हाल के अदालती फैसले कुछ उम्मीद जगाते हैं. पिछले पखवाड़े केरल हाई कोर्ट ने एक एडल्ट कपल के लिव-इन रिलेशनशिप पर मंजूरी की मुहर लगाई है. लड़का-लड़की साथ-साथ रहना चाहते थे. घरवालों को आपत्ति थी. मामला कोर्ट में पहुंचा- लड़की के घरवालों ने कहा कि लड़के ने लड़की को अगवा किया है. लेकिन कोर्ट ने घरवालों के खिलाफ फैसला सुनाया. कहा कि लड़की 19 साल की है, इसलिए तय कर सकती है कि वह किसके साथ रहे- या शादी करे. लड़का चूंकि 18 साल का है इसलिए शादी की उम्र होने तक लड़की आराम से उसके साथ रह सकती है- फिर चाहे तो शादी कर सकती है. हाई कोर्ट का यह फैसला उस समय आया है, जब उसके पिछले फैसलों पर लोग भर-भरकर आलोचना कर रहे थे. इससे पहले इसी तरह के एक केस में हाई कोर्ट ने घर वालों के पक्ष में फैसला सुनाया था, जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया था.

शादी करे, या साथ रहे- अदालत ने जब यह कहा तो इस बात को पुष्ट भी किया कि कोई एडल्ट कपल अपना फैसला खुद ले सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने भी ठीक तीन साल पहले 2015 में एक ऐसी ही बात कही थी. इस मामले में लिव-इन रिलेशनशिप 50 साल पुराना था. आदमी की मृत्यु हो गई थी और उसके पोते उसकी लिव-इन पार्टनर को जायदाद का हिस्सा देने को तैयार नहीं थे. तब कोर्ट ने पोतों को फटकार लगाई थी और कहा था कि लिव-इन रिलेशनशिप अब समाज में मान्य है और इसे प्रतिबंधित संबंध नहीं माना जाना चाहिए. बहुत लंबे समय तक ‘पति-पत्नी के रूप में’ कपल्स साथ-साथ रहते हैं तो ज्यूडीशियरी यह मानकर चलती है कि दोनों शादीशुदा हैं.

समय आगे की तरफ घूम रहा है तो हमें भी पिछड़ना नहीं चाहिए. पिछड़े बैठे हैं तभी लड़का-लड़की की दोस्ती को हमेशा लव-एंगल से देखते हैं. अकेला लड़का-अकेली लड़की कमरा किराए पर लेते हैं तो संदेह की आंखें गाड़े रहते हैं. उनकी बेहयाई पर गपबाजियों की महफिलें सजाते हैं. पंचायत करने के ऐसे शौकीन हम हैं. पर हमारी राय की किसे जरूरत है? जरा यह भी पूछ लीजिए. हाल के एक सर्वे में यंगस्टर्स ने बुढ्ऊ टाइप की सोच रखने वाले लोगों से जैसे अपना मुंह बंद करने को ही कहा है. इनशॉर्ट्स नामक न्यूज एप के पोल में 1.4 लाख नेटिजन्स की राय पूछी गई. नेटिजन्स मतलब इंटरनेट का बहुत अधिक इस्तेमाल करने वाले. इसमें 18 से 35 साल के एज-ग्रुप के 80 फीसदी लोग शामिल थे. पोल में 80 फीसदी ने कहा कि वे लिव-इन को सपोर्ट करते हैं. 26 फीसदी ने कहा कि वे शादी की बजाय जीवन भर लिव-इन में रहना चाहेंगे. 86 फीसदी ने कहा कि लिव-इन के पीछे सिर्फ वासना नहीं होती. 45 फीसदी ने कहा कि यह शादी से पहले कंपैटिबिलिटी टेस्ट की तरह काम करता है. एक तबका इसे नापसंद भी करता था- उसने कहा कि चूंकि भारतीय समाज लिव-इन में रहने वाले लोगों को बराबर जज करता है इसलिए ज्यूडीशियरी के बार-बार आगाह करने के बावजूद उनका माइंडसेट बदलने वाला नहीं है. वे कंफर्टेबल होने वाले नहीं. समाज के सैकड़ों सालों के नियमों को तोड़ने वाले नहीं.

