मूल अधिकारों की उलझी हुई गुत्थी को सुलझाने का समय
लोकतंत्र और स्वतंत्रता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, इसी स्वतंत्रता से निकलते हैं मूल अधिकार. मसलन, जीने का अधिकार, बोलने का अधिकार, संपत्ति का अधिकार और निर्णय का अधिकार. जिनकी सुरक्षा की गांरटी देता है देश का संविधान. 26 नवंबर 1949 को आजाद भारत का संविधान अंगीकार किया गया. स्वतंत्र भारत के इतिहास में यही वो तारीख़ थी जब गुलामी की जंजीरों से मुक्त हुए भारत ने अपने नए स्वरूप को गढ़ने के प्रयास शुरू किए और इन्हीं प्रयासों के फलस्वरूप 26 जनवरी 1950 को दुनिया का सबसे बड़ा भारतीय संविधान लागू हुआ. जिसकी प्रस्तावना हम भारत के लोगों से आरंभ होती है. जो भारत के हर नागरिक के मौलिक अधिकारों को भाग-3 के अनुच्छेद 12-35 के तहत संरक्षण प्रदान किया. यहां तक कि संविधान ने सभी मौलिक अधिकारों की सुरक्षा की गांरटी दी. लेकिन आज यानि 26 नवंबर को जब पूरा देश संविधान दिवस माना रहा है जिसकी शुरुआत साल 2015 को बाबा साहेब की 125 वीं जयंती पर संवैधानिक मूल्यों को प्रमोट करने कि लिहाज से हुई तो यह सवाल पूछना जरूरी हो जाता है कि हमनें मौलिक अधिकारों के निर्वहन और सुरक्षा के लिहाज से संविधान को कितना अपनाया?
जीने का अधिकार
अगर जीने के अधिकार को डिकोड करें तो जीने के लिए मूलभूत जरूरत होती है शुद्ध हवा, शुद्ध पानी और शुद्ध भोजन, साथ में सुरक्षा और न्याय. सवाल उठता है कि क्या हम लोगों को जीने के लिए शुद्ध हवा दे पाए, जवाब है ना. बताते चलें, भारत में मरने वाले हर आठ लोगों में से 1 आदमी प्रदूषित हवा की वजह से मरता है. दुनिया के 30 सबसे प्रदूषित शहरों में भारत के 21 शहर शामिल हैं. 2019 के आंकड़े बताते हैं कि भारत में चलने वाली ये जहरीली हवाऐं हर साल 12 लाख लोगों की जान ले लेती है, जो साल दर साल और जहरीली होती जा रही हैं. ऐसे आपको नहीं लगता कि मूल अधिकरों की सुरक्षा की बात करना भी बेमानी है?
आइए शुद्ध पानी की बात करते हैं. उत्तराखंड से लेकर पश्चिम बंगाल तक, अकेले गंगा के मैदानी इलाकों के दरम्यान पानी में आर्सेनिक के चलते अभी तक 10 लाख लोग अपनी जान गवां चुके हैं. अब गंगा जिसके पानी को अमृत कहा जाता है, उसके किनारे बसे लोगों का ये हाल कैसे ? जवाब है, फैक्ट्रियों से निकलने वाला प्रदूषित पानी, जो नालों के सहारे पहले गंगा में जाता है, और फिर भूगर्भ जल का हिस्सा बनकर मौत का सौदागर बन जाता है. भारत में हर साल साफ पानी न मिलने की वजह से दो लाख लोगों की मौत हो जाती है. यही नहीं, 2030 तक देश की लगभग 60 करोड़ आबादी को जल संकट का सामना करना पड़ सकता है.17 मार्च 2022 को लोकसभा में एक सवाल के जवाब में जल शक्तिम मंत्रालय ने जानाकारी देते हुए बताया कि 2030 तक भारत की लगभग 40 फीसदी आबादी के पास पीने का पानी नहीं होगा. नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में इस समय 1952 के मुकाबले पानी की उपलब्ध ता एक तिहाई ही रह गई है. जबकि इस दौरान आबादी 36 करोड़ से बढ़कर 135 करोड़ पहुंच चुकी है. जल का स्तर लगातार गिर गया है. एक रिपोर्ट के अनुसार जल का स्तर हर साल एक फीट नीचे जा रहा है.
