भारत में जेल सुधार के नजरिए 2013 का साल एक अहम पड़ाव था. इस साल 'तिनका तिनका तिहाड़' किताब और उसी पर लिखे गाने की सीडी का विमोचन दिल्ली के विज्ञान भवन में किया गया था. जेल सुधार की दिशा में लंबे वक्त से काम रहीं वर्तिका नन्दा और तत्कालीन दिल्ली तिहाड़ जेल की महानिदेशक विमला मेहरा ने इस किताब का संपादन किया था. तिनका-तिनका की संस्थापक वर्तिका नन्दा से जानिए कि कैसे उनके दिमार में तिनका-तिनका का ख्याल आया और भारत में जेल सुधार की दिशा में भविष्य में और क्या किया जाना चाहिए.
तिहाड़ जेल से पहला परिचय 1993 में हुआ, जब एक स्टोरी के सिलसिले में वहां जाना हुआ. एनडीटीवी के दिनों में जब क्राइम बीट को हेड करने का मौका मिला, तो भी जेल जाने के मौके मिले. बाद में पीएचडी करते हुए विक्टिम के साथ अपराधियों के भी पास जाना होता था. फिर लगा कि अब उन पक्षों पर बात करनी चाहिए, जिन पर आम तौर पर कोई नहीं करता है. सकारात्मक पत्रकारिता की नींव रखी जानी भी बहुत जरूरी है, यह सोचकर भी 'तिनका-तिनका तिहाड़' का जन्म हुआ.
2013 में इन्हीं सब बातों को लेकर विमला मेहरा से बात हुई. महिला आईपीएस अधिकारी होने के साथ वह बहुत संवेदनशील भी थीं. उनको मैंने कहा था कि महिला कैदियों के साथ मिलकर एक काव्य संग्रह पर काम करना चाहती हूं. बाकी सहयोगियों की प्रतिक्रिया ये थी कि ऐसा होना असंभव है. इसकी वाजिब वजह भी थी. बहुत कम महिला कैदियों का पढ़ने-लिखने से कोई साबका था. बहरहाल, जब मेरा आना-जाना और बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो लगा कि जिस जेल के बारे में जो लोग सोचते हैं, वह इनकी दुनिया से बहुत अलग है. उसके बाद इन महिलाओं में से कोई-कोई मुझे पुराने लिफाफे पर, कागज के टुकड़े पर, पेपर नैपकीन पर कुछ लिख कर देने लगे.
कई महिलाओं का इंटरव्यू हुआ और फिर 4 का चयन किया. 'तिनका-तिनका तिहाड़' की यह पहली नींव थी. वह किताब की थी. बाद में यह कई हिस्सों में बांटी गई. जैसे पेंटिंग, कैलेंडर, ऑडियो फिर वीडियो, बाहर की दीवार की जो सजावट है, फिर तिनका-तिनका इंडिया अवॉर्ड्स और फिर तिनका-तिनका बंदिनी अवॉर्ड्स. आज किताब की प्रतियां खत्म हैं, लेकिन दूसरे एडिशन पर काम चल रहा है. 10 साल पूरे होने पर हो सकता है कि जल्द ही दूसरा संस्करण आ जाए. तिनका तिनका तिहाड़ के दूसरे संस्करण को तिनका तिनका फाउंडेशन प्रकाशित कर रहा है.
जेल को लेकर संवेदनशील रिपोर्टिंग की जरूरत
आज भी जेल को लेकर संवेदनहीन रिपोर्टिंग होती है. जो जेल को जानना चाहते हैं, उन्हें किताबें पढ़नी चाहिए. जर्नलिस्ट हालांकि किताबें नहीं पढ़ना चाहते जेल के बारे में, वह सनसनी और सपाटबयानी में चले जाते हैं. जेल के कई पक्ष कमजोर हो गए और जेल को वीआईपी, डर या डिजीज से जोड़ दिया गया है. 'तिनका-तिनका तिहाड़' दो बार 'लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स' में आया है. एक बार किताब को लेकर और एक बार गाने को लेकर. तिनका तिनका.. जो गाना था, तिनका तिनका तिहाड़, उसे मैंने लिखा था. बंदियों ने गाया था. उसे जेल का परिचय गान घोषित किया गया था.
इसके बाद कई बदलाव आए. जेल अब आत्मनिर्भरता के मोड पर काम करने लगा है. 'तिनका फाउंडेशन' की स्थापना के पीछे मकसद ये था कि जेल की बंदियों को सशक्त किया जाए. गाना जब शूट हुआ तो उसके कपड़े भी अंदर बने, धुन भी अंदर बनी, शूटिंग अंदर हुई, बाहर की दुनिया का उसमें न के बराबर सहयोग था. जेल के काम के लिए आपको अपनी ऊर्जा, अपना समय लगाना होता है और हरेक बंदी ये जानता या जानती है कि उससे कौन व्यक्ति किस नीयत से मिलने आ रहा है?
कई का नजरिया बदला, कई ने जो कुछ भी सीखा, बाद की जिंदगी में उनको मदद मिली. लोग लाइब्रेरी आने लगे, पढ़ने लगे और इन सब का एक भागीदार तिनका-तिनका भी रहा. डिप्रेशन में कमी आई, स्वास्थ्य को लेकर कंसर्न बढ़ा, परिवार के साथ कैदियों के संबंध सुधरे, जेल के बाहर जो कविता लिखी है, 'सुबह लिखती हूं, शाम लिखती हूं', वह सीमा ने लिखी है. एक बड़ा उदाहरण है कि किताब की वजह से उसकी अपनी पसंद के मुताबिक शादी हो गई. जब वह तिहाड़ में आई थी, तो उसका दोस्त भी यहीं था. जेल नियमों के तहत दोनों मिल नहीं सकते थे, लेकिन किताब छपने, जेल की दीवार पर उस कविता के लिखे जाने के बाद चीजें बदलीं. दोनों के परिवालवाले इस शादी के लिए तैयार हो गए. आखिरकार दोनों की शादी हो गई. इससे सुंदर भला और क्या होगा?
