अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले के सेमीफाइनल का आगाज़ आज से शुरू हो रहा है. उत्तर पूर्वी राज्य त्रिपुरा में आज विधानसभा चुनाव की वोटिंग हो रही है जहां बीजेपी सत्ता में है और उसने अपने इस किले को बचाने के लिए पूरी ताकत लगा दी है. बीजेपी ने पांच साल पहले यानी 2018 में वामपंथ के 25 बरस पुराने इस सबसे मजबूत किले की दीवारें तोड़ते हुए पहली बार यहां की सत्ता पर कब्जा किया था. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि विरोधी लहर होने के तमाम दावों के बावजूद क्या बीजेपी दोबारा सता पर काबिज़ हो पायेगी? हालांकि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कई न्यूज़ चैनलों को दिए इंटरव्यू में ये दावा किया है कि काउंटिंग वाले दिन दोपहर 12 बजे तक ही बीजेपी बहुमत के आंकड़ें को पार कर जायेगी.


नेताओं के दावे अपनी जगह हैं लेकिन त्रिपुरा से आने वाली खबरें बताती हैं कि बीजेपी के लिए अपना किला बचाना इतना आसान भी नही है. इसलिये कि इस बार राजनीतिक समीकरण पूरी तरह से बदल चुके हैं. इस राज्य में जो कभी एक-दूसरे के जानी दुश्मन हुआ करते थे उसी लेफ्ट और कांग्रेस ने हाथ मिलाते हुए साथ मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया है. लेकिन त्रिपुरा के शाही प्रिंस की नई पार्टी टिपरा मोथा ने पहली बार चुनावी मैदान में कूदकर बीजेपी की धड़कने और भी ज्यादा बढ़ा दी हैं. बहुत सारे सियासी जानकारों का आकलन है कि ये नई पार्टी इस बार 'किंग मेकर' की भूमिका में आ सकती है लिहाजा लेफ्ट-कांग्रेस के साथ ही बीजेपी गठबंधन के नेताओं का भी ब्लड प्रेशर बढ़ा हुआ है.


हलांकि नार्थ-ईस्ट की राजनीति पर बारीकी से नजर रखने वाले विश्लेषक मानते हैं कि त्रिपुरा के रॉयल प्रिंस प्रद्योत ब्रिक्रम माणिक्य देवबर्मा की पार्टी तिपरा मोथा के आने से बीजेपी की जीत उतनी आसान भी नहीं दिख रही है जितना पार्टी के नेता दावा कर रहे हैं. इसकी बड़ी वजह ये है कि ये नई पार्टी यहां की करीब 31 फीसदी आदिवासी आबादी के लिए एक अलग राज्य यानी 'ग्रेटर त्रिपरा लैंड' बनाने की बात कर रही है. त्रिपुरा की विधानसभा में कुल 60 सीटें हैं लेकिन इनमें से 20 ऐसी हैं जहां आदिवासी समुदाय ही निर्णायक भूमिका में है. बड़ी बात ये भी है कि इसी वादे के साथ पिछले विधानसभा चुनाव में इंडिजिनस पीपुल्स फ़्रंट ऑफ़ त्रिपुरा यानी आईपीएफ़टी ने आदिवासी इलाकों में सीटें जीतकर बीजेपी के साथ गठबंधन करते हुए उसकी सरकार बनवाई थी. मतलब ये कि उस पार्टी की नींव ही अलग त्रिपुरालैंड बनाने की मांग के साथ रखी गई थी. इसलिये सियासी विश्लेषक कहते हैं कि इस चुनाव में भी आदिवासी आबादी के लिए अलग राज्य की मांग एक बड़ा मुद्दा है लेकिन देखना ये होगा कि वो इसे अपने पक्ष में किस हद तक भुना पाती है.


जानकर कहते हैं कि पिछले चुनाव के दौरान भी जनजातीय बहुल आबादी वाली सीटों पर बीजेपी की कोई हैसियत नहीं थी और वह आईपीएफ़टी के भरोसे पर ही थी कि वो कितनी सीटें लेकर आती है. उसे उम्मीद के मुताबिक सीटें मिलीं और उसने बीजेपी को समर्थन देकर उसकी सरकार बनवा दी. लेकिन बीते पांच सालों में ना तो आईपीएफ़टी ने इस पर बात की और ना ही बीजेपी ने. इस बार आईपीएफ़टी के घोषणापत्र में त्रिपुरालैंड का कोई ज़िक्र नहीं है. लेकिन इस चुनाव में उसी पुरानी मांग को लेकर एक नई पार्टी के चुनावी मैदान में कूदने से सारे समीकरण गड़बड़ा गये हैं. 