सैकड़ों सालों से जाति प्रथा तय है. यह भी तय है कि गोत्र के भीतर शादियां नहीं होंगी. दूसरे धर्म में भी नहीं होगी. लड़कियां बाहर जाकर नौकरियां नहीं करेंगी. शादी करने के बाद घर संभालेंगी- बच्चे पैदा करेंगी. तलाक नहीं होंगे. सैकड़ों सालों का तर्क देते हुए हम अपनी बेटियों को सजा देते रहते हैं. तो, जो सैकड़ों सालों से होता है वह होता रहे. पर क्या हमारा समाज इतना होमोजेनस-एक सरीखा है... वह तो हेट्रोजेनस यानी विषम रूपी है. राजस्थान के गारसिया समुदाय में औरत और आदमी साथ-साथ रहने के बाद आर्थिक स्थिति ठीक होने पर शादी करते हैं. मणिपुर के पैते आदिवासियों में भी साथ-साथ रहने के बाद शादी की परंपरा है. आदमी औरत के बीच न बने, तो वे अपने-अपने रास्ते जा सकते हैं. अरुणाचल की मेंबा जनजाति में औरतों को एक से अधिक पति हो सकते हैं. इसीलिए हमारे दिमाग में जो अखंड देश की परिभाषा सेट है, उसी से हम ऐसी सोच से ग्रस्त हो जाते हैं कि हम ही तय करेंगे कि कौन कैसे रहे.

किसी दिलजले ने कहा कि लिव-इन में औरतों का ही घाटा है. इमोशनल-इकोनॉमिक और सोशल. पर कानून रिश्तों को लेकर बहुत साफ है. कोर्ट कहते रहे हैं कि लिव-इन में रहने वाली औरतों को वे सभी अधिकार मिलेंगे जो शादीशुदा औरतों को मिलते हैं. जैसे प्रॉपर्टी, एलिमनी, मेन्टेनेंस और बच्चों की कस्टडी. 2015 के मामले में जब सुप्रीम कोर्ट लिव-इन पार्टनर को पत्नी का दर्जा दे रहा था, तब उसने अदालतों के लिए वे गाइडलाइन्स भी दिए थे, जो बताते हैं कि लिव-इन रिलेशनशिप क्या होता है. इन गाइडलाइन्स के हिसाब से एक बालिग पुरुष और एक बालिग महिला के बीच घरेलू संबंध जोकि समझ-बूझकार बनाए गए हों, यह मान्यता देने के लिए काफी है कि वह लिव-इन रिलेशनशिप में रहते हैं. इससे एक साल पहले मशहूर टेनिस खिलाड़ी लिएंडर पेस और उनकी लिव-इन पार्टनर रिया पिल्लै का मामला सामने आया था. रिया ने घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के तहत पेस से अपने और अपनी बेटी के मेनटेनेंस का खर्चा मांगा था. यह कानून सेपरेशन के बाद औरत को एलिमनी और मेनटेनेंस, दोनों दिलाता है. ऐसे मामलों में अदालतें ऐसे रिश्तों के कारण जन्म लेने वाले बच्चों की कस्टडी भी महिला लिव-इन पार्टनर को देती रही हैं. 1960 का बाल संरक्षण अधिनियम भी यही सुनिश्चित करता है कि ऐसे संबंधों से जन्म लेने वाले बच्चों के साथ कोई कानूनी भेदभाव न हो.

ऐसे संबंधों में औरत को यौन शोषण से भी संरक्षण मिला हुआ है. अगर पार्टनर उसका रेप करता है तो वह भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी की धारा 375 के तहत केस दर्ज करा सकती है. बस, उसे यह साबित करना होगा कि उस संबंध में उसकी सहमति नहीं थी. यह सेक्शन शादीशुदा महिलाओं को रेप केस दायर करने से रोकता है पर लिव-इन पार्टनर शादीशुदा नहीं होती, इसलिए उसे यह सुविधा मिल जाती है. इसके अलावा लिव-इन में रहने वाली औरतें घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत भी अपने पार्टनर के खिलाफ यौन हमले का केस दायर कर सकती है.

सही बात तो यह है कि इसे लड़का-लड़की को ही तय करने दिया जाए कि वे शादी करके फुलटाइम रिलेशनशिप चाहते हैं या लिव-इन का हाफटाइम रिलेशनशिप. क्योंकि व्यक्ति महत्वपूर्ण है, रिश्ता नहीं. क्योंकि सामाजिक परंपराएं, आसमान से टपकी व्यवस्था नहीं है जिसे किसी ने स्वर्णाक्षरों में लिखकर हमें दिया है. हम विकास के हर चरण के साथ उसे स्वयं लिखते हैं. कोई नए एंगल से उस रिश्ते को लिखना चाहता है तो हम कौन होते हैं उसमें टांग अड़ाने वाले.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)