आदिवासियों को किस हद तक अपने साथ जोड़ पायेगी बीजेपी?

देश की तकरीबन साढ़े 10 करोड़ आदिवासी आबादी को लुभाने के लिए बीजेपी ने द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाकर जो मास्टरस्ट्रोक खेला था, वह सिलसिला अभी थमा नहीं है. आदिवासियों की आबादी के लिहाज से सबसे बड़ा राज्य मध्यप्रदेश है लेकिन वहां अभी तक आदिवासी समुदाय को अपने जल, जंगल और जमीन का अधिकार पूरी तरह से नहीं मिला था, जिसके चलते गैर आदिवासी उनकी जमीन को हड़प कर उनका शोषण करते आ रहे थे.
लेकिन दो दिन पहले बिरसा मुंडा के जन्म दिवस पर मध्यप्रदेश में पेसा एक्ट को लागू कर दिया गया है. पेसा कानून का पूरा नाम पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) है. हालांकि देश में ये कानून 24 दिसंबर 1996 को ही बन गया था लेकिन मध्य प्रदेश में इसे अब तक लागू नहीं किया गया था.
इसका मकसद आदिवासी समुदाय को स्वशासन का अधिकार देने के साथ ही ग्राम सभाओं को सभी गतिविधियों का मुख्य केंद्र बनाना है. दरअसल, इस कानून को अगर सरल भाषा में समझें, तो इसमें आदिवासियों की पारंपरिक प्रणाली को मान्यता देते हुए उनको सशक्त सशक्त बनाने का प्रावधान किया गया है. यानी आदिवासी बहुल गांवों में अब हर छोटा-बड़ा फैसला उनकी ग्राम सभा ही करेगी और बाहरी लोगों का कोई दखल नहीं रहेगा.
आदिवासी समुदाय की सबसे अधिक संख्या वाला मध्यप्रदेश यह कानून लागू करने वाला देश का अब सातवां राज्य बन चुका है. इससे पहले हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र ने भी पेसा कानून के तहत अपने नियमों को लागू किया है. हालांकि छत्तीसगढ़ में भी आदिवासी समुदाय की खासी संख्या है लेकिन वहां भी अभी तक ये कानून लागू नहीं हुआ है. दोनों ही राज्यों में अगले साल के अंत में विधानसभा चुनाव हैं. उस लिहाज से देखें, तो मध्य प्रदेश की बीजेपी सरकार ने आदिवासियों को अपने पाले में लाने के लिए बड़ा सियासी फैसला लिया है.
बता दें कि मध्यप्रदेश के बड़े आदिवासी नेता और झाबुआ के सांसद रहे दिलीप सिंह भूरिया की अध्यक्षता में एक समिति बनी थी, जिसकी सिफारिश के आधार पर पर ही यह मॉडल कानून बना था. साल 2011 की जनगणना के अनुसार प्रदेश में अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या एक करोड़ 53 लाख थी, जो कि राज्य की कुल आबादी का 21.10 प्रतिशत है. इस तरह मध्यप्रदेश देश का इकलौता ऐसा राज्य है, जहां हर पांचवा व्यक्ति अनुसूचित जनजाति वर्ग का है.
दरअसल, आदिवासी भोले-भाले होने के साथ ही प्रकृति के पूजक और इसके संरक्षक समझे जाते हैं. अपनी संस्कृति, भूमि और अपनी भाषा से इनको बेहद प्रेम है. इन्हें जंगल, पेड़, पौधों और पशुओं से भी बेहद लगाव होता है. कुनबे में रहना और उसका ख्याल रखना इनकी खासियत है. लेकिन फिर भी दो तरह से इनका शोषण होता आया है. पहला तो ये कि साहूकार और बाहरी लोग इनकी जमीन हड़पते रहते हैं और दूसरा ईसाई मिशनरियां इन्हें कोई लालच देकर या फिर अंधविश्वास फैलाकर इनका धर्मांतरण कराने में कामयाब हो जाती हैं.
भारत में लगभग 705 जनजातीय समूह हैं. इनमें करीब 75 विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह हैं. साल 1961 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार देश में अनुसूचित जनजाति की आबादी करीब 3.1 करोड़ ( कुल जनसंख्या का 6. 9 %) थी. लेकिन पिछले पांच दशक में इनकी आबादी तेजी से बढ़ी है. साल 2011 की जनगणना के अनुसार अब देश में अनुसूचित जनजाति की आबादी लगभग 10. 45 करोड़ हो चुकी है, जो कुल आबादी का लगभग 8. 6% है.
विधानसभा चुनाव के लिए मतदान की दहलीज पर खड़े गुजरात की बात करें, तो वहां करीब 15% आबादी आदिवासियों की है और इनके लिए 26 सीटें रिजर्व हैं. लेकिन कुल मिलाकर तकरीबन 40 सीटें ऐसी हैं, जहां आदिवासी वोटर निर्णायक भूमिका में हैं.
हालांकि सबसे ज्यादा आदिवासी आबादी साउथ गुजरात में हैं और विधानसभा की सीटें भी इसी इलाके में है. 26 में से 17 सीटें यहीं से आती हैं. पिछले चुनाव में इन सीटों पर बीजेपी और कांग्रेस के बीच कोई ज्यादा फर्क नहीं था लेकिन इस बार आम आदमी पार्टी ने भी यहां खासा जोर लगा रखा है. देखना होगा कि मध्यप्रदेश के पेसा कानून का असर गुजरात के आदिवासियों पर कितना होता है?
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