BLOG: इस झाड़ू से तो घर के कंकड़ हटाने थे, लेकिन मार कुनबे पर पड़ी
आपको वो दिन याद है. केजरीवाल के नेतृत्व में आप पार्टी ने दिल्ली की तीन सीट छोडकर सब सीटें जीत ली थी. केजरीवाल ने इस जीत पर कहा था कि विश्वास नहीं हो रहा कि हमें दिल्ली के लोगों ने इतना समर्थन दे दिया है. उसी समय एक भावुक वृद्ध व्यक्ति टीवी में खुशी में रोता हुआ नजर आया था. शायद उन्होंने एक पत्र भी अपने उस बेटे के नाम लिखा था और पार्टी का एक जिम्मेदार बड़ा नेता होने पर गौरव जताया था. यह कोई और नहीं आशुतोष के पिता थे. आप पार्टी की जीत की खुशियों के बीच आशुतोष मुख्य रणनीतिकारों में एक माने जा रहे थे. आशुतोष को शायद पत्रकारिता की रिपोर्टिंग पर उनके पिता ने ऐसा नहीं सराहा होगा. लेकिन आप पार्टी के लिए उनके मन में जिस तरह की भावुकता थी, उससे बेटे का जुड़ाव देखकर ही उनके आंखों से आंसू निकले होंगे. समय ज्यादा नहीं बीता है. आज वही आशुतोष ट्विट करके अरविंद केजरीवाल को कह गए हैं कि आपके मेरे साथ रहने का समय पूरा हो गया है. बेशक उन्होंने पार्टी से अपने निकलने को निजी कारण बताया हो लेकिन धुएं और धुएं से पहले की आग आप कुनबे में ठीकठाक महसूस की जा रही है.
झाडू अगर घर के कंकड़ मिट्टी हटाने के लिए इस्तेमाल होता तो उसका औचित्य समझ में आता. लेकिन यह झाडू घर की उन चीजों पर भी चलता रहा जो घर को किसी मायने में घर बनाए हुए थीं. अब झाडू इतना चल गया है कि घर पर केवल कंकड़ ही नजर आ रहा है. किरण बेदी, प्रशांत भूषण कुमार विश्वास और अब आशूतोष ने जिस तरह आप से नजरें फेर ली है या उन्हें मजबूर होना पड़ा उससे बदलाव की बयार लिए खड़े एक संगठन की घटती अहमियत का पता चलता है. आशूतोष लंबे समय से उपेक्षा महसूस कर रहे थे. राज्यसभा में जब आप पार्टी ने संजय सिंह और डी एन गुप्ता का चयन किया तो आशुतोष समझ गए कि अब पार्टी में उनकी अहमियत नहीं रही. हालांकि पार्टी ने लोकसभा चुनाव में आशुतोष को चांदनी चौक की सीट पर प्रत्याशी बनाया था. लेकिन मोदी लहर के उस लोकसभा चुनाव में उस सीट पर प्रत्याशी होना चुनाव लड़ने की औपचारिकता ही थी जबकि यहां राज्य सभा की सीट पर सीधे सांसद बनने का अवसर था. पार्टी जहां संजय सिंह को ताकतवर बनाती गई वहीं राज्यसभा की दावेदारी ऐसे व्यक्ति को सौंपी गई जिनकी पार्टी में कोई पृष्ठभूमि नहीं जुड़ी थी. वह आंदोलन का भी हिस्सा नहीं थे. केजरीवाल की यह अपनी शैली है जहां उन्होंने आम आदमी की बात कहकर उद्यमियों रसूख वालों को पार्टी से जोड़ा और उन्हें अवसर दिए. पार्टी में यह बिखराव आगे और दिख सकता है.
अब इस घर में केजरीवाल हैं और उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया हैं और उनके बगल की सीट को हथियाए हुए संजय सिंह . चौथे नाम को याद करने के लिए आपको भरपूर माथापच्ची करनी पडेगी. दिल्ली के जो मंत्री विधायकों का जमावड़ा है उन्हें अपने को बताने और परिचय देने के लिए या तो आप वाली टोपी पहननी पड़ती है या फिर झाडू हवा में लहराना होता है. उनका परिचय केवल इतना ही जनमानस तक जा रहा है कि वे केजरीवाल के लोग हैं. आप पार्टी को इस अधोगति में लाने में पार्टी नेता केजरीवाल ही जिम्मेदार है. लंबे समय से अनजाने चेहरों को पार्टी प्रवक्ता बनाकर टीवी चैनलों में भेजा जाता रहा. जिनमें कई पार्टी के पक्ष को सटीक ढंग से रख भी नहीं पाते हैं लेकिन आशुतोष की हर स्तर पर जमकर उपेक्षा हुई है. वह संजय सिंह के बढ़ते प्रभाव वाले खांचे में फिट नहीं हो रहे थे. और लगातार हाशिए में ही चल रहे थे. इससे पहले यही अधोगति वो कुमार विश्वास भी महसूस कर रहे थे जिनकी कविताओं की पंक्तियों को हजारों युवा आंदोलन में दोहराते थे.
