दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बनकर भारत खुशी मनाएं या चिंता? जानें क्या है नफा-नुकसान

दुनिया में सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन गया है भारत. देश की आबादी 142.86 करोड़ हो गयी है और वह चीन को पीछे छोड़कर दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाला राष्ट्र बन गया है. संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के ताजा आंकड़ों के अनुसार भारत ने इस मामले में चीन को पीछे छोड़ दिया है और सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश बन गया है. वैसे, चीन ने इस रिपोर्ट को अधिक तवज्जो नहीं दी है और उसका मानना है कि वह अब भी सर्वाधिक गुणवत्ता वाले मानव संसाधन वाला देश है. इधर भारत में भी जनसंख्या के फायदे-नुकसान को लेकर बहस शुरू हो गई है.
यह मुकाम खुशी से अधिक कठिनाई का
जनसंख्या वृद्धि के जिस स्तर पर हम हैं, वह खुशी से अधिक मुझे कठिनाइयों की याद दिलाता है. अभी ही हम जिस स्तर पर हैं, जितनी जनसंख्या हमारी है, हम उसी में कई संकटों से घिरे हैं. आगे अगर यह और बढ़ा तो पता नहीं क्या होगा, लेकिन कठिनाइयां तो और बढ़ेंगी ही. 1800 ईस्वी तक धरती को अगर जनसंख्या के हिसाब से देखें तो हिसाब लगभग बराबर था. यानी कि जितनी जन्मदर, उतनी ही मृत्यु-दर भी. तो, जनसंख्या लगभग स्थिर थी. माल्थस नाम के अर्थशास्त्री ने इस पर तो खैर सिद्धांत भी दिया है. हालांकि, हम देखें तो हमने डेथ रेट पर थोड़ा कंट्रोल किया, इस बीच तकनीक और इंडस्ट्रियल रेवोल्यूशन की वजह से हमने नवजात मृत्यु दर को भी कम किया, जिसकी वजह से जनसंख्या को बूम मिला. अब जनसंख्या जैसे ही बढ़ी तो उसने रिसोर्स यानी संसाधनों को कंज्यूम करना शुरू किया. अब अर्थशास्त्र का सामान्य सिद्धांत है कि जितना ऊंचा उपभोग, उतना ऊंचा विकास. समस्या तब पैदा होती है जब आपकी जनसंख्या का जो एक हिस्सा है- बड़ावाला- उसको आपको खिलाना पड़ जाए. वह आप पर आश्रित हो. तब समस्या पैदा होती है.
बाहर के देशों में क्या हुआ? जापान, यूरोप के कई देश, कोरिया आदि बड़े क्लासिक उदाहरण हैं कि उन्होंने डेमोग्राफिक डिविडेंड को अपने फेवर में कर लिया. जब अर्थव्यवस्था बढ़ती है तो सामाजिक स्तर पर भी परिवर्तन होते हैं. पहले आप संयुक्त परिवार में होते हैं, फिर न्यूक्लियर फैमिली में होते हैं. उसके बाद वो रिसोर्सेज पर कैप लगाते हैं. आप देखेंगे कि जो रिच कंट्री हैं, वहां बच्चे कम पाले जाते हैं. उनके लिए यह अफोर्डेबल ही नहीं है. वहां तब बर्थ रेट स्टेबल होता है और फिर प्रक्रिया उस ओर जाती है जब जनसंख्या स्थिर हो जाए.
