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(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)

हनुमान चलीसा के खिलाफ मंदिरों के आगे क़ुरान के पाठ की धमकी, AMU की धरती को किसकी नजर लग गई!

उत्तर प्रदेश का अलीगढ़ शहर दो चीजों के लिए जाना जाता है- अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और ताला निर्माण उद्योग. अलीगढ़ यूनिवर्सिटी टाउन है जो ए.एम.यू के लिए उल्लेखनीय है जिसकी स्थापना यहां पर 1875 में मोहम्मडेन ऐंग्लो ओरियंटल कॉलेज के रूप में की गई थी जिसके फलस्वरूप अलीगढ़ आंदोलन की शुरुआत हुई. इंग्लैंड के सुप्रसिद्ध स्कॉटिश प्राच्यवादी सर हैमिल्टन गिब ने ऑक्सफोर्ड और हार्वर्ड विश्वविद्यालयों में पढ़ाया था. उन्होंने इस कॉलेज को इस्लाम का पहला आधुनिकतावादी इदारा क़रार दिया था.
 
पिछले हफ़्ते अलीगढ़ ग़लत वजहों के लिए अख़बारों की सुर्खि़यों में था. समाजवादी पार्टी की रुबीना खान ने यूपी की सरकार पर यह आरोप लगाते हुए कहा कि अज़ान के लिए लाउडस्पीकरों के प्रयोग पर बैन लगाने की मांग से वे मुसलमानों पर निशाना साध रहे हैं और कहा कि यदि हिंदू कार्यकर्ताओं ने चौराहों पर हनुमान चालीसा का पाठ किया तो मुस्लिम औरतें मंदिरों के आगे क़ुरान का पाठ करेंगी. रुबीना और उनके गुट की अन्य औरतें इस्लाम के साथ और अपने साथ भी सच्चा इंसाफ करेंगी अगर वे क़ुरान की आयतों को उनके हिंदी उर्दू अर्थ के साथ पढें. तब उन्हें समझ आयेगा कि इस्लाम का मतलब होता है शांति न कि तकरार. इसके अलावा उन्हें तब इस्लाम द्वारा दिए गए अपने उन अधिकारों के बारे में भी पता चलेगा जिनसे उनके मर्द अक्सर पितृसत्ता के नाम पर उन्हें वंचित रखते हैं. वे यह भी जान पाएंगी कि कुरान इस बात का विधान करती है कि औरतों को पिता की संपत्ति से दाय भाग के अधिकार मिलने चाहिए लेकिन फिर भी फेडरल असेंबली ने ख़ुद मुसलमानों की ही पहल पर 1937 में पारित शरिया एक्ट के द्वारा उन्हें कृषि वाली भूमि को विरासत में हासिल करने से वंचित कर दिया था. 

शरिया क़ानून में एक ग़ैर इस्लामी (हिंदू) पारंपरिक क़ानून को शामिल किया गया जिससे कि औरतें कृषि वाली ज़मीन में हिस्सा पाने से वंचित रहें (ऐसा पंजाबी मुस्लिम ज़मींदारों के दबाव में किया गया) ऐसा करना जेंडर न्याय के क़ुरान के आदर्श के विरुद्ध था. जबकि शरिया ऐक्ट का मक़सद औरतों के संपत्ति संबंधी अधिकारों को बढ़ाना था लेकिन उसने इस मकसद को पूरा करने में कोई मदद नहीं की. इस प्रकार इस ऐक्ट ने ताक़तवर पंजाबी ज़मींदारों को नाराज़ किए बग़ैर मुसलमानों की मुस्लिम अस्मिता की पुष्टि करने का राजनैतिक काम किया. हालांकि बाद में आंध्र प्रदेश, असम, गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु एवं पश्चिम बंगाल की राज्य सरकारों ने लड़कियों और औरतों को कृषि संबंधी संपत्ति में हिस्सा दिलाने की ख़ातिर इसमें संशोधन किया लेकिन लेकिन हक़ीक़त में उनको उनका हिस्सा नहीं दिया जाता. मुसलमान औरतों का यह समूह अपने से क़ुरान को पढ़कर यह बात समझ पाएगा कि कैसे उनके आर्थिक अधिकारों को उनके मर्दों द्वारा छीना गया है. समाजवादी पार्टी और उनके महिला दल अलीगढ़ में शांति और साम्प्रदायिक सद्भाव बनाए रखने में तो मदद नहीं करेंगे अलबत्ता यूपी की पहले से ही नाज़ुक क़ानून व्यवस्था को बिगाड़ने में ज़रूर मदद करेंगे. 

