बिहार की तीन सीटों पर पेंच, सीवान-पूर्वी चंपारण पर INDIA गठबंधन चिंतित, काराकाट NDA पर भारी
![बिहार की तीन सीटों पर पेंच, सीवान-पूर्वी चंपारण पर INDIA गठबंधन चिंतित, काराकाट NDA पर भारी Three seats in Bihar are very dicey for INDIA alliance and NDA is loving this बिहार की तीन सीटों पर पेंच, सीवान-पूर्वी चंपारण पर INDIA गठबंधन चिंतित, काराकाट NDA पर भारी](https://feeds.abplive.com/onecms/images/uploaded-images/2024/04/13/6d8731235d2a95fa76118f8f4cc5c2d81712991911310702_original.jpg?impolicy=abp_cdn&imwidth=1200&height=675)
चुनावी घमासान के आज की तारीख तक, बिहार की दो सीटें ऐसी हैं, जिसे ले कर भारी सस्पेंस बना हुआ है. ये सीटें हैं, सीवान और पूर्वी चंपारण. सीवान से अभी तक राजद ने और पूर्वी चंपारण से अभी तक वी आई पी ने अपना उम्मीदवार घोषित नहीं किया है. सीवान से हिना शहाब के चुनाव लड़ने की चर्चा है जबकि अवध बिहारी चौधरी को वहां से चुनाव लड़ने के लिए राजद से ग्रीन सिग्नल तो मिल चुका है, लेकिन सिंबल अभी तक नहीं मिला है. वहीं, पूर्वी चंपारण से भाजपा ने अपने कद्दावर नेता राधामोहन सिंह को दसवीं बार चुनावी मैदान में उतार दिया है, लेकिन वीआईपी अभी तक अपना उम्मीदवार तय नहीं कर सकी है. रोजाना एक नया नाम उभर रहा है, लेकिन फाइनल “डील” अब तक नहीं हो सकी है. वहीं, काराकाट एक ऐसी सीट है, जहां अब त्रिकोणीय मुकाबले की उम्मीद बनी है.
किधर बहेंगे पवन!
धरती से भारी मां होती है और मां से किया वादा आखिर कोई कैसे तोड़ सकता है. इसी वजह से पवन सिंह इस बार चुनावी मैदान में हैं, लेकिन बात सिर्फ वादे की ही है या इरादे की भी? आखिर आसनसोल से भाजपा का टिकट छोड़ कर काराकाट से चुनाव लड़ने के पीछे पवन सिंह का इरादा क्या है? वे एनडीए कैंडिडेट को जिताना चाहते है या हराना? आखिर वे किसके इशारे पर चुनावी मैदान में है? अब तो यह भी खबर आ रही है कि वे बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ सकते हैं. कुछ विश्लेषकों का यह भी कहना है कि भाजपा उपेन्द्र कुशवाहा को सबका सिखाना चाहती है, इसलिए पवन सिंह भाजपा के इशारे पर चुनाव लड़ रहे हैं और अपनी जाति के वोट वे काटेंगे. लेकिन, यह एक कोरी कल्पना भर लगती है. आखिर, एनडीए अपनी एक सीट क्यों कम करना चाहेगी और उपेन्द्र कुशवाहा की स्थिति इस वक्त ऐसी है कि वे वहीं करेंगे जो भाजपा उनसे करने को कहेगी.
एनडीए की बढ़ेंगी मुश्किलें
काराकाट कुशवाहा बहुल क्षेत्र है. नई सीट है. तीन चुनाव हो चुके है और तीनों बार वहाँ से कुशवाहा जाति के उम्मीदवारों की ही जीत हुई है. यह सीट पिछली बार जद(यू) के खाते में थी लेकिन इस बार यह सीट उपेन्द्र कुशवाहा को मिल गयी है. उनके मुकाबाले भाकपा(माले) के राजाराम सिंह है. और मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने के लिए पवन सिंह भी अब मैदान में हैं. जातिगत आंकडे़ के हिसाब से इस क्षेत्र में राजपूत, कुशवाहा, यादव जाति के मतदाताओं की संख्या अच्छी-खासी है. इसके 6 विधानसभा क्षेत्रों पर महागठबंधन का कब्जा है. जिसमें से 5 पर राजद और एक पर भाकपा(माले) काबिज है. इस लिहाज से महागठबंधन की स्थिति काफी मजबूत मानी जा सकती है. दूसरी तरफ, पवन सिंह के आने से राजपूत मतदाताओं का वोट उन्हें मिलेगा, जो कहीं न कहीं उपेन्द्र कुशवाहा (एनडीए-भाजपा) के लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है क्योंकि आमतौर पर यह माना जाता है कि सवर्ण वोटर्स भाजपा या भाजपा समर्थित उम्मीदवारों के समर्थन में रहते हैं. अगर ऐसा होता है तब अति-पिछड़ों, दलितों, यादवों का वोट महत्वपूर्ण हो जाएगा क्योंकि बाकी के दोनों उम्मीदवार कुशवाहा जाति से हैं और निश्चित ही दोनों इस मतदाता वर्ग में घुसपैठ करेंगे. फिर निर्णायक वोट दलितों, अतिपिछड़ों और यादवों का ही होगा. अब यह देखना होगा कि क्या राजद अपना वोट बैंक पूरी तरह से राजा राम सिंह कुशवाहा (भाकपा (माले)) के पक्ष में शिफ्ट करवा पाती है. अगर ऐसा हो जाता है तो निश्चित ही पवन सिंह एनडीए उम्मीदवार उपेन्द्र कुशवाहा के लिए एक भारी सिरदर्द साबित हो सकते हैं.