डेमोग्राफी डिविडेंड है, लेकिन शर्तें लागू
ठीक है कि हमारे पीएम कहते हैं कि जनसंख्या अभिशाप नहीं, डिविडेंड है. मैं देख सकता हूं कि वह कहां से आ रहे हैं, लेकिन उसकी कुछ शर्तें भी तो हैं. जैसे, जापान, मलेशिया, ताइवान, कोरिया या फिर चीन भी है, वह डेमोग्राफिक डिविडेंड से ही तो बढ़े हैं और पीएम शायद अपने उदाहरण वहीं से ले रहे हैं. हमारे यहां स्थिति वैसी नहीं है. पहले तो यह समझिए कि डेमोग्राफिक डिविडेंड होता क्या है? इसका मतलब है कि आपकी वर्किंग पॉपुलेशन...माने, आप अपने घर का ही लें. जैसे, आपके घर में अगर पांच-छह सदस्य हैं और उसमें जो काम करने वाले सदस्य हैं, बाकी जो गैर-उत्पादक हैं यानी बूढ़े-बच्चे या वैसे जो आप पर आश्रित हैं, अगर उनकी संख्या प्रोडक्टिव कामों में लगे लोगों से अधिक है, तो जाहिर है आपका डिविडेंड नहीं रहा, वह कम हो गया।
भारत की समस्या है कि यूथ की संख्या तो है, लेकिन हमारा युवा है कहां? बच्चों टाइप हमें उसे भी तो खिलाना पड़ रहा है. हमारा यूथ इंगेज्ड कहां है? हमारे युवा इतने कुशल नहीं हैं कि उनका कहीं उपयोग किया जा सके. वो प्रोडक्शन-लाइन में नहीं हैं, इम्पलाई सिस्टम में वे कहीं नहीं हैं जिसको पॉजिटिव तरीके से लिया जा सके. तो, वह डिविडेंड न होकर एक अभिशाप की तरफ ही हम बढ़ रहे हैं. अब जिस उम्र में उनको जॉब-मार्केट में होना चाहिए, वे तैयार भी नहीं है. दरअसल, उसके लिए हमारा सामाजिक परिदृश्य भी जिम्मेदार है. अब जहां हरेक को सरकारी नौकरी ही चाहिए, भले ही वे बाकी जगह बहुत अच्छा कर सकें, लेकिन उनकी इच्छा जो है सरकारी नौकर बनने की, वह इस पूरी प्रक्रिया में बहुत बड़ी बाधा है. तो, मेरे हिसाब से तो यह अभी डिविडेंड नहीं है.
टीच वन, इच वन
किसी भी देश में इन सारी समस्याओं का हल आर्थिक विकास होता है. लोगों की जेब में जैसे ही पैसा आने लगता है, तो वे उसकी कद्र समझते हैं. फिर, वे उस रिसोर्स को बेहतर ढंग से यूटिलाइज कर सकते हैं. अभी की जो स्थिति मैं देख पा रहा हूं, उसमें अधिकतर लोगों को क्या है कि खिलाना पड़ता है. हम पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, लेकिन जो हमारी जनसंख्या है, उस हिसाब से पांचवें नंबर पर हमारा काम नहीं चलेगा, पहले नंबर के आसपास रहना पड़ेगा. आप हमारे पड़ोसी चीन का उदाहरण देखिए न. हमारे साथ ही उसने भी अपनी जर्नी शुरू की, लेकिन आज वह कहां पहुंच गया है...चीन ने जो विकास देखा, वह अभूतपूर्व है, तभी वह इतना पॉपुलेशन संभाल पाया.
मरहूम नेता संजय गांधी ने इमरजेन्सी के दौरान जो किया, उसकी बदनामी बहुत हुई. हालांकि, संजय गांधी ने एक जो सबसे अच्छी बात कही थी, उसकी कोई चर्चा नहीं करता है. उन्होंने कहा था कि टीच वन, इच वन यानी हरेक आदमी अपने आसपास के दो-चार लोगों को पढ़ाए, शिक्षित करे तो काफी अच्छा होगा. अगर इस तरह हम अपने आसपास के लोगों को स्किलफुल बनाएं तो हालात बदल जाएंगे दरअसल, सच पूछिए तो यह तय करना ही बड़ा कठिन काम है कि कितनी जनसंख्या पर्याप्त है या कम है. यह दरअसल इधर कुआं, उधर खाई वाली स्थिति होती है. हम गवर्नेंंस के मामले में तो यूरोप के सभी देशों से तुलना करने लगते हैं- डेमोक्रेसी, फ्रीडम, लिबर्टी आदि की बात करते हैं, लेकिन जब हम वर्कफोर्स की बात करते हैं तो हम बिल्कुल उभरती अर्थव्यवस्था से अपने आंकड़े मिलाने लगते हैं. हम अक्सर बात करते हैं कि हम आगे बढ़ेंगे, लेकिन किस तरह की पॉपुलेशन के साथ और कैसे आगे बढ़ेंगे, यह ज्यादा महत्वपूर्ण है.
[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]
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