्य और अपने अतीत के बीच जूझते रहते हैं?

सामाजिक यथार्थ और मानवीय संघर्ष

हम पढ़ते हुए सायास अनुभव करते हैं कि विनोद दास का यह उपन्यास कैसे जल संकट, लोकल ट्रेनों के  यात्री और उनके संघर्ष, सामाजिक भेदभाव और रोज़मर्रा की जद्दोजहद के माध्यम से महानगरीय जीवन की जटिलताओं को  सामने लाता  है. यह केवल संघर्ष से भरा जीवन तथा  संवेदनशील संकेतों को ही प्रस्तुत नहीं करता, बल्कि समाज के विविध वर्गों के मध्य मौजूद असमानताओं और विस्थापन की त्रासदी को भी गंभीरता से रेखांकित करता है.

प्रत्येक अध्याय अपने आप में एक स्वतंत्र कथा की भांति उभरता है, और सभी मिलकर एक कोलाज की तरह व्यापक सामाजिक परिदृश्य की निर्मिति करते हैं. उपन्यास प्रवासियों की उस मार्मिक सच्चाई को उजागर करता है, जहाँ वे अपने गाँव की स्मृतियों और शहर की कठोर वास्तविकताओं के बीच निरंतर आवाजाही करते रहते हैं. यह कहना उचित होगा कि यह उपन्यास प्रवासियों की पहचान से जुड़े संकट, सांस्कृतिक संघर्ष और नए जीवन की तलाश में आने वाली चुनौतियों को पूरी संवेदनशीलता के साथ चित्रित करता है.

जाति, धर्म और लैंगिक भेदभाव पर बेबाक टिप्पणी

‘सुखी घर सोसायटी’ सामाजिक विडंबनाओं और राजनीतिक जटिलताओं की महीन परतें अनावृत करते हुए समकालीन भारतीय समाज पर प्रासंगिक टिप्पणी भी करता है. यह उपन्यास न केवल जातिवाद और सांप्रदायिकता की गहरी जड़ों को टटोलता है, बल्कि लैंगिक भेदभाव और सामाजिक न्याय से जुड़े जटिल प्रश्नों को भी प्रमुखता एक गंभीर विमर्श के रूप में से सामने लाता है.

आकाश और वसुधा जैसे पात्र समाज की प्रगतिशील सोच और मानवीय कमजोरियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि कृष्णा, रज़िया और मनोज आर्य जैसे किरदार हाशिए पर खड़े वर्गों की पीड़ा और संघर्ष को जीवंत करते हैं. हिंदू-मुस्लिम, मराठी-गैर मराठी जैसे तनाव इस सोसायटी की दीवारों के भीतर ही नहीं, बल्कि व्यापक समाज में व्याप्त सांप्रदायिक और क्षेत्रीय अस्मिताओं को भी मजबूती से प्रकट करते हैं. 

समाज में असमानता और हाशिए पर पड़े लोगों की पीड़ा

विनोद दास का यह उपन्यास भारतीय समाज में व्याप्त गहरी असमानताओं को स्पष्ट रूप से उजागर करता है. इसमें दिखाया गया है कि जहाँ कुछ वर्ग सुविधाओं और अवसरों का पूरा लाभ उठाते हैं, वहीं सफाईकर्मियों की बदहाल स्थिति और किसानों की आत्महत्याओं की पीड़ा को भी गंभीरता से प्रस्तुत किया गया है.

लेखक ने एक सशक्त कथा के माध्यम से पाठकों को न केवल अपने पूर्वाग्रहों और सामाजिक विशेषाधिकारों पर पुनर्विचार करने के लिए विवश किया है, बल्कि उन्हें हाशिए पर खड़े लोगों की वास्तविकता से भी साक्षात्कार कराया है. उपन्यास एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाता है—क्या हमारा लोकतंत्र वास्तव में सभी को समान अवसर प्रदान करता है, या फिर यह केवल एक विशेष वर्ग के लिए ही सुविधाजनक बना हुआ है?

उपन्यास की शैली, संवेदना और संरचना

पढ़ते हुए हम अनुभव करते हैं किस प्रकार से, यह उपन्यास मानवीय संवेदनाओं की तहों को संवेदनशीलता से सामने लाता है और पाठकों को भीतर तक झकझोर देता है. बुजुर्ग माता-पिता, जिन्हें उनकी संतानें वृद्धाश्रम में छोड़ देती हैं, जैसे मार्मिक प्रसंग केवल भावनात्मक आघात नहीं पहुंचाते, बल्कि समाज की उदासीनता पर भी तीखे सवाल खड़े करते हैं.

विनोद दास की प्रवाहमयी, काव्यात्मक और सहज भाषा कथा को प्रभावशाली बनाती है. हर किरदार अपनी अनकही पीड़ा, संघर्ष और सपनों के साथ खड़ा है, जो पाठकों को न केवल उनके दुःख से जोड़ता है, बल्कि सामाजिक दायित्वों पर भी विचार करने के लिए प्रेरित करता है. सुखी घर सोसायटी महज़ एक उपन्यास नहीं, बल्कि हमारे समय और समाज का आईना है, जिसमें भारतीय जीवन की जटिल सच्चाइयाँ पूरी स्पष्टता के साथ प्रतिबिंबित होती हैं.

अधूरी कहानियां और पाठकों को सोचने पर मजबूर करता उपन्यास

यद्यपि उपन्यास ‘सुखी घर सोसायटी’ अपनी सभी कहानियों को मुकम्मल अंजाम तक नहीं पहुंचाता, फिर भी यह जीवन की अपूर्णता को गहरे अर्थों में प्रतिबिंबित करता है. समकालीन भारतीय समाज की जटिलताओं को दर्शाने में विनोद दास की यह कृति अत्यंत प्रभावशाली सिद्ध होती है.

यह उपन्यास उन प्रश्नों को भी उठाता है, जिनका समाधान शायद कभी पूरी तरह संभव नहीं, लेकिन यह पाठकों को उनके बारे में सोचने, बहस करने और आत्ममंथन करने के लिए प्रेरित करता है. इसकी कथा हमें हमारे आसपास की सामाजिक विसंगतियों और विडंबनाओं को एक नए दृष्टिकोण से देखने को मजबूर करती है.

लेखक की अंतर्दृष्टि और सूक्ष्म मानवीय मनोविश्लेषण इसे केवल एक कथा नहीं, बल्कि हमारे समय का एक सशक्त सामाजिक दस्तावेज़ बना देता है. सुखी घर सोसायटी सिर्फ पढ़ने भर के लिए नहीं, बल्कि अनुभव करने, आत्मसात करने और समाज के ताने-बाने को समझने के लिए एक आवश्यक कृति है.

पुस्तक: सुखी घर सोसायटी
लेखक: विनोद दास
भाषा: हिंदी
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन समूह
मूल्य: रु .350/-

(आशुतोष कुमार ठाकुर पेशे से मैनेजमेंट प्रोफेशनल हैं, जो साहित्य और कला पर नियमित लिखते हैं.)

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