यही बात बाकी तीनों के साथ भी कुछ ऐसी ही शर्तें लागू होती हैं. केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 91 जलाशय ऐसे हैं जिनमें सिर्फ 20 फीसदी पानी ही बचा है. पश्चिम और दक्षिण भारत के जलाशयों में पानी पिछले 10 वर्षों के औसत से भी नीचे चला गया है. जलाशयों में पानी की कमी की वजह से देश का करीब 42 फीसदी हिस्सा सूखाग्रस्त है. अब जब हवा और पानी ही शुद्ध नहीं मिल पाएगी तो शुद्ध व स्वस्थ भोजन की तलाश करना भी अंधेरे में तीर चलाने जैसा है. चुनौति हवा-पानी की नहीं दुषित-हवा पानी की है. जिससे निपटने के लिए सरकारी नहीं व्यक्तिगत प्रयासों की आवश्यकता है.
इसके अलावा शुद्ध और पौष्टिक भोजन का सवाल सामने खड़ा है, 2023 के आंकड़े बताते हैं कि भारत के 100 करोड़ लोग पौष्टिक खाना खाने की स्थिति में नहीं हैं. जाहिर तौर पर इनमें से 85 करोड़ तो वो लोग हैं जिनके लिए सरकार दो जून की रोटी के लिए राशन का इंतजाम करती है. उदाहरण के लिए भारत में प्रति व्यकित फलों की उपलब्धता 172 ग्राम है, जबकि स्विटजरलैंड में ये प्रति व्यक्ति आधा किलो के आस पास है. सवाल ये है कि क्या 172 ग्राम सबको समान तौर पर मिलता है. जवाब है नहीं.
सुरक्षा की बात करें, सिर्फ सड़क दुर्घटना की बात करें तो 2022 की रिपोर्ट के अनुसार देश में हर घंटे 53 एक्सीडेंट होते हैं, और हर घंटे 19 मौत होती हैं, इसी के साथ बीते साल हत्याओं की बात करें तो हर घंटे 82 लोगों की हत्या का आंकड़ा देश की उस तस्वीर को पेश करता है, जिसे देखने से हम बचते हैं.
देश में होने वाली सड़क घटनाओं से पर बात करें लोगों को मिलने वाले न्याय की तो चर्चाऐं आम हैं कि देश की अदालतों में मुकदमों की कुल संख्या लगातार बढ़ते हुए 5 करोड़ का आंकड़ा पार कर चुकी है. इनमें से डेढ़ करोड़ से भी ज्यादा ऐसे में मामले हैं जिन्हें चलते चलते डेढ़ पीढ़ी बीत चुकी है.
मतलब साफ है, ये तो मात्र जीने के अधिकार से संबंधित वो ज़रूरी बाते हैं जिनके अभाव में जीने का अधिकार ही निराधार हो जाता है. ये सारे ही ऐसे मामले हैं जिन्हें लेकर ज़ीरो टॉलरेंस पॉलिसी का होना ज़रूरी है. तो आगे बढ़ते हैं और बात करते हैं एक और मौलिक अधिकार की.
अभिव्यक्ति का आधिकार
अभिव्यक्ति का आधिकार, इसका अर्थ हुआ जहां, हर व्यक्ति को अपनी बात रखने की स्वतंत्रता हो, परिवार से लेकर विश्व तक हो. कम से कम देश तक तो ज़रूर. कोई भी जितनी स्वतंत्रता अपने लिये चाहता है, ज़रूरी है कि वो उतनी ही स्वतंत्रता दूसरों को भी देने के लिए तैयार हो. और बात रखने तक नहीं, वरन उस बात पर सहमति और असहमति का मैकेनिज्म भी बनाया जाना जरूरी है. जाहिर है फिलवक्त अभिव्यक्ति के नाम पर व्यक्ति कुछ भी बोलना चाहता है बेलगाम बोलना चाहता है भूल जाता है यह विशेषाधिकार नहीं समानाधिकार का मामला है. आपको क्या और कितना बोलना है,मेरे विचार से शायद ये सबसे बड़ी योग्यता है, अच्छा होता कि इसे हमारे पाठयक्रम का हिस्सा बनाया गया होता. यहीं बात याद रखना हमारे कर्तव्यव से जुड़ा है कि कुछ भी बोलना कभी भी बोलना और कहीं भी बोलना माहौल को दूषित करता है. अगर हम चाहते हैं कि हमारे आस-पास की हवा, माहौल खुशनुमा बना रहे तो इसके लिए हमें खुद से पहल करनी होगी. कुछ भी बोलने वाली प्रवृति से बचना होगा. और उसे प्रोत्साहन देने वाले संस्थानों पर कड़ी निगरानी रखनी होगी.