जेल के बारे में लिखना इमोशनली थकाने वाला
जेल पर काम करते हुए कई चीजों का त्याग करना पड़ा. बहुतेरे नियम बनाने पड़े. एक नियम यह भी था कि मैं यहां के बारे में कम बोलूंगी. जब तक जरूरी न हो, नहीं बोलूंगी. जेल को हर समय और हर मौसम में देखा. बरसात हो, सर्दी हो, ठंड हो, सुबह हो, शाम हो...हर रूप औऱ रंग में जेल को देखा और लगातार देखा. बारंबार देखा. महसूस किया. इनके बारे में जब लिखा, तो खुद को उनकी जगह रखकर लिखा. जेल के बारे में जब भी आप लिखें या काम करें तो खुद को बंदियों की जगह रखें.
इसके साथ ही जब भी मैं जेल के अंदर जाती हूं, तो अपने अंदर के पत्रकार को बाहर छोड़ आती हूं. जेल का काम चुप्पी मांगता है. उस सड़क पर चलना ही मेहनत का काम है. जेलों में सुधार की जहां तक बात है, तो संवेदनशीलता पहली शर्त है. भोपाल की सेंट्रल जेल में दीपावली की रात को 2016 में सिमी के 8 आतंकी भाग गए थे. उसके बाद कहीं भी तेल लाने की भी मनाही हो गई. हमारे-आपके लिए यह बड़ी बात नहीं होगी, लेकिन ये बहुत बड़ी बात है.
कुछ दिनों बाद मैं इंदौर जेल गई. वहां कुछ महिलाओं ने अपनी परेशानी साझा की. उन महिलाओं को सर्दी के उस मौसम में खुद के या बच्चों को लगाने के लिए तेल नहीं था क्योंकि सिमी के आतंकी दूसरी जेल से भाग गए थे. उसके बाद प्रशासन ने रोक लगा दी थी.
हमारी परेशानी है कि हम सबको एक डंडे से हांकने लगते हैं. हमें लगता है कि फलां जेल में ऐसा हुआ तो सारी जेलें ऐसी हैं. एक बंदी ने कुछ किया तो हमने मान लिया कि सारे बंदी ऐसे ही हैं. सामान्यीकरण करना बहुत ही गलत बात है. यह ठीक है कि जेल प्रशासन में कई भ्रष्ट है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सभी भ्रष्ट हैं. तिहाड़ में गैंगवार हुई और सभी जगहों पर बेहद कड़ाई हो गई. इसका खामियाजा कौन भुगतेगा? एक, तो जो सामान्य बंदी है, जिसका उस घटना से कोई लेना-देना नहीं है. दूसरा, जो ईमानदार अधिकारी हैं. यही चिंता की बात है.
जेलों में सुधार की एकमात्र शर्त है मानवीयता
जिन जेलों में बेसिक सुविधा तक नहीं है, वहां अगर और कड़ाई हो जाती है, तो पहले से ही डरा हुआ बंदी और भी अधिक डर जाता है. जेलों को सुधारने के लिए सबसे पहले तो भ्रष्टाचार की घटनाओं पर कार्रवाई हो, और समय के मुताबिक हो. ये नहीं कि कमेटी बनी है, काम चल रहा है. दूसरी बात, जेलों में काडर की बहुत समस्या है. आपसी झगड़े सुलझाने चाहिए. तीसरे, जेल राज्य का विषय़ है, लेकिन हर राज्य को दूसरे राज्य की जेल से सीखना चाहिए. बंदियों के लिए स्किल ओरिएंटेड काम हो तो ऑफिसर की भी ट्रेनिंग होनी चाहिए. यह नियमित और अनिवार्य हो. जेल स्टाफ के लिए भी मानवीय बनने की जरूरत है. जेल अधिकारियों के रहन-सहन, उनकी छुट्टियां आदि पर भी विचार करना चाहिए.
'तिनका-तिनका' पॉडकास्ट एकमात्र कार्यक्रम है जो जेलों पर है, जेलों का है. इसमें हम बंदियों के साथ ही स्टाफ की समस्या को भी सामने लाते हैं. जेल सुधारों की सख्त जरूरत है. मानवीयता की जरूरत तो बंदियों को भी है, अधिकारियों को भी है. जेल बाजार नहीं है, थिएटर नहीं है, बाजार नहीं है, इसलिए मीडिया को भी सावधान रहने की जरूरत है, संवेदनशीलता से इनको कवर करने की जरूरत है. आखिर में, एक घटना साझा कर रही हूं, जो मेरे मन में गहरे उतर गई है. 2015 में हम गाने की रिकॉर्डिंग कर रहे थे. जब कपड़े की बारी आई तो एक बंदिनी ने कहा कि वह मेकअप करना चाहती है. उसने बताया कि वह जेल में आने से पहले मेकअप आर्टिस्ट थी. आपको बताऊं कि जेल में शीशा नहीं होता, पर जब जेल में शीशा लाया गया और पुरुष-महिला तैयार हुए तो उनकी आंखों की चमक आज तक नहीं भूल पाती.
(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)