जरा उस समय की कल्पना कीजिए जब अन्ना हजारे के आंदोलन में उनके सबसे विश्वस्त अरविंद केजरीवाल अपने अपने क्षेत्र के चर्चित और काबिल लोगों का एक तरह मंच पर नेतृत्व करते थे. यह आंदोलन देश की अराजक होती व्यवस्थाओं के खिलाफ था. बेशक विपक्ष में होने के कारण भारतीय जनता पार्टी ने इसका राजनीतिक लाभ उठा लिया हो लेकिन विशुद्ध यह आंदोलन सत्ता शासन की शैली की चली आ रही परिपाटी और परंपरा को तोड़ने के लिए ही था. यह एक तरह से हुंकार थी जिसके प्रभाव में देश के युवाओं ने एक सपना देखा और कल्पना करने लगे कि सत्ता चलाने की व्यवस्था बदलेंगी और सत्ता जिसके भी हाथों होगी वह जनता के सीधे सरोकार रखेगा. यही नहीं सत्ता चलाने वालों के हर काम पर पैनी निगाह होगी.
व्यवस्थाओं को बदलने की लडाई में प्रशांत भूषण, किरण बेदी, कुमार विश्वास जैसे तमाम ऐसे लोग एक साथ खड़े दिखे दिल्ली के रामलीला मैदान के जिस मंच पर अन्ना हजारे जन आह्वान करते थे उस मच पर अरविंद केजरीवाल एक जूझता संघर्ष करता युवा नजर आता था. जो हालात को बदलने के लिए सब कुछ न्योछावर करने को तैयार हो. और उनकी देश की व्यवस्थाओं को बदलने की लडाई में प्रशांत भूषण, किरण बेदी, कुमार विश्वास जैसे तमाम ऐसे लोग साथ खड़े दिखे जो किसी बड़ी मुहिम के लिए एक जरूरी हिस्सा लगते थे. हो सकता है कि केजरीवाल के मन में पूरा खाका रहा हो कि आगे क्या क्या हो सकता है और क्या किया जा सकता है लेकिन आम भारतीय जनमानस रामलीला मैदान से बचते बिगुल में इनके लिए सत्ता की आहट नहीं देख पा रहा था. तब देश भर में जो उफान मचा था वह इसी कल्पना पर था कि सत्ता के समक्ष एक ऐसा ग्रुप संगठन हमेशा खड़ा रहेगा जो उसे पथभ्रष्ट होने से बचाए रखेगा. जब जब भी कहीं चूक होगी तो अरविंद केजरीवाल और उनके साथी अपने मोर्चे के साथ हुंकार भरते हुए दिखेंगे.
जब ऐसी कल्पना मन में हो तो देश भर का दुलार मिलना स्वाभाविक था. यूं ही लोग सुबह सबेरे रामलीला मैदान में नहीं उमड़ते थे. कहा जाने लगा था कि जयप्रकाश नारायण की क्रांति की तरह एक नया उद्वेग सामने आया है. तब मंच पर भारतीय झंड़ा किरण बेदी भी लहराती थीं और कुछ क्षण बाद उसे अपने हाथों में लेकर अरविंद केजरीवाल भी लहराते थे. देश भर में जो नहीं जानते थे उन्होंने भी जानकारी ले ली थी कि केजरावील कौन हैं. उनमें युवाओं ने अपनी अपनी तरह से सकारातमक छवि देखनी शुरू की . यह टोला जिस तरह कई विधाओं कई क्षेत्रों के प्रमुख जाने पहचाने चेहरों के आने से अपनी ताकत पाया था उसी की छाया में वह जनमानस में एक विश्वास का भाव भी जगा रहा था. इसे एक नए संकल्प की तरह देखा जा रहा था. इसमें अपनी प्रखर कविता और ओजस्वी सवादों से खासकर नई पीढ़ी को प्रभावित करते कुमार विश्वास, न्याय के क्षेत्र में और अपने मुद्दों पर जूझते लंबा अनुभव रखते प्रशांत भूषण, कभी दिल्ली में अपने प्रशासकीय क्षमता से शोहरत कमाने वाली किरण बेदी हों सभी की दक्षता और कुशलता इस टोले को बेहद आकर्षक बना रही थी. नई पीढी इसमें संजीवनी तलाश रही थी. फिल्म जगत के अनुपम खैर को भी यह मंच संजीदा लगा.