संपत्ति का अधिकार
तीसरा, मूल अधिकार होता है, संपत्ति का अधिकार. संपत्ति के दो प्रकार हो सकते हैं, एक व्यक्तिगत, और दूसरा राष्ट्रीय. अगर हम समझना ही चाहें तो आसानी से समझ सकते हैं कि कौन सी संपत्ति व्यक्तिगत है, और कौन सी राष्ट्रीय. मसलन अपने संसाधनों का उपयोग कर जो संपत्ति बनाई गई, वो व्यक्तिगत, और जो राष्ट्रीय संसाधनों का इस्तेमाल कर बनाई गई वो राष्ट्रीय. एक दिलचस्प बात ये भी है कि पूंजीपतियों के पास निजि संपत्ति ना के बराबर होती है, और आम आदमी के पास राष्ट्रीय संपत्ति भी ना के बराबर.
अपने और अपने परिजनों के शारीरिक श्रम से जो कमाई हो, उसे पारिवारिक संपत्ति कहा जा सकता है, इसमें परिवार के हर सदस्य का समान हिस्सा होता है, अगर वो अलग होना चाहता है, तो आदर्श व्यवस्था में उसे उसका, सिर्फ उसका हिस्सा देकर अलग किया जा सकता है. अगर उसकी पत्नी भी परिवार से अलग होती है तो पत्नी का, अगर कोई बच्चा अलग नहीं होना चाहता तो वो अपनी संपत्ति को परिवार में ही रख सकता है.
अगर किसी कमाई में परिजनों ने लेबर का इस्तेमाल किया है, तो उससे होने वाली कमाई के चैथाई हिस्से पर श्रमजीवियों का अधिकार सिद्ध है.
व्यापार का सेंट्रलाइजेशन अनैतिक है, वहीं अगर कोई व्यक्ति राष्ट्रीय संसाधनों मसलन कोयला, लोहा, गैस या किसी भी चीज का दोहन कर बड़ी कंपनी बना लेता है तो वो गेल, भेल,सेल या ओएनजीसी की तरह उस कंपनी का सीईओ तो बन सकता है, मालिक नहीं बन सकता. क्योंकि यह न्याय के सिद्धांत से मेल ही नहीं खाता. तब टाटा, बाटा, इंफोसिस, पतंजलि, अंबानी या अडानी सब अपनी अपनी कंपनी के सीईओ हो सकते हैं, उसके मालिक नहीं हो सकते.
तब वो कंपनी या कंपनियों की कमाई में से सिस्टम द्वारा तय की गई सेलरी ले सकते हैं, और रिटायर होने के बाद पेंशन भी, लेकिन उसे अरबों का घर, करोड़ों की कार, या लाखों के कपड़े पहनने में नहीं लुटा सकते. इसी को गांधी ने ट्रस्टी कहा था, मतलब ऐसे लोग और सरकार भी जिनके उपर नागरिकों को ट्रस्ट हो, भरोसा हो कि वो देश की संपत्ति को लेकर भागेंगे नहीं, चूना नहीं लगाऐंगे, उसे अपने पुरषार्थ से बढ़ाऐंगे ही. ऐसे लोगों को ही उद्योगपति की श्रेणी में रखा जा सकता है. जिनकी निगाहें सरकार से राहत पैकेज लेने की हो, या सिर्फ सब्सिड़ी पर हो, ऐसे लोगों के हाथों में राष्ट्रीय संपत्ति सौंपने से बचना ज़रूरी है.
