इस बार त्रिपुरा का सियासी दंगल बेहद ही दिलचस्प होने वाला है. यहां सबकी नज़र बीजेपी-IPFT गठबंधन और सीपीएम-कांग्रेस गठबंधन पर टिकी है. बीजेपी, सीपीएम और कांग्रेस तीनों ही राष्ट्रीय पार्टियां हैं, लेकिन त्रिपुरा में इस बार इन तीनों राष्ट्रीय पार्टियों के मंसूबे पर एक क्षेत्रीय दल पानी फेर सकता है.  चार साल से कम वक्त में ही टिपरा मोथा (Tipra Motha) त्रिपुरा में एक बड़ी सियासी ताकत के रूप में उभरी है.


बीजेपी को जीत से रोकने के लिए सीपीएम और कांग्रेस के बीच चुनाव पूर्व गठबंधन से त्रिपुरा के सियासी समीकरण तो बदल गए हैं. इस बीच टिपरा मोथा ने इसमें एक नया एंगल ला दिया था. नया दांव खेलेते हुए टिपरा मोथा बीजेपी के सहयोगी इंडिजीनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (IPFT) को अपने पाले में लाने की कोशिश कर रही है. पिछली बार के चुनाव में IPFT के साथ गठबंधन से मिले फायदे की वजह से ही बीजेपी त्रिपुरा की सत्ता पर काबिज हुई थी. उस वक्त टिपरा मोथा का अस्तित्व नहीं था.


40 से 45 सीटों पर लड़ेगी टिपरा मोथा


टिपरा मोथा त्रिपुरा की 60 में से 40 से 45 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी. ऐसे तो टिपरा मोथा की पकड़ यहां के आदिवासी समुदाय पर ज्यादा है, लेकिन इसके प्रमुख प्रद्योत किशोर माणिक्य देबबर्मा ने कहा है कि उकी पार्टी गैर-टिपरासा यानी गैर-जनजातीय लोगों को भी उम्मीदवार बनाएगी. इससे बीजेपी के साथ ही सीपीएम-कांग्रेस गठबंधन के मंसूबों पर भी पानी फिर सकता है. 


आईपीएफटी को अपने पाले में लाने की कोशिश


अगर टिपरा मोथा IPFT को अपने पाले में लाने में कामयाब हो गई, तो बीजेपी के लिए तो यहां बहुमत हासिल करना टेढ़ी खीर साबित हो सकता है. पिछली बार IPFT के साथ की वजह से बीजेपी शून्य से सीधे 36 सीटें जीतने में कामयाब रही थी. उसका वोट बैंक भी डेढ़ फीसदी से बढ़कर 43.59% पहुंच गया था. IPFT को 7.38% वोट के साथ 8 सीट पर जीत मिली थी. IPFT के साथ का ही असर था कि बीजेपी और सीपीएम के बीच वोट शेयर का फर्क महज़ 1.37% था, लेकिन बीजेपी सीपीएम से 20 सीटें ज्यादा जीतने में कामयाब रही थी. बीजेपी की सहयोगी IPFT को पिछली बार आदिवासियों का भरपूर समर्थन मिला था. इसी वजह से उसके 9 में 8 उम्मीदवार चुनाव जीतने में कामयाब रहे थे. ऐसे में अगर टिपरा मोथा के साथ IPFT चली जाती है तो बीजेपी के लिए सत्ता बरकरार रखना उतना आसान नहीं होगा. बीजेपी के लिए चिंता की बात इसलिए भी है कि  IPFT टिपरा मोथा के विलय के प्रस्ताव को खुलकर खारिज नहीं कर रही है.


क्या त्रिपुरा को मिलेगा नया विकल्प?


दरअसल टिपरा मोथा के प्रमुख प्रद्योत किशोर माणिक्य देबबर्मा के प्रस्ताव से ऐसा लग रहा है कि वे त्रिपुरा में बीजेपी, सीपीएम और कांग्रेस से अलग एक नया राजनीतिक विकल्प बनाने की कोशिश में  हैं. इसके पीछे मुख्य कारण त्रिपुरा की आबादी का समीकरण है. त्रिपुरा की आबादी में एसटी समुदाय की हिस्सेदारी करीब 32% है. यहां की 60 में से 20 विधानसभा सीटें अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए आरक्षित हैं. टिपरा मोथा यहां के जनजातियों के लिए ग्रेटर टिपरालैंड के नाम से अलग राज्य के लिए 2019 से आंदोलन चला रही है. इस वजह से ही यहां के आदिवासियों के बीच टिपरा मोथा की पकड़ बेहद मजबूत हो गई है. बीजेपी की सहयोगी IPFT की पकड़ भी आदिवासियों के बीच अच्छी खासी है. त्रिपुरा की इन 20 सीटों के अलावा भी कई सीटों पर यहां के आदिवासियों के वोट निर्णायक होते हैं. IPFT को साथ लाने के पीछे प्रद्योत देबबर्मा की यही मंशा है. अगर वे इसमें कामयाब हो गए तो, इससे बनने वाले समीकरण से त्रिपुरा की राजनीति में टिपरा मोथा के साथ तीन ध्रुव बन जाएंगे. एक तरफ बीजेपी है, तो दूसरी तरफ सीपीएम-कांग्रेस गठबंधन और टिपरा मोथा के तौर पर तीसरा विकल्प होगा.


