आज गांधी जयंती है. मोहनदास करमचंद गांधी का जन्मदिवस. आज देश में जो हालात हैं, उसमें गांधी की और याद आती है. सड़क से संसद तक जहरीली बातें की जा रही हैं, एक-दूसरे पर आरोप लगाए जा रहे हैं. समाज में एक खाई सी स्पष्ट दिख रही है. देश में धर्म और जाति, भाषा और प्रांत के नाम पर विभाजन तीखे हो रहे हैं. ऐसे में गांधी और उनकी शिक्षा कितनी प्रासंगिक है, जब पूरी दुनिया गांधी से प्रेरित हो रही है, तो भारत कहां खड़ा है, इन सभी बातों को समझने की जरूरत है. 


पहले भी संक्रमण आया, पर मौजूदा दौर...


पिछले 75 वर्षों से भारत की स्वराज यात्रा चल रही है. हमने जिस यात्रा की शुरुआत 26 नवंबर 1949 को शुरू की थी, आज का समय उत्थान की जगह पतन का लग रहा है. इसके पहले भी 1975 से 77 के दौरान संक्रमण का दौर आया था, जब लोगों की नागरिक आजादी और परस्पर भरोसे पर संकट छाया था. खैर, आपातकाल का समाधान लोकतंत्र यानी चुनाव के जरिए हुआ और एक नया अध्याय शुरू हुआ, जिसको दूसरी आजादी कहा गया. आज लेकिन परस्पर भय की ही नहीं, नफरत की भी बात है. किसी भी देश को तोड़ने के लिए नफरत फैलाना सबसे आसान तरीका है. ये नफरत आज धर्म के आधार पर हो रही है. कभी हम लोग भाषा और जाति के आधार पर घबराए हुए थे कि देश टूट जाएगा, लेकिन हमने बहुजातीय और बहुभाषीय पहचान के साथ जीना सीख लिया है. संघीय ढांचे ने क्षेत्रीय पहचान को भी स्वर दिए हैं, लेकिन अभी भी बहुधर्मी भारत का बनना बाकी है.



इसमें पाकिस्तान का बनना बहुत बड़ा कांटा था, लेकिन वहां भी जब एका न हो सका, तो बांगलादेश नामक नया मुल्क बना. जो पाकिस्तान बचा है, वहां भी अस्मिता की लड़ाई चल रही है, बहुतेरे द्वंद्व हैं, भ्रष्टाचार है और पाकिस्तान लगातार जूझ ही रहा है. भारत का जो स्वधर्म है, वह 'विविधता में एकता' और 'वसुधैव कुटुंबकम्' की भावना नहीं है, तो हम शेष दुनिया के साथ कैसे चलेंगे...और इसमें सबसे बड़ी भूमिका युवाओं की है. उनको यह तय करना है कि भारत को वे नेताओं के हवाले छोड़ देंगे या फिर देश को अपना मानकर गांधी से लेकर भगत सिंह और सुभाष बोस की परंपरा को अपनाएं, जहां हमार हित ही देश का हित है और देश का हित ही हमारा हित है. यही सोच कर देश को बनाना है, राष्ट्रनिर्माण की चिंता आज हाशिए पर चली गयी है, यह दुखद बात है. 


1975 का संकट अलग था, आज का अलग 


वह संकट एक व्यक्ति का प्रधानमंत्री पद से हटाए जाने की संभावना से पैदा असंतोष, भय और चिंता का संकट था. उसी को पहले से चले आ रहे आंदोलन से जोड़कर बताया गया कि देश को डबल इमरजेन्सी से दुरुस्त कर देंगे और फिर छह महीने के अंदर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश और दुनिया को बताया कि सब कुछ सामान्य हो गया है, जयप्रकाश नारायण समेत 1 लाख लोगों को जेल में डालने के बावजूद कहीं कोई बगावत नहीं हुई है, न सेना में, न न्यायपालिका में, न कार्यपालिका में, न नागरिकों में..तो हम चुनाव कराएंगे और लोकतंत्र को वापस लाएंगे. आज तो लोकतंत्र का जो रूप है, उसे कहें कि भेड़ की खाल में भेड़िया आ गया है. संसद है, लेकिन वह जनता की नहीं है, करोड़पतियों का क्लब बन गयी है. न्यायपालिका है, लेकिन वह हर मुकदमे को दूर रख रही है, फैसले नहीं कर रही है, चाहे वह कश्मीर का मसला हो, मणिपुर का हो या चुनाव सुधार का हो. कार्यपालिका है, लेकिन हर अफसर डरा हुआ है कि उन्हें कौन बचाएगा...मीडिया के बारे में जितना कम कहें, उतना ही अच्छा है. नागरिक समाज, विरोधी दल और विद्या के केंद्र जो हैं, उन सब पर जैसे कुठाराघात हो रहा है, तो हम अपनी ताकत कहां से इकट्ठा करें? 