कुछ नए और जमाने को अपने तौर तरीको से प्रभावित करते चेहरे भी इसमें दिखे. जैसे दिल्ली में शाजिया. केवल मंच की गतिविधियां ही नहीं अगर कभी प्रेस कांफ्रेस भी होती तो उसे बड़ी दिलचस्पी के साथ सुना जाता था. लेकिन आप पार्टी बनी और अन्ना हजारे को अपनी गत मालूम हुई. वह सलाह देने या लेने की स्थिति में नहीं रहे तो चुपचाप महाराष्ट्र चले गए. सामाजिक राजनीतिक उपेक्षा के बड़े बड़े उदाहरण देखें होंगे लेकिन यह बिरला ही मामला है. दो महीने पहले जो केजरीवाल अन्ना हजारे के चरण दबाते हुए दिखते थे अचानक उन अन्ना हजारे को किनारे कर दिया गया. ऐसे गुरु की अहमियत भी नहीं रखी जिसे कभी कभी दिखावे के लिए ही सही हाथ जोड़ कर नमन किया जाए. महत्वकाक्षाएं जिस तरह उछाल मार रही थी उसमें कौन यकीन करता कि प्रशांत भूषण या किरण बेदी जैसे लोग यहां टिक पाते. देर सबेर उन्हें रास्ता दिखाया ही जाना था. वह अपनी अपनी राहों में चले गए. पर नियति कुछ और थी या इसके पीछे सोच कुछ और थी. देखते ही देखते यह टोला राजनीति के अखाड़े में उतरा. इस जत्थे के एकाएक हुए एलान से लोग हतप्रद होते उससे पहले स्थिति को संभालने की कोशिश की गई कि बिना राजनीतिक ताकत के हम व्यवस्था नहीं बदल सकते. कल तक जिस आचरण खोती सत्ता के तौर तरीकों शैली पर टिप्पणियां होती रहीं अब उसी सत्ता को पाने के संघर्ष के लिए विधिवत राजनीतिक पार्टी बनाने का एलान हुआ. लोगों में अगर इस एकाएक हुए ऐलान पर भरोसा नहीं उठा और उन्होंने एक तरह से केजरीवाल कोदल बनाने की अप्रत्यक्ष सहमति दी तो उसके पीछे यही वजह थी कि तमाम पहलुओं के बावजूद वे अब भी केजरीवाल पर भरोसा कर रहे थे कि हाल के आंदोलन से निकला यह शख्स नई राजनीति करेगा. इसलिए शुरु के अंदुरुनी विवाद और पार्टी छोडकर जा रहे लोगों पर इतनी अहमियत नहीं दी गई.
दिल्ली विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 2013 के मुकाबले 2015 में 39 ज्यादा सीटें जीती अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों के जरिए जिस आप को खड़ा किया गया उसे लेकर आत्मविश्वास इतना ज्यादा था कि इससे पहले बीजेपी की लहर में भी अरविंद केजरीवाल वाराणसी से चुनौती देने की मुद्रा बनाए हुए थे. हालांकि, बाद में यह कहा गया कि आप के नेता वहां प्रतीक के तौर पर लड़े. बेशक लोकसभा चुनाव में आप पार्टी दिल्ली की सातों सीट में एक पर भी जीत हसिल न कर पाई हों लेकिन राज्य विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 2013 के मुकाबले 2015 में 39 ज्यादा सीटें हासिल की थी और बाजेपी को केवल तीन सीटों पर सिमटा दिया. यह स्थिति भी तब थी जब किरण बेदी प्रशांत भूषण जैसे चर्चित चेहरे पार्टी छोड़ गए थे. बाजेपी ने तो किरण बेदी को मुख्यमंत्री का चेहरा ही बना दिया था. दिल्ली विधानसभा चुनाव में एकतरफा जीत हासिल करने के बाद केजरीवाल ने अपनी राजनीतिक गतिविधियों का दायरा काफी बढ़ाना शुरू किया. पार्टी ने जहां एक तरफ पंजाब जैसे कुछ राज्यों में गंभीरता से चुनाव लड़ने में रुझान दिखाया वहीं अरविद केजरीवाल राजनीति में ऐसा ध्रुव बनाने की कोशिश करते दिखे जिसमें बाजेपी के खिलाफ खड़ी पार्टियां उन्हें भरपूर तवज्जो