दुनिया में सब कुछ तेजी से बदल रहा है. इसमें तकनीक से लेकर जीवन शैली का हर पहलू शामिल है. दुनिया की तरह भारत में भी बहुत कुछ बदल रहा है. बदलना भी चाहिए. लक्ष्य भी बदल गया है. सोशल मीडिया से दुनिया में जिस तरह से पिछले 15 से 20 साल में बदलाव आया है, ऐसा त्वरित बदलाव किसी और दौर में कभी नहीं देखा गया था.


भारत भी इन बदलावों से अछूता नहीं है, लेकिन हम जिस तेजी से दुनिया की सबसे ताकतवर आर्थिक ताकत बनते जा रहें, उसके लिहाज़ से अब बड़े बदलाव का वक्त आ गया है. भारत में राजनीतिक और मीडिया विमर्श बदलने का वक्त आ गया है और अगर हमने ऐसा नहीं किया तो 2047 तक विकसित राष्ट्र के तौर पर भारत में सिर्फ़ आर्थिक वृद्धि होगी, विकास का पुट उसमें गायब रहेगा.


सबसे पहले बात करते हैं राजनीतिक विमर्श की. आजादी के बाद से ही भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली में राजनीतिक विमर्श को सिर्फ़ चुनावी राजनीति तक सीमित रखा गया है. देशभर में राजनीति विमर्श का यही मायने ही रहा है कि भारत के नागरिक चुनावी नफा-नुकसान पर बात करते रहे हैं और चुनाव दर चुनाव सिर्फ़ सरकार बनने या बदलने को ही राजनीतिक विमर्श मानते रहे हैं. लेकिन अब वक्त आ गया है कि देश की जनता इस बात को समझे कि राजनीतिक विमर्श का ये सिर्फ़ संकुचित रूप है, जिससे मुख्य तौर पर सिर्फ़ राजनीतिक दलों और राजनेताओं के हितों की ही पूर्ति होते रही हैं.


देश के नागरिक राजनीति विमर्श के केंद्र में होने चाहिए थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ, राजनीतिक विमर्श के केंद्र में पिछले 75 साल से राजनेता रहे हैं. संविधान में इस तरह के राजनीतिक विमर्श का जिक्र कतई नहीं है और न ही सैद्धांतिक तौर पर संविधान की ये मूल भावना है. लेकिन आजादी के बाद से ही राजनीतिक विमर्श को चुनावी राजनीति और राजनीतिक दलों-नेताओं तक सीमित कर दिया गया है. हालांकि सैद्धांतिक तौर से हर लोग यही कहता आया है कि राजनीतिक विमर्श के केंद्र में आम लोग ही रहे हैं, लेकिन सच्चाई ये है कि व्यवहार की धरातल पर ऐसा नहीं है.


देश नागरिकों से बनता है, राजनीतिक विमर्श की सबसे पहली शर्त ये होनी चाहिए. लेकिन बिल्कुल इसके विपरीत होते रहा है. उस राजनीतिक विमर्श के तहत हम सबको ये बताया या समझाया गया कि चाहे नागरिक खुश रहें या नहीं रहें, देश के लिए त्याग-बलिदान की भावना का आवरण ओढ़ चुनावी राजनीति का हिस्सा बनकर राजनेताओं को सर्वोपरि मानते रहें. 


इन 75 साल में भारत ने आर्थिक मोर्च पर सफलता के कई नए प्रतिमान गढ़े हैं, लेकिन इन प्रतिमान में आम लोग या देश के नागरिकों की जगह शायद गौण रही है. अगर ऐसा नहीं होता, तो आज आजादी के 75 साल बाद भी देश की 80 से 85 करोड़ की आबादी को सरकार की तरफ से मुफ्त में मिलने वाले 5 किलोग्राम अनाज के लिए मोहताज नहीं रहना पड़ता. एक बात गौर करने वाली है कि अब तक हमारी सरकारी व्यवस्था ने जिस तरह के राजनीतिक विमर्श को गढ़ा है, उसी का नतीजा है कि ये जो मुफ्त का अनाज देश के 60 से 65 फीसदी नागरिकों को मिलता है, वो ये बोलकर मिलता कि ये सरकार की ओर दिया जाने वाला मुफ्त का अनाज है. जबकि वास्तविकता ये है कि ये अनाज देश के नागरिकों के खून-पसीने से पैदा किया गया अनाज है और उस पर हक़ भी नागरिकों का ही है. यानी राजनीतिक विमर्श ये होना चाहिए कि ये अनाज आपका है और आपको आपकी जरूरतों को देखकर दिया जा रहा है. लेकिन अब तक इस तरह की सोच को बनने ही नहीं दिया गया है.


2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बना देना है. लेकिन इसके आधार में क्या देश के नागरिक रहेंगे..इस राजनीतिक विमर्श को ही बदलने की जरूरत है. आप आर्थिक तौर से कितना भी वृद्धि या ग्रोथ का रेट मेंटेन करते रहें, लेकिन सही मायने में भारत विकसित राष्ट्र तभी बनेगा, जब देश के हर नागरिक का सर्वांगीण विकास सुनिश्चित होगा. औसतन आधार पर 'पर कैपिटा इनकम' बढ़ाने के राजनीतिक विमर्श को बदलना होगा. वास्तविक आधार 'पर कैपिटा इनकम' बढ़ाने के राजनीतिक विमर्श को लाने की जरूरत है, जिसमें संख्या के आधार पर ज्यादा से ज्यादा लोगों या देश के अधिकांश लोगों की व्यक्तिगत आय बढ़े.