IPFT को विलय के लिए चिट्ठी


दरअसल प्रद्योत देबबर्मा आईपीएफटी को भावनात्मक आधार पर खुद से जड़ना चाहते हैं. उनका कहना है कि IPFT टिपरालैंड के नाम से अलग राज्य की मांग करते हुए त्रिपुरा की राजनीति में एक बड़ी ताकत बनी है और टिपरा मोथा भी ग्रेटर टिपरालैंड के नाम से अलग राज्य की मांग कर रहा है. दोनों की मांगें कमोबेश समान ही हैं. यही वजह है कि प्रद्योत देब बर्मा ने IPFT के कार्यकारी अध्यक्ष प्रेम कुमार रियांग को चिट्ठी लिखकर 'टिपरासा' (Tiprasas) के हित में दोनों पार्टियों के विलय का प्रस्ताव दिया है. उनका मानना है कि ऐसा होने पर त्रिपुरा के मूल निवासी आदिवासियों की आवाज और बुलंद होगी. सियासी नजरिए से सोचें तो प्रद्योत देब बर्मा की पूरी कवायद का मकसद त्रिपुरा में स्थानीय लोगों की मदद से नया विकल्प बनाना है.


2019 में अस्तित्व में आया टिपरा मोथा


टिपरा मोथा The Indigenous Progressive Regional Alliance का संक्षिप्त नाम है. कांग्रेस के पुराने नेता और पूर्व शाही परिवार के वंशज  प्रद्योत देबबर्मा ने 2019 में कांग्रेस से इस्तीफा देकर इस संगठन की नींव रखी. इस संगठन ने आदिवासियों के लिए ग्रेटर टिपरालैंड के नाम से अलग राज्य की मांग के लिए आंदोलन शुरु किया. जल्द ही त्रिपुरा के आदिवासियों के बीच इसकी अच्छी खासी पैठ बन गई. दो साल के भीतर ही इसने अपने राजनीतिक मंशा को भी जाहिर कर दिया. फरवरी 2021 में इसके प्रमुख प्रद्योत देबबर्मा ने एलान कर दिया कि अब टिपरा मोथा राजनीति में उतरेगी.


2021 के TTAAD चुनाव में दिखाया दम


अप्रैल 2021 से टिपरा मोथा त्रिपुरा आदिवासी क्षेत्र स्वशासी जिला परिषद (TTAAD)) की सत्ता पर काबिज है. अप्रैल 2021 में त्रिपुरा आदिवासी क्षेत्र स्वशासी जिला परिषद का चुनाव हुआ. इसमें टिपरा मोथा ने बीजेपी-आईपीएफटी गठबंधन को मात देते हुए 28 में से 18 सीटें जीतकर बहुमत हासिल कर ली. इसके साथ ही परिषद पर लेफ्ट के 15 साल के शासन का भी अंत कर दिया. त्रिपुरा की राजनीति में TTAAD का खास महत्व है. संविधान की छठी अनुसूची के तहत त्रिपुरा स्वायत्त जनजातीय जिला परिषद,  पूर्वोत्तर राज्यों का सबसे ताकतवर स्वायत्त निकाय (autonomous bodies) है.  TTAAD के तहत त्रिपुरा का करीब 70 फीसदी एरिया आ जाता है. वहीं त्रिपुरा की 35 प्रतिशत परिषद के एरिया में रहती है. इन आंकड़ों से जाहिर है कि त्रिपुरा आदिवासी क्षेत्र स्वशासी जिला परिषद की सत्ता हासिल कर टिपरा मोथा सूबे में एक बड़ी राजनीतिक ताकत बन गई है.  


अलग राज्य के मुद्दे पर लड़ेगी चुनाव


आईपीएफटी की खामोशी को देखते हुए टिपरा मोथा प्रमुख प्रद्योत देबबर्मा ये भी कहने से नहीं चूक रहे हैं कि जो भी पार्टी उन्हें लिखित में अलग राज्य बनाने की मांग को पूरा करने का आश्वासन देगी, वे उसके साथ गठबंधन करने को तैयार है. इसके जरिए वे त्रिपुरा के लोगों में संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि टिपरा मोथा ग्रेटर टिपरालैंड की मांग पर कायम है और चुनाव भी इसी को मुद्दा बनाकर लड़ेगी.  इसके जरिए टिपरा मोथा अलग राज्य के मुद्दे को यहां के मूल निवासियों के लिए जीने-मरने का सवाल बनाना चाह रही है. साथ ही इस मसले के जरिए वोटों का ध्रुवीकरण भी करना चाह रही है. 


IPFT को रोकना बीजेपी के लिए चुनौती


त्रिपुरा में 16 फरवरी को वोटिंग होनी है. अब वोटिंग में एक महीने से भी कम का वक्त बचा है. बीजेपी के विजय रथ को रोकने के लिए पहले ही धुर विरोधी रहे सीपीएम और कांग्रेस हाथ मिला चुके हैं. 2018 में त्रिपुरा में बीजेपी शून्य से सत्ता के शीर्ष पर पहुंची थी. 2018 से पहले बीजेपी राज्य में किसी भी विधानसभा चुनाव में एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हुई थी. त्रिपुरा की राजनीति में बीजेपी पहली बार 1983 में उतरी. 35 साल के इंतजार के बाद बीजेपी पहली बार विधानसभा सीट जीतने में कामयाब हुई, इसके साथ ही त्रिपुरा में सीपीएम के 25 साल की सत्ता को खत्म करके सरकार बनाने में भी कामयाब हुई. इस बार बीजेपी को सीपीएम-कांग्रेस गठबंधन से तो चुनौती मिल ही रही है, टिपरा मोथा के प्रमुख प्रद्योत देबबर्मा ने भी सरदर्द बढ़ा दिया है. टिपरा मोथा से होने वाले सियासी नुकसान को पाटने के साथ ही बीजेपी को  सहयोगी IPFT को भी अपने पाले में बनाए रखने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी. टिपरा मोथा के आने से त्रिपुरा का सियासी मुकाबला त्रिकोणीय बन गया है.