ए.एम.यू की चुप्पी

रुबीना के मंसूबों पर एएमयू के बुद्धिजीवियों का पूरी तरह चुप्पी लगा जाना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है. वे रुबीना खान के राजनैतिक इरादों की भर्त्सना न करने के दोषी हैं. यह समय हिंदुत्व राजनीति के कारण मुश्किल दौर से गुज़र रहे इस समुदाय के घावों पर मलहम रखने का है न कि सांप्रदायिक नफ़रत और दुश्मनी की आग को भड़काने का. एएमयू के छात्रों, शिक्षकों और बुद्धिजीवियों को न सिर्फ मंदिरों के आगे क़ुरान का पाठ करने की रुबीना की योजना की निंदा करनी चाहिए थी बल्कि उनको मुस्लिम उलेमाओं से अपील करनी चाहिए थी कि वे अज़ान के लिए लाउडस्पीकरों के इस्तेमाल की प्रथा रोक दें अगर इससे समाज में शांति और सौहार्द बनाए रखने में मदद मिलती हो. ए.एम.यू के संस्थापक सर सय्यद अहमद खां की तरह उन्हें भी मौजूदा समस्याओं को सुलझाने के लिए तार्किक रवैया अपनाना चाहिए. सर सय्यद ने कुरान की कहानियों की व्याख्या करने के लिए तार्किक तरीक़ा ही अपनाया था. मिसाल के तौर पर उनका कहना था कि पैग़म्बर मोहम्मद मेराज के दौरान शारीरिक तौर पर जन्नतनशीन नहीं हुए थे बल्कि उनका सफ़र आध्यात्मिक था भौतिक नहीं. इस वैज्ञानिक और तार्किक व्याख्या के लिए उलेमाओं और धार्मिक विद्वानों ने उन्हें काफिर/ ईमान न लाने वाला घोषित किया था यहां तक कि इस्लामी इदारे दारुल उलूम देवबंद ने भी यही किया था.

हिंदू मुस्लिम एकता 

सर सय्यद अहमद खां पूरी ज़िंदगी हिंदू मुस्लिम एकता के लिए समर्पित रहे. उनके लिए मेयो कॉलेज (1875 में स्थापित और अब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय) बेशक मुस्लिम इदारा था लेकिन वह सिर्फ मुसलमानों के लिए नहीं था. डे स्कॉलरों और बोर्डरों के रूप में इसमें शामिल होने के लिए हिंदुओं का स्वागत किया जाता था और उन्हें मुसलमानों के लिए बाध्यकारी नियमों एवं धार्मिक कोर्सों से छूट मिलती थी. हिंदुओं का विश्वास जीतने के लिए सर सय्यद ने कैंपस में गायों के काटे जाने पर रोक लगा दी थी. यह बहुत दिलचस्प बात है कि कॉलेज के शुरुआती दिनों में हिंदू छात्रों की तादाद मुस्लिम छात्रों से ज़्यादा थी. सर सय्यद ने कहा था कि मेओ कॉलेज में हिंदू और मुसलमानों को स्कॉलरशिप हासिल करने का बराबर का हक़ है. जब 1882 में अमृतसर के कुछ मुस्लिम विद्वानों ने बी.ए. की परीक्षा पहले दर्जे में पास करने वाले एक छात्र को गोल्ड मेडल देने की पेशकश की तो सर सय्यद ने फौरन मेओ कॉलेज के प्रिंसिपल को लिखा कि, ‘अगला जो हिंदू छात्र बी.ए. की परीक्षा पहले दर्जे में पास करेगा मैं उसको अपने पैसों से गोल्ड मेडल दूंगा. मरहूम प्रो के ए निज़ामी इस सिलसिले में फ़रमाते हैं कि अपनी सारी ज़िंदगी सर सय्यद हिंदू मुस्लिम एकता के लिए डटे रहे और हिंदुस्तान के सभी लोगों की बेहतरी के लिए काम करते रहे.