इसी समय गांधी और भी प्रासंगिक हो जाते हैं, उनकी याद आती है. जब गांधी दक्षिण अफ्रीका से यहां पहुंचे थे, तब के भारत का हाल भी बिल्कुल ऐसा ही था, जैसा आज का है. राज तो था, लेकिन वह स्वदेशी नहीं था, जनता से कटा हुआ था. एक प्रबंधन तो था, लेकिन वह आम जन के लिए नहीं विशेष वर्ग के लिए था. बांटो और राज करो की नीति चल रही थी. उसी में एक समझौता हुआ, जिसे लखनऊ पैक्ट कहा गया और जिसे जिन्ना, तिलक और एनी बेसेंट ने करवाया. जालियांवाला बाग के नरसंहार से गांधी और टैगोर जैसे लोगों का मोहभंग हुआ. सारे देश में असहयोग की लहर चली, जिसे चौरीचौरा के कारण वापस लेना पड़ा, देश की अंदरूनी कमियां भी सामने आयीं. 1923-24 में हिंदू-मुस्लिम दंगे भी हुए. गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन ने फिर भी हिम्मत नहीं हारी और हजारों लोगों के बलिदान के बाद हमें आजादी नसीब हुई. आज फिर वही माहौल है. कस्बे-कस्बे में नफरत की खेती करनेवालों को प्रोत्साहन दिया जा रहा है. मीडिया इसमें निगरानी कर सकती थी, लेकिन वह हक्का-बक्का है. विपक्षी दलों ने अभी शुरू किया है, लेकिन हरेक चीज को राजनैतिक दलों पर नहीं छोड़ सकते. हमें अपने घर, अपने पड़ोस से शुरू करना पड़ेगा. कुछ दायित्व हमारा भी है. 


गांधी-अंबेडकर को याद करना वर्तमान सत्ता का पाखंड


पिछले एक साल में हमारा जो नागरिक समाज के साथ संवाद है, उसमें कर्नाटक से कौसानी और खादीग्राम, जमुई से लेकर जयपुर तक सक्रियता का एक नया मौसम आ गया है, नयी बहार हो गयी है. लोग अखबारों पर नियंत्रण होने के कारण लोग बहुत कुछ जान नहीं पा रहे हैं, लेकिन नागरिक संगठनों में एक नयी तरह की जिम्मेदारी और चिंता का भाव है. जहां तक वर्तमान सरकार के गांधी और अंबेडकर को याद करने या पुरखों को स्मरण करने की बात है, ये लगभग मुंह में राम, बगल में छुरी की तरह की बात है. जय श्री राम कहकर दूसरे धर्मवालों को निशाना बनाना, लड़कियों को निशाना बनाना, उनकी पोशाक पर हमला करना, उनके हिजाब पहनने या न पहनने की आजादी पर हमला करें, दूसरे धर्मवालों पर मेवात से मणिपुर तक हमले का माहौल बनाएं और सरकार निष्क्रिय रहे या सरकार उकसाए, सरकारी खजाने से बंदूकें लूटीं गयीं, देश के नागरिकों ने दूसरे नागरिकों की हत्या की, तो ये देश का सुशासन है, कुशासन है या दुश्शासन है...मुझे तो दुश्शासन लगता है. दुर्योधन का युग आ गया है, जहां राजा खुद अपनी भाभी के कपड़े उतरवा रहा है और सभा चुप है. लोकतंत्र के कपड़े उतारे जा रहे हैं, लोगों की बोलने की हिम्मत जा रही है. हालांकि, अच्छी बात ये है कि मई में चुनाव हैं. छह महीने के धीरज की जरूरत है और शायद तब जनता अपना फैसला सुनाए. 


युवा न समझें खुद को गांधी से दूर


युवाओं की अभी यानी 18 से 25 वालों की जो मानसिकता है, वही गांधी की भी थी. मतलब, अच्छी शिक्षा पाना, देश में अच्छी नौकरी न मिलने पर दक्षिण अफ्रीका चले जाना, यही गांधी भी सोचते थे. उन्होंने ब्रिटिश राज में बड़ी आस्था रखी थी. उनको जालियांवाला बाग के नरसंहार तक सरकार से उम्मीद थी, क्योंकि इंग्लैंड में लोकतंत्र था और 1858 में रानी ने कहा था कि जैसे इंग्लैंड की जनता, वैसी भारत की. फिलहाल, आज के नौजवानों को जानना होगा कि वे नेताओं या पढ़े-लिखे विद्वानों के भरोसे पर ही नहीं बैठे रह सकते. उन्हें खुद सच को जानना होगा और इसके लिए सत्याग्रही बनना होगा. इसके लिए जरूरी ये है कि आप झूठ और भ्रम से टकराएं और जान लीजिए कि भारत के दुखों की दवा भारतीयों को ही बनानी होगी. शिक्षा केंद्रों को संभाले बिना भारत नहीं संभलेगा और यह चूंकि उनका अपना मोर्चा है, इसलिए विद्यार्थियों को इस पर ध्यान देना चाहिए. अंत में यही कि अहिंसक तरीके से नवनिर्माण के लिए आगे बढ़ें. 



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