राजनीतिक विमर्श का एक और पहलू है, जिसे बदलने की सख्त जरूरत है. हम देश के नागरिक हैं. चुनावी राजनीति में हम मतदाता हैं और मतदाता का काम वोट देना है. अगर हम किसी पार्टी या नेता को वोट दे रहे हैं, तो इसका ये मायने नहीं है कि हम उस पार्टी या नेता के आजीवन समर्थक बन जा रहे हैं. लोकतंत्र में वोट देने का सीधा संबंध उपलब्ध विकल्पों में से किसी को चुनना है. यहां पर गौर करने वाली बात है कि उपलब्ध विकल्पों में से किसी को चुनना. इसका तात्पर्य है कि चुनावी राजनीति में हमारे पास जो विकल्प मौजूद हैं, उसमें से ही किसी एक को हम अपना वोट दे रहें है. इसका ये कतई मतलब नहीं है कि वो सर्वोत्तम है और सिर्फ वोट देने के नाम पर देश का आम नागरिक उसे हमेशा सर्वोत्तम मानने के लिए बाध्यकारी हो जाता है. इस राजनीतिक विमर्श को बदलकर ही हम 2047 तक भारत को सचमुच में विकसित राष्ट्र बना सकते हैं.


जहां तक मीडिया विमर्श से जुड़ा मु्ददा है, तो अब तक 75 साल से मीडिया की राष्ट्रीय धारा में ये विमर्श बनाया गया है कि जो सरकार है और जो विपक्ष के नेता हैं, उनके बयानों के इर्द-गिर्द ही मीडिया विमर्श का ताना-बाना बुना जाता रहा है. अभी हम क्या देखते हैं..राष्ट्रीय धारा में मीडिया विमर्श को दिन-ब-दिन कैसे निर्धारित किया जाता है. इसका सीधा जवाब है कि मुख्यधारा में राजनेताओं के बयान को ही मीडिया विमर्श मान लिया गया है. कोई नेता बयान देता है और विरोधी दल का नेता उस पर प्रतिक्रिया देता है..और फिर शुरू हो जाता है दिनभर उन बयानों के आधार पर ख़बरों का खेल. ऐसा नहीं है कि इस तरह का मीडिया विमर्श हाल-फिलहाल की देन है. आप इतिहास पर नज़र डालेंगे, तो आजादी के बाद से ही मुख्यधारा में इसी तरह का मीडिया विमर्श रहा है, जहां आम आदमी या देश का नागरिक कमोबेश गौण अवस्था में ही रहा है.


भारत विकसित कैसे बनेगा, इसके रास्ते तलाशे जाने चाहिए, लेकिन विकसित भारत में क्या होना चाहिए, इसकी पहली शर्त तो यहीं है कि देश के नागरिक सर्वोपरि हों, आम आदमी की खुशी सर्वोपरि हो. राष्ट्रवाद का विमर्श तभी जायज है, जब उस राष्ट्रवाद में देश के हर नागरिक के चेहरे पर मुस्कान नज़र आए. अब तक अगर ऐसा नहीं हुआ है, तो उसमें सबसे बड़ा दोष 75 साल में गढ़े गए राजनीतिक और मीडिया विमर्श का है. अगर देश की सरकार और देश के हर राजनीतिक दल चाहते हैं कि 2047 तक सही मायने में भारत विकसित राष्ट्र बने, तो उसके लिए इन सभी को राजनीतिक विमर्श बदलने की दिशा में काम करना होगा. उसी तरह से लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को भी गंभीरता से सोचना होगा कि विकसित भारत की अवधारणा में किस तरह के मीडिया विमर्श का विकास करना है, जिसके केंद्र में राजनीति और राजनेताओं का बयान न हो, बल्कि देश के नागरिक और उनकी जरूरतें हो. राजनीतिक और मीडिया विमर्श के तहत इस बात को अच्छे समझ लेना चाहिए कि आर्थिक वृद्धि और सही मायने में विकास में फ़र्क़ होता है.


एक बात और है, जिस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है. राजनीतिक विमर्श और मीडिया विमर्श दोनों अलग-अलग बातें हैं, लेकिन हमारे देश में आजादी के बाद से ही इन दोनों के बीच ऐसा घालमेल पैदा कर दिया गया है, जिससे ये दोनों ही एक-दूसरे के पर्याय नज़र आने लगे हैं. बानगी के तौर पर इस साल 2 मार्च की घटना पर विचार कर सकते हैं. 2 मार्च को पूर्वोत्तर के तीन राज्यों त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड के विधानसभा चुनावों के नतीजे आ रहे थे. मेघालय में मौजूदा मुख्यमंत्री कोनराड संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी 60 सदस्यीय विधानसभा में 26 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी. वहीं बीजेपी सिर्फ़ दो सीट जीतने में सफल रही, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया के बड़े स्तंभों में से ज्यादातर ने कोनराड संगमा की सफलता को प्रमुखता से बताने से ज्यादा तरजीह इस बात को दिया कि मेघालय में भी बीजेपी की सरकार बनने वाली है. उसी तरह से नगालैंड में मौजूदा मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो की नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी, बीजेपी के साथ गठबंधन के तहत 25 सीटों पर जीत दर्ज कर सबसे बड़ी पार्टी बनी और बीजेपी को 12 सीटों पर जीत मिली. इस ख़बर में असली सफलता नेफ्यू रियो की थी, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया के बड़े स्तंभों में से ज्यादातर यहीं बताते रह गए कि बीजेपी गठबंधन को नगालैंड में जीत मिली है, जबकि वास्तविक तौर पर ये कहा जाना चाहिए था कि एनडीपीपी गठबंधन को नगालैंड में भारी सफलता मिली है. विकसित भारत की संकल्पना में राजनीतिक विमर्श और मीडिया विमर्श के इस घालमेल से भी बचने की जरूरत है.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)