उनकी सेलरी उनके अकाउंट में जमा हो सकती है, लेकिन कंपनी की कमाई उनके अकाउंट में जमा ना होकर नेशनल अकाउंट में जमा होनी चाहिए. तब वो देश के होनहार कहे जाऐंगे, ये धरती ये आसमान उनका मान करेगा, सम्मान करेगा, गुणगान करेगा. बात रही टैक्स की, तो टैक्स लोगों की सुरक्षा की फीस भर है. इसमें बाहरी और भीतरी दोनों तरह की सुरक्षा शामिल है. अगर समाज भीतरी सुरक्षा को सामाजिक दायित्व के रूप में संभाल ले, तो ये सीमा पार की चुनौति भर है. जिसके लिए सेनाओं का गठन किया जाता है. यानि मजबूत सेना के गठन के लिए जितना जरूरी है, उतना टैक्स. बाकी आय के बड़े हिस्से को सोशल वेलफेयर में लगाने में मदद मिलेगी, सबसे बड़ी ज़रूरत है कि कम से कम लोगों के मूल अधिकार को सुरक्षित किया जाना चाहिए.
निर्णय का अधिकार
ये हमेशा इकाईगत होता है, मतलब व्यक्ति को अपने व्यक्तिगत मामलों में निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए, उसी तरह से परिवार को पारिवारिक, गांव को गांव, ब्लॉक को ब्लॉक, जिले को जिला, राज्य को राज्य और देश को देश के मामलों में निर्णय का अधिकार हो तो मूल अधिकार सौंपने की गारंटी साक्षात होने लगती है.
समझने के लिए व्यक्ति अगर अपने किसी निर्णय को व्यक्तिगत मान ले, और परिवार उससे सहमत ना हो तो उसे परिवार उसी क्षण छोड़ देना चाहिए. मगर उससे निर्णय का सम्मान करते हुए उसे ससम्मान पारिवारिक संपत्ति के कुल शेयरों में से एक शेयर देकर विदा किया जाना चाहिए. मतलब अगर कोई बालिग युवक या युवती परिवार की सहमति के परे शादी करने का फैसला ले ले, और परिवार युवक को अपने साथ रखने के लिए तैयार ना हो या युवती के फैसले से सहमत ना हो तो दोनों को उनके उनके हिस्से का शेयर देकर विदा किया जाना चाहिए. मतलब अगर किसी 10 सदस्यों वाले घर में 10 एकड़ ज़मीन है या फिर 10 करोड़ रुपया है तो हर सदस्य का उसके एक शेयर यानि दसवें हिस्से पर समान अधिकार सिद्ध है, क्योंकि संपत्ति हमेशा व्यक्तिगत ही होती है, उसे पारिवारिक तो बनाया जाता है, वजह, परिवार के लोगों का भावनात्मक तौर पर एक दूसरे से गहरे तक जुड़े रहना. इससे उसकी संपत्ति की संभाल और सुरक्षा भी हो पाती है. परंतु व्यक्ति का निर्णय सर्वोपरि है.
यही निर्णय परिवार को पारिवारिक मामलों में, ब्लॉक को ब्लॉक के मामलों में, जिले को जिले, राज्य को राज्य और देश को देश के मामलों में लेना को निर्णय लेने का अधिकार होना ज़रूरी है, लेकिन सबसे महत्व की बात ये है कि निर्णय इनमें से किसी भी इकाई पर हो, लेकिन उस निर्णय प्रक्रिया में व्यक्ति के निर्णय को अंगीकार किया जाना उसका प्राकृतिक अधिकार भी है, और संवैधानिक भी.
हालांकि यह सिर्फ कल्पना मात्र है जो भारत जैसे विशाल विविधता वाले देश में फिलवक्त तर्क वितर्क की भेंट यह कहकर चढ़ सकती है कि इतनी आदर्श व्यवस्था भारत जैसे संसदीय लोकतंत्र में संभव ही नहीं. गौरतलब है कि कोई भी व्यवस्था तब तक आदर्श हो सकती है जब तक उसके व्यवस्थापक नैतिकता, ईमानदारी, कर्तव्य, पारदर्शिता की कसौटी पर खरे उतरते रहेंगे. एक आदर्श व्यवस्था औऱ स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि हर जन मानस द्वारा मौलिक अधिकारों को लेकर दिमागी संघर्ष किया जाए ताकि उसकी उलक्षी हुई गुत्थी को सुलझाया जा सके.
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