त्रिपुरा की राजनीति में नए-नए आए टिपरा मोथा दल को पूर्व शाही घराने के वारिस प्रद्योत माणिक देबवर्मा लीड कर रहे हैं. उन्होंने बीजेपी या कांग्रेस-वाम मोर्चा के साथ गठबंधने करने से साफ इनकार कर दिया है. हालांकि, चुनाव के बाद किसी भी राजनीतिक दल के साथ वो गठबंधन कर सकते हैं, उसके लिए माणिक देबवर्मा ने विकल्प खुले रखे हैं. लेकिन उनकी एक शर्त भी है कि वो उसी के साथ गठबंधन करेंगे जो अलग राज्य के रूप में उनकी ग्रेटर टिपरालैंड की मांग का समर्थन करेगा. लेकिन ये एक ऐसी मांग है, जिसका पिछले पांच साल में केंद्र की मोदी सरकार ने समर्थन नहीं किया और संघ व बीजेपी से जुड़े लोगों का मानना है कि आगे भी ऐसा नहीं होगा क्योंकि इसका मतलब है कि हम भानुमति का पिटारा खोल रहे हैं. इसकी बड़ी वजह ये भी है कि त्रिपुरा, गोवा और सिक्किम के बाद देश का तीसरा सबसे छोटा राज्य है, जिसकी आबादी महज 40 लाख के आसपास है.लिहाजा, इसे दो हिस्सों में बांट देने की मांग को मानना केंद्र में बैठी किसी भी सरकार के लिये लगभग असंभव ही दिखता है.


लेकिन उत्तर भारतीयों के मन में एक सवाल जरुर आ सकता है कि वहां के पूर्व शाही घराने के वारिस को ऐसा क्या सुझा कि वे राजनीति में कूद गये? तो इसके लिए त्रिपुरा ट्राइबल एरिया ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसल के चुनाव की चर्चा करना बेहद जरूरी है. साल 2021 में हुए इस चुनाव में टिपरा मोथा की नई-नवेली बनी इस पार्टी ने 30 में से 18 सीटों पर कब्जा कर लिया था. उसी जीत के बाद टिपरा मोथा का उत्साह और विश्वास सातवें आसमान पर पहुंच गया और उत्साहित होकर पार्टी ने विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने का फैसला लिया है.


बता दें कि त्रिपुरा में आठ फ़ीसदी मुस्लिम आबादी है लेकिन वहां सांप्रदायिकता अतीत में कभी कोई बड़ा मुद्दा नही बना है. राज्य की सीमा बांग्लादेश से लगती है और यहां लगभग 65 फ़ीसदी बांग्लाभाषी रहते हैं. लेकिन साल 2021 में बांग्लादेश में दुर्गा पंडालों में जो हिंसा हुई उसकी आंच त्रिपुरा तक भी पहुंची थी. वो भी वक़्त के साथ ठंडी पड़ गई लेकिन जानकार मानते हैं कि इस चुनाव में एक बड़ा मुद्दा राजनीतिक हिंसा का भी है. विरोधी एक बड़ा आरोप ये लगा रहे हैं कि बीजेपी के पांच साल के शासन के दौरान राजनीतिक हिंसा बढ़ी है और सरकार ने क़ानून-व्यवस्था (लॉ-एंड ऑर्डर) सुधारने के लिए कुछ नहीं किया. 


हालांकि ऐसा नहीं है कि राजनीतिक हिंसा त्रिपुरा में पहली बार हो रही है. लेफ़्ट और कांग्रेस शासन के दौर से राज्य में ऐसा होता आया है. लेकिन विपक्षी दलों के नेताओं व कुछ पत्रकारों  समेत आम लोगों का एक तबका भी ये मानता है कि 'बीजेपी की सरकार में ख़ासकर बिप्लब देब के सीएम रहते हुए राजनीतिक हिंसा काफ़ी ज़्यादा हुई.' हो सकता है कि बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व  तक भी ये आवाज़ पहुंची हो और शायद इसीलिये उसने चुनाव से महज नौ महीने पहले ही पिछले साल मई में बिप्लव देब को हटाकर माणिक साह को मुख्यमंत्री बनाया.


त्रिपुरा की राजनीति को बेहतर तरीके से समझने वाले स्थानीय पत्रकार शेखर गुप्ता कहते हैं, "बीजेपी को सबसे बड़ा नुक़सान इस बात का हो सकता है कि उसने बीते पांच साल में कोई नया काम राज्य में नहीं किया. सरकार ने ऐसा कोई नया इंफ्रास्ट्रक्चर  तैयार ही नहीं किया,जिसके बूते उसे आसानी से जीत मिल जाये. उनके मुताबिक  कई प्रोजेक्ट का ठेका त्रिपुरा की कंपनियों को ना देकर बाहर की कंपनी को दिया गया.इसका ताजा उदाहरण लाइटहाउस प्रोजेक्ट है, जिसका कॉन्ट्रैक्ट गुजरात की कंपनी को मिला लेकिन आज तक वो काम बीच में ही लटका हुआ है. लिहाजा,बीजेपी के पास पीएम मोदी के लोकप्रिय चेहरे के सिवा ऐसा और कुछ ठोस नहीं है,जिसके आधार पर वो इतनी आसानी से राज्य की सत्ता में दोबारा वापसी कर ले.


लेकिन दिल्ली के सियासी गलियारों में उफ़ान पर आ रही इन खबरों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि बेशक बीजेपी बहुमत के आंकड़े से दूर रहे लेकिन सरकार तो वही बनायेगी. यानी पार्टी के रणनीतिकारों ने प्लान-टू तैयार कर रखा है, जिसका इस्तेमाल 2 मार्च को काउंटिंग वाले दिन ही होगा. शायद इसलिये भी कि उत्तर-पूर्वी राज्यों के क्षेत्रीय दलों का कोई दीन-ईमान नहीं होता और अक्सर वे केंद्र की सत्ता में बैठी पार्टी का ही साथ देती आई हैं.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)