हिंदू मुस्लिम एकता उन चंदों में भी दिखती है जो दोनों समुदायों के लोगों से प्राप्त होते रहे. जब मेओ कॉलेज के लिए चंदा जमा करने के अभियान की शुरुआत हुई तो बहुत बड़ी संख्या में उनके हिंदू दोस्तों ने इसमें योगदान दिया. बनारस, विजयनगरम तथा पटियाला के राजाओं ने कॉलेज फंड में काफ़ी बड़ी राशियां दीं.  यह ध्यान देने की बात है कि अलवर के महाराजा ने धर्मशास्त्र के विभाग के लिए 1925 में पांच साल तक 8000 रुपए प्रति वर्ष देने की घोषणा की थी जबकि इस विभाग में केवल सुन्नी और शिया धर्मशास्त्र पढ़ाए जाते थे. हैदराबाद के वज़ीर ए आज़म और वहां के आख़िरी निज़ाम मीर उस्मान अली खान ने भी कॉलेज को चंदे दिए. 

लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल बंद किया जा सकता है

मुस्लिम उलेमाओं और ए.एम.यू समुदाय को अपने लोगों से अज़ान देने के लिए लाउडस्पीकरों के इस्तेमाल को बंद करने की अपील करनी चाहिए. यह नोट करने की बात है कि लाउडस्पीकरों का आविष्कार पैग़म्बर मोहम्मद के वक़्त में नहीं हुआ था. इनका आविष्कार या निर्माण पहली बार 1925 में हुआ था. सत्तर के दशक में हिंदुस्तानी उलेमाओं के बीच में इस चीज़ को लेकर बहुत ज़बरदस्त बहस चल रही थी कि लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल अज़ान के लिए करना चाहिए या नहीं. उस वक़्त कई पारंपरिक लोगों ने कहा था कि इसका प्रयोग ग़ैर इस्लामी है क्योंकि शरिआ ने इसका प्रयोग करने या न करने के बारे में कुछ नहीं कहा है.

आज हम मानवाधिकारों के युग में रहते हैं. हर व्यक्ति चाहे वो किसी भी धर्म, जाति, रंग, राष्ट्रीयता,नस्ल या भाषा का हो उसको निश्चित रूप से इस बात का अधिकार है कि वो अपने अविच्छेद्य मौलिक अधिकारों का प्रयोग करे. साथ ही मानवाधिकारों की अवधारणा से जुड़े विधिशास्त्र ने इस बात की बार बार पुष्टि की है कि मानवाधिकार पूर्ण और असीमित नहीं होते, वे तर्कसंगत प्रतिबंधों के अधीन होते हैं. हर व्यक्ति पर वही प्रतिबंध लागू होंगे जो क़ानून द्वारा केवल दूसरों की आज़ादी को विधिवत रूप से मान्यता देने और उनका सम्मान करने के लिए और नैतिकता, क़ानून व्यवस्था और आम कल्याण की जायज़ माँगो को पूरा करने हेतु क़ानून द्वारा निर्धारित किए जाएँगे. इसके अलावा अपने साथी नागरिकों के प्रति और दूसरे समुदायों के प्रति सबके कर्तव्य भी होते हैं. असल में अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. 
   
धर्मनिर्पेक्ष भारत के नागरिक होने के नाते हमें अपने संविधान में, मौलिक अधिकारों में और उसमें प्रतिष्ठापित मौलिक कर्तव्यों में भरोसा होना चाहिए. अनुच्छेद 51 ए के अंतर्गत 11 मौलिक अधिकारों में से तीन ऐसे हैं जो हिंदू मुस्लिम एकता और सांप्रदायिक सौहार्द को सुनिश्चित करने के लिए सबसे मौलिक हैं.  ये हैंः (क) भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसको अक्षुष्ण रखे, (ख) भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभावों से परे हो (ग) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानरंजन तथा सुधार की भावना का विकास करे.

मुसलमानों का क्या करना चाहिए?

