अशोक पांडे का उपन्यास लपूझन्ना 1970 के दशक के उत्तरार्ध में उत्तर भारत के छोटे-से कस्बे रामनगर की पृष्ठभूमि पर आधारित है. उपन्यास बचपन की मासूमियत, अनकहे सपनों और बीते समय की झलक दिखाने का असाधारण और सफल प्रयास है. यह मात्र एक कहानी नहीं, बल्कि उस समय और समाज की ऐसी तस्वीर है, जो पाठकों को बड़ी सहजता से जोड़ती है. यह उपन्यास नौ-दस साल के एक बच्चे की दृष्टि से देखी गई दुनिया का चित्रण करता है. रामनगर के मेले, पतंगबाजी, मास्टरों की डांट, मोहल्ले की हलचल, और दोस्तों के साथ बिताए गए हंसी-खुशी के पल – हर अनुभव पाठक को अपने बचपन में वापस ले जाता है. किताब में जो नॉस्टैल्जिया है, वह न केवल पाठक के मन में गहरे स्मृतियों का संचार करता है, बल्कि यह भी याद दिलाता है कि आधुनिक जीवन की आपाधापी में हमने कितनी छोटी-छोटी खुशियों को खो दिया है. उपन्यास 'लपूझन्ना' बाल मनोविज्ञान के बारीकियों को समझने का भी एक महत्वपूर्ण माध्यम है.
मासूम बचपन का गजब चित्रण
‘लपूझन्ना’ बचपन की निश्छलता और जिज्ञासा को इस तरह प्रस्तुत करता है कि हर दृश्य जीवंत हो उठता है. गुलाबी रिबन वाली लड़कियों की मासूमियत, दोस्तों के साथ फुटबॉल खेलते पल, लफत्तू जैसे साथी और कस्बे की ठेठ हलचल – यह सब कुछ ऐसा लगता है मानो पाठक स्वयं इस जीवन का हिस्सा हो. यह कहानी केवल बचपन की शरारतों और मस्ती तक सीमित नहीं रहती. इसमें उस समय की सामाजिक कुरीतियों, सामाजिक सम्बन्धों के विभिन्न आयाम और आम आदमी के संघर्षों को भी प्रभावी तरीके बयां करती है . अशोक पांडे अपने लेखन में जिस असाधारण सादगी और प्रामाणिकता लेकर आते हैं, वही तत्व इस उपन्यास को खास बनाता है.
लपूझन्ना पाठकों को यह भी बताता है कि उस समय जीवन में दिखावे का बोझ नहीं था, रिश्ते ज्यादा सरल और सहज थे. कहानी का सबसे बड़ा आकर्षण इसके कस्बाई जीवन के किस्से हैं. रामनगर के हर छोटे-छोटे किस्से – चाहे वह मेले की चहल-पहल हो या मास्टर की फटकार – पाठक को भावनात्मक जुड़ाव का अनुभव कराते हैं. आप यह भी अनुभव करते हैं कि यह उपन्यास केवल स्मृतियों का दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि पाठकों के लिए एक मधुर निमंत्रण है, जो उन्हें उनके बचपन की गलियों में लौटने का अवसर देता है. हिंदी साहित्य में यह कृति अपनी सादगी और प्रभावशाली लेखन के कारण लंबे समय तक याद की जाएगी.
शैली और लेखन कौशल
अशोक पांडे की भाषा की विशेषता उनकी सरलता में छिपी है. उनकी लेखनी इस कदर सहज और प्रवाहमयी है कि आप कहानी को पढ़ते-पढ़ते उसमें रम जाते हैं. यह उपन्यास आम आदमी के जीवन का महिमागान है. लेखक ने कहानी में जो बोलचाल की भाषा और लोकल अंदाज़ का इस्तेमाल किया है, वह इसे और अधिक प्रभावशाली बनाता है.
संजय चतुर्वेदी (भूमिका में लिखते हैं) के शब्दों में -
"रामनगर की इन कथाओं में लपूझन्ना कोई चरित्र नहीं मिलेगा. समाधि लगाकर देखिए तो लपूझन्ना कैवल्य भाव है."किताब की हर पंक्ति में एक सादगी है जो पाठक को प्रभावित करती है. लेखक बचपन की स्मृति और बीते समय को एक दस्तावेज़ की तरह प्रस्तुत करते हैं. लेखक ने बाल सुलभ मासूमियत और बड़े होते बच्चों की जिज्ञासा को बेहद स्वाभाविक ढंग से चित्रित किया है. कथा कहने की यह सहजता इसे और भी प्रभावशाली बनाती है.