बिन शहाबुद्दीन, शहाब कितनी ताकतवर!
पिछले तीन लोकसभा चुनाव हिना शहाब राजद के टिकट पर लड़ कर हार चुकी है, तब भी तब जब मोहम्मद शहाबुद्दीन जीवित थे. अब 2024 में हिना शहाब निर्दलीय लड़ कर क्या कर सकती है? हालांकि, यह सवाल देखने में जितना आसान लगता है, मामला इतना सरल नहीं है. सवाल “माई” का है. सवाल “बेटी” का है. और यही वजह है कि लालू यादव अब तक सीवान का टिकता फाइनल नहीं कर सके हैं जबकि राजद के वरिष्ठ नेता अवध बिहारी चौधरी पहले से ही चुनाव प्रचार में उतर चुके हैं, लेकिन अभी तक उन्हें सिंबल नहीं मिलना बहुत कुछ कहता है. अंदरखाने यह खबर थी कि लालू यादव एक बार फिर से हिना शहाब को टिकत देने के मूड में थे लेकिन तेजस्वी इसके खिलाफ थे. हिना शहाब ने साफ़ कर दिया है (अब तक की स्थिति) कि वे निर्दलीय लड़ेंगी. पप्पू यादव ने उन्हें अपना समर्थन दिया है और ओवैसी ने भी उन्हें समर्थन देने की बात कही है. यही से मामला उलझाऊ हो जाता है, जिससे कहीं न कहीं राजद भ्रम की स्थिति में है.
हिना शहाब हारती हैं या जीतती हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है लेकिन वह सीवान समेत पूरे बिहार के अल्पसंख्यकों के बीच शायद यह मैसेज देने में सफल हो सकती है कि उनके पति के साथ राजद के लोगों ने न्याय नहीं किया, साथ नहीं दिया. साथ ही पप्पू यादव अगर उनके समर्थन में उतर कर सीवान में रैली कर देते है तो फिर “माई” समीकरण को डेंट लगाने का खतरा रहेगा. फिर इसका असर पड़ोस के सारण पर भी होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है. तो इस हिसाब से “बेटी” के चुनाव पर भी खतरा आ सकता है. यह सब देखते हुए, महसूस करते हुए ही शायद लालू प्रसाद यादव सीवान को ले कर अब तक (13 अप्रैल) भ्रम की हालत में हैं कि आखिर सीवान का क्या किया जाए.
पूर्वी चंपारण: वाक ओवर या कठिन फाइट!
यह एक ऐसा लोकसभा क्षेत्र है, जहां से पूर्व केन्द्रीय मंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता राधामोहन सिंह दसवीं बार चुनाव लड़ रहे है. जाहिर हैं, वे अपनी जीत को ले कर आशान्वित तो हैं लेकिन, जब से यह सीट राजद ने वीआईपी को दिया है, तब से यहाँ एक अजीब किस्म की कशमकश चल रही है. रोज एक नया नाम सामने आ रहा है. इससे न सिर्फ विपक्ष बल्कि निर्वर्तमान सांसद भी कन्फ्यूज्ड होंगे, भले वह कन्फ्यूजन उपरी तौर पर न दिख रहा हो. इस क्षेत्र में महागठबंधन की तरफ से अब तक कोइ दमदार उम्मीदवार सामने दावेदारी करने नहीं आया है जो इतने वरिष्ठ नेता को एक फाइट तक दे सके. विश्लेषकों का मानना है कि यहाँ राधामोहन सिंह के लिए चुनाव केकवॉक है, यानी उनके सामने कोई है ही नहीं. हालांकि, राजनीति इतनी आसान नहीं होती और अतिआत्मविश्वास राजनीति में कई बार भारी पड जाता है. शायद यही वजह है कि राधामोहन सिंह को यह कहना पडा कि मुकेश सहनी अगर निषाद हितैषी है तो वे किसी निषाद (सहनी) को टिकट दे कर दिखाएं. इसके पीछे वजह है कि वे मुकेश सहनी को बैक फुट पर लाना चाहते है. जबकि सच्चाई यह है कि इस क्षेत्र से अगर ऐसे किसी भूमिहार या वैश्य उम्मीदवार को मुकेश सहनी टिकट देते हैं जो साम-दाम-दंड-भेद का माहिर खिलाड़ी हो तो फिर राधामोहन सिंह के लिए यह चुनाव एक कड़ी टक्कर में बदल सकता है. इसी तर्ज पर रोज एक नया नाम आ रहा है. दो नाम तो ऐसे आए, जिनका कनेक्शन भाजपा से रहा है, बाकी राजद से जुड़े लोगों के नाम भी आ रहे हैं. लेकिन, भाजपा से जुड़े जिन दो लोगों के नाम सामने आए हैं, उनमें से किसी को भी अगर टिकट मिलता है तो यहाँ की लड़ाई काफी टफ हो सकती है. इनमें से एक पूर्व भाजपा सांसद हैं और एक भाजपा के पुराने समर्पित और लोकप्रिय कार्यकर्ता हैं. दोनों उस जातिगत समीकरण में भी फिट बैठते हैं.
बिहार का चुनाव इस बार थोड़ा अलग होने वाला हैं. हालांकि, जो स्थिति 1 महीना पहले तक थी, यानी महागठबंधन जितनी मजबूत स्थिति में थी, वह स्थिति थोड़ी कमजोर हुई है. और इस वजह से कि टिकट वितरण में कहीं न कहीं “डील” की भूमिका हावी रही. अब यह “डील” सफल होती है या “नो डील” में बदल जाती है, 4 जून को तय हो जाएगा.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]
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