भाजपा और संघ परिवार के सदस्यों द्वारा अपने राजनैतिक फ़ायदों के लिए भारतीय समाज के ध्रुवीकरण के मिशन के तहत जानबूझकर उठाए जा रहे लाउडस्पीकर या सार्वजनिक जगहों पर हिजाब के इस्तेमाल जैसे मौजूदा विवादों से निपटने के लिए भारतीय मुसलमानों को सहिष्णुता की भावना से काम लेना चाहिए और दूसरों के धर्मों के प्रति सम्मान दिखाना चाहिए। भारतीय मुसलमानों को पता होना चाहिए कि दुनिया में भारतीय पहले लोग थे जिन्होंने औरतों के राजनैतिक अधिकारों की उदारतापूर्वक व्याख्या करते हुए रज़िया सुल्ताना को तेरहवीं शताब्दी में बादशाह बनने दिया. यह उदार व्याख्या इस बात पर आधारित थी कि क़ुरान कहीं भी स्पष्ट तौर पर किसी महिला को देश का शासक बनने की मनाही नहीं करती है. यही मुख्य वजह थी कि १९८० के दशक में श्रीमती बेनज़ीर भुट्टो पूरे मुस्लिम जगत की पहली महिला राष्ट्राध्यक्ष बनीं. यदि भारतीय मुसलमान निम्नलिखित दो बातें करते हैं तो वे भाजपा की ध्रुवीकरणपरक रणनीतियों को परास्त कर सकते हैं. 

पहली, पूरे भारत के मुसलमानों को लाउडस्पीकर विवाद के बारे में तार्किक एवं व्यावहारिक रवैया अपनाते हुए मस्जिदों से लाउडस्पीकरों को स्थाई रूप से हटाने का फ़ैसला करना चाहिए। १७ मई २०२२ को साउदी अरब के इस्लामी मामलों, निगरानी और गाइडेंस मंत्री शेख़ अब्दुल लतीफ बिन अब्दुलअज़ीज़ अल-शेख़ ने साउदी अरब के सभी इलाक़ों में अपने मंत्रालय की शाखाओं के लिए सर्कुलर जारी किया उनको यह निर्देश देते हुए कि वे ईमान वालों को नमाज़ के लिए बुलाने के लिए बाहरी लाउडस्पीकरों के इस्तेमाल को कम करें. इसके अलावा यह भी कहा गया कि लाउस्पीकर की वॉल्यूम उसकी फ़ुल वॉल्यूम की एक तिहाई से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए. मंत्री ने चेतावनी भी दी कि जो कोई भी सर्कुलर का उल्लंघन करेगा उसके खि़लाफ  नियमों के तहत क़दम उठाए जाएँगे. सर्कुलर में कहा गया था कि लाउडस्पीकर मस्जिद के आसपास के इलाक़े के मरीज़ों, बुजु़र्गों और बच्चों को नुक़सान पहुँचाते हैं. भारतीय मुसलमान एक क़दम औऱ आगे बढ़कर स्वेच्छा से मस्जिदों से स्पीकर हटा सकते हैं जिससे कि इस मुद्दे को राजनैतिक रंग देने की भाजपा की कोशिश ही बेकार हो जाए। याद रखिए जब साउदी अरब एक मुस्लिम बहुल देश होते हुए लाउस्पीकर के इस्तेमाल पर बंदिशें लगा सकता है तो भारतीय मुसलमानों को तो दूसरे धार्मिक समूहों के प्रति और ज़्यादा संवेदनशील होना चाहिए चूँकि भारत अनेक धर्मों वाला देश है. चूँकि नमाज़ के दौरान क़ुरान से पढ़ी जाने वाली आयतें बिना लाउस्पीकर के ही पढ़ी जाती हैं जिससे दूसरे लोग डिस्टर्ब नहीं होते इसलिए अज़ान भी नीची आवाज़ में होनी चाहिए.

मुस्लिम समुदाय को भाजपा द्वारा उठाए जा रहे युनिफॉर्म सिविल कोड वाले मुद्दे का मुक़ाबला करने के लिए अपने कुछ फ़ैमिली क़ानूनों में भी सुधार करना चाहिए। उनको एक विवाह प्रथा को शुरु करने के लिए अपने विवाह संबंधी क़ानूनों में संशोधन करना चाहिए. ट्यूनिशिया जैसे मुस्लिम देश ने बहुविवाहप्रथा को बैन कर दिया है. भाजपा यूसीसी के मुद्दे को इस मिथ के आधार पर उठा रही है कि अधिकांश मुसलमानों के एक से ज़्यादा बीवियाँ होती हैं. जनगणना के आँकड़े इस मिथ को ग़लत साबित करते हैं. जनगणना के आँकड़ों के अनुसार जैनियों में बहुविवाह प्रथा सबसे ज़्यादा है मुसलमानों में नहीं.