रामनगर: बचपन का कैनवास
यह वही दौर था जब न टेलीविजन ने हमारी ज़िंदगी में घुसपैठ की थी और न आधुनिक तकनीक ने हमारी मासूमियत छीनी थी. लपूझन्ना उस समय को याद दिलाता है, जब टेलीविजन, मोबाइल, और इंटरनेट का अस्तित्व नहीं था, और बचपन पूरी तरह आज़ाद और निश्छल था. यह कहानी उस युग की है, जब दोस्ती का अर्थ साथ बैठकर गप्पें मारना और खुशियों का मतलब छोटी-छोटी चीज़ों में सुख ढूंढ लेना था. यह उपन्यास आज के भागदौड़ भरे जीवन में ठहराव का अनुभव कराता है, जहां पाठक अपने भीतर झांककर भूली-बिसरी स्मृतियों को फिर से जी सकता है. बचपन के खेलों जैसे पतंगबाजी, गिल्ली-डंडा, और गुल्ली का ज़िक्र इस कहानी को और अधिक वास्तविक और भरोसेमंद बनाता है. रामनगर की पृष्ठभूमि में बीते बचपन के अनुभव पाठकों को उनके अपने अतीत से जोड़ते हैं. ये अनुभव उन्हें उनके भीतर के उस मासूम बच्चे को फिर से खोजने पर मजबूर कर देते हैं, जिसे वे शायद व्यस्तता और आधुनिकता के बीच कहीं खो चुके हैं.
लफत्तू: दोस्ती और बचपन की अनमोल यादें
यह उपन्यास बचपन के दोस्तों और उनके साथ बिताए गए बेशकीमती समयों का महत्व खूबसूरती से दर्शाता है. लफत्तू, जो लेखक के बचपन का जिगरी दोस्त था, इस कथा का केंद्रबिंदु है. यह किरदार हर उस दोस्त की याद दिलाता है, जिसे हमने अपने छोटे शहर के बचपन में जाना था. लफत्तू का होना मात्र कहानी में नहीं, बल्कि वह एक प्रतीक है—एक ऐसा भाव जो हर किसी के बचपन में मौजूद होता है. उसकी उपस्थिति हमें उस दौर में ले जाती है जब दोस्ती में सच्चाई और मासूमियत होती थी, और हंसी-मजाक के पीछे गहरे भाव छिपे होते थे. लफत्तू केवल एक नाम नहीं, बल्कि बचपन की उन तमाम यादों और रिश्तों का प्रतिबिंब है, जो आज भी दिल के किसी कोने में बसे हुए हैं. यह किरदार बताता है कि बचपन के रिश्ते सरल, गहरे, और सच्चे होते हैं, जो जीवनभर हमें मुस्कुराने की वजह देते हैं.
बचपन और आधुनिकता के बीच का अंतर
एक और महत्वपूर्ण विषय जो इस उपन्यास में उभरकर सामने आता है, वह है बचपन और आधुनिकता के बीच का अंतर. यह किताब उन दिनों की याद दिलाती है जब बचपन को जिया जाता था, न कि गुजारा जाता था. आज के बच्चों का बचपन मोबाइल, टेलीविजन, और इंटरनेट की दुनिया में कहीं खो गया है. लपूझन्ना उन दिनों की बात करता है जब जीवन सरल था और खुशियाँ छोटी-छोटी चीजों में छिपी होती थीं. किताब यह सोचने पर मजबूर करती है कि आधुनिकता ने हमें क्या दिया और क्या छीन लिया. लेखक ने नॉस्टैल्जिया के माध्यम से यह संदेश दिया है कि कभी-कभी सरलता ही जीवन की सबसे बड़ी ताकत होती है.
लपूझन्ना: बचपन की सादगी और समाज का प्रतिबिंब
अशोक पांडे का यह पहला उपन्यास अपनी प्रभावशाली लेखन शैली के लिए एक मिसाल है. यह पाठकों को उनके जीवन के उन पलों से जोड़ता है, जिन्हें वे शायद भूल चुके हों. उपन्यास पढ़ते-पढ़ते आप न केवल इन स्मृतियों को महसूस करेंगे, बल्कि उन्हें फिर से जीने का सपना भी देखने लगेंगे. कहानी में जगह-जगह ऐसी घटनाएँ और प्रसंग आते हैं, जो यह दर्शाते हैं कि समाज में छोटे-छोटे बदलाव कैसे धीरे-धीरे बड़े परिवर्तनों का कारण बनते हैं. यह उपन्यास इस बात का उत्कृष्ट उदाहरण है कि साहित्य समय का प्रतिबिंब कैसे बन सकता है और कैसे यह पाठकों को न केवल उनका अतीत दिखाता है, बल्कि वर्तमान की सच्चाइयों को समझने का माध्यम भी बनता है.
यदि आपका बचपन किसी छोटे कस्बे में बीता है या आपने दोस्तों के साथ बेफिक्री भरे दिन जिए हैं, तो यह उपन्यास आपको उन अनमोल पलों में वापस ले जाएगा. सादगी से भरी यह कहानी हर पाठक के दिल में अपनी खास जगह बना लेती है. लपूझन्ना पढ़ने के बाद आप यह जरूर अनुभव करेंगे कि बचपन न तो कभी खत्म होता है और न ही उसे भुलाया जा सकता है. लपूझन्ना न केवल हिंदी साहित्य में एक अमूल्य कृति है, बल्कि यह हर पाठक के लिए एक भावनात्मक यात्रा भी है.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]
उपन्यास: लपूझन्ना
लेखक: अशोक पांडे
प्रकाशक : हिन्द युग्म प्रकाशन
कीमत : रु 249