दें. अपने व्यक्तित्व को संभारने के लिए केजरीवाल के कई जतन किए. उनकी कोशिश लगातार मोदी के सामने एकसक्षम विपक्षी नेता बनने की रही. लेकिन उनकी यह कोशिश एसपी, बीएसपी, आरजेडी, कांग्रेस के सामने ज्यादा नहीं चली. चलती भी कैसे. केजरीवाल अलग-अलग मुद्रा में दिखे. कभी केंद्र के प्रति आक्रामक तो कभी एकदम लंबा मौन. कभी धर्मनिरपेक्ष बनने की कोशिश तो कभी लालू को साधने की कोशिश. इन खेलतमाशों के बीच बीस विधायकों लाभ के पद पर रहने का मामले से पार्टी की छवि बिगड़ी तो विधायक अश्लील-वीडियो में भी नज़र आए. दिल्ली को चमकाने बेहतर शासन का जो सपना दिया गया उसके विपरीत केजरीवाल और उनके मंत्रियों के आचरण भी पूरी तरह सामंती दिखे. दिल्ली या देश के लोग इस सरकार के तौर तरीकों में किसी तरह का राजनीतिक बदलाव नहीं पा सके. आम आदमी के नाम परबनी सरकार आम आदमी से दूर होती गई.
आप बिखरना तो शुरू हो गई थी लेकिन तब भी जिस तरह जनमानस आप के लिए तैयार दिखता था उसकी बदौलत पार्टी में केजरीवाल पूरा मनमानी ही चाहते थे. किरण बेदी दूसरे पाले से मैदान पर लड़ती नजर आईं. लेकिन अन्ना हजारे का आंदोलन इतना खाद पानी जमा कर चुका था कि अरविंद केजरीवाल को या उसके लोगों को शिकस्त मिलनी मुश्किल थी.
केजरीवाल ने पूरी दक्षता आप पार्टी को जेबी संगठन के रूप में बनाने में लगाई. बेशक वह कुछ लोगों से साथ गोलबंद हो गए हों. बड़ी जीत के बाद केजरीवाल को दिल्ली और इसके विकास के लिए केंद्रित होना था. लेकिन वह राष्टीय बहसों में रूचि दिखाते आएं. दिल्ली में आम आदमी पार्टी थोड़ा बहुत शिक्षा के क्षेत्र में काम करती दिखी. लेकिन बाकी दिल्ली को संवारने में आप कोई बड़ी भूमिका नहीं निभा पाई. केवल बातें ही बड़ी रहीं.
आम आदमी पार्टी उनके, मनीष सिसोदिया के आसपास सिमट गई है. इसमें अब संजय सिंह का और उन लोगों का असर देखा जा रहा है जो आंदोलन में सक्रिय रूप से तीसरी या चौथी पंक्ति में भी नहीं थे. अरविंद जितनी तेजी से संजय सिंह को आगे लाते रहे कुमार विश्वास और आशुतोष जैसे पुराने साथी उनसे दूर होते गए. इतना कि आशुतोष को पार्टी छोड़ने का एलान ट्विट करके करना पड़ा है और उनके पार्टी छोड़ते ही कुमार विश्वास ने उन्हें शाबाशी दे दी है. पंजाब के चुनाव में भी पार्टी का बिखराव स्पष्ट रूप से देखा गया. लेकिन इस पर गौर देने की जरूरत नहीं महसूस की गई. केजरीवाल अब पार्टी को अपनी पार्टी बना चुके हैं. आशुतोष का जाना भी इसका प्रतीक है कि केजरीवाल बिखरते घर को बचाने की कोशिश करने के बजाय एक ऐसा जमावड़ा चाहते हैं जहां केवल उन्हें ही सुना जाए. इसलिए पार्टी में जो अपनी निजी हैसियत या छवि के साथ खड़ा था उसे किसी न किसी तरह बाहर का रास्ता दिखाया गया है. मनीष सिसोदिया अपने लंबे मौन पर टिके हैं. वरना नंबर दो की हैसियत भी केजरीवाल गवारा नहीं करेंगे. पार्टी का यह बिखराव जितना एक आंदोलन के बिखरने का दुख है उससे ज्यादा इस बात का कि लोग क्या आगे ऐसेआंदोलनों पर विश्वास भी करेंगे. उनका आंदोलन भले दिल्ली की सत्ता दिला गया हो. लेकिन जीवन और राजनीति के बदलाव का नारा लगाने का हक वे खो चुके हैं.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)