हालाँकि इस्लाम चार बीवियों तक बहुविवाह प्रथा की अनुमति देता है, लेकिन ऐसा सिर्फ़ इस शर्त पर हो सकता है कि चारों के साथ बिलुकल एक जैसा सलूक हो. लेकिन व्यवहार में हम देखते हैं कि दुनिया भर के ज़्यादातर मुसलमानों में इस शर्त को सब जगह नहीं माना जाता. अल्लाह कुरान में इस बात की चेतावनी देता है कि, ‘अगर तुम डरते हो कि तुम सबके साथ इंसाफ नहीं कर पाओगे तो सिर्फ एक से ही शादी करो.’ ( ज़ोर मेरा है ) (अध्याय 4,  सूरा 4 ) दूसरी जगह पर अल्लाह आगाह करता हैः ‘चाहे तुम कितना भी चाहो लेकिन तुम औरतों के बीच इंसाफ नहीं कर सकते.’ (अध्याय 4, सूरा 3 और 129) बहुविवाह प्रथा आम नियम नहीं है, यह सिर्फ एक ज़रूरी और उभरता हुआ प्रावधान था जो उच्च सामाजिक मूल्यों को बनाए रखने और उन्हें बढ़ावा देने के लिए ( जिसमें बेवाओं और अनाथों की शादी कराना शामिल था ) और समाज को स्वरैचार से बचाने के लिए बनाया गया था. बेशक, इस इजाज़त का नाजायज़ फायदा उठाया गया है लेकिन कई मुस्लिम देश इस तरह के नाजायज़ इस्तेमाल को ख़त्म करने के लिए विवाह की संस्था का क़ानूनी विनियमन करने की कोशिश कर रहे हैं. मिस्र ने 1920, 1923 और 1929 में अपने विवाह संबंधी क़ानूनों में संशोधन किया और 1956 में शरिया अदालतों को रद्द कर दिया.

इसी तरह से सर सय्यद अहमद खां का तार्किक तरीक़ा अपनाते हुए आज के मुसलमानों को जेंडर जस्टिस लाने के लिए इस्लामी क़ानूनों की पुनर्व्याख्या करनी चाहिए. ऐसे क़दमों से राजनैतिक फ़ायदे के लिए धर्म का दुरुपयोग करने की भाजपा की रणनीति का मुक़ाबला किया जा सकेगा.

निष्कर्षः 

निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि समाजवादी पार्टी के अनुमोदन से हिंदू मंदिरों के आगे क़ुरान की आयतों का पाठ करने के रुबीना खान के विवादास्पद फैसले को बर्दाश्त करके अलीगढ़ के मुसलमानों और खास तौर पर एमयू के मुसलमानों ने सर हैमिल्टन गिब को ग़लत साबित कर दिया जिन्होंने एएमयू को पूरी इस्लामी दुनिया का पहला आधुनिकतावादी इदारा माना था. इतना ही नहीं उन्होंने ज़ाकिर हुसैन ( भारत रत्न और भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति और एएमयू के पूर्व छात्र) ने अलीगढ़ के बारे में जो कहा था उसे सौ फीसदी सही साबित कर दियाः अलीगढ़ ( मुस्लिम विश्वविद्यालय ) जिस तरह से काम करता है, अलीगढ़ जिस तरह से सोचता है, भारतीय जीवन को अलीगढ़ जो योगदान देता है बहुत हद तक वही यह तय करेगा कि भारतीय जीवन पद्धति में मुसलमानों की जगह क्या होगी.

[नोट: लेखक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के भूतपूर्व प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष हैं. यह लेख अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ था इसका हिंदी अनुवाद जामिया मिल्लिया इस्लामिया के हिंदी विभाग के असोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ. विवेक दुबे ने किया है. उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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