इस साल बीजेपी, कांग्रेस और सीपीएम की पहली बड़ी अग्निपरीक्षा त्रिपुरा में होने जा रही है. त्रिपुरा विधानसभा की 60 सीटों पर 16 फरवरी को मतदान होना है. इन तीनों ही पार्टियों के लिए त्रिपुरा के सियासी दंगल में अलग-अलग नजरिए से खुद को साबित करने की चुनौती है.
बदले समीकरणों के साथ चुनाव
सियासी दलों और त्रिपुरा के मतदाताओं दोनों के नजरिए से त्रिपुरा विधानसभा का इस बार का चुनाव अब तक के चुनावों से सबसे अलहदा है. 2018 चुनाव के मुकाबले इस बार यहां सियासी समीकरण पूरी तरह से बदले हुए हैं. 2018 में बीजेपी, सीपीएम, कांग्रेस तीनों ही अलग-अलग एक-दूसरे को चुनौती दे रहे थे. लेकिन इस बार बीजेपी की सत्ता में वापसी को रोकने के लिए कई दशकों तक विरोधी रहे सीपीएम और कांग्रेस एक-दूसरे के कंधे पर हाथ रखकर सियासी रण में कदमताल कर रहे हैं.पिछली बार बीजेपी को उस वक्त आदिवासियों के बीच लोकप्रिय इंडीजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (IPFT) के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का भी फायदा मिला था. इस बार टिपरा मोथा के चुनावी मैदान में होने की वजह से आदिवासियों का फिर से उसी तरह का समर्थन हासिल करना बीजेपी के लिए आसान नहीं है.
सीपीएम-कांग्रेस गठबंधन कितना बड़ा खतरा
राजनीति में स्थायी तौर से सगे या दुश्मन होने की कोई अवधारणा नहीं है. ये कहावत इस बार त्रिपुरा के बदले सियासी हालात पर बिल्कुल सटीक बैठता है. वाम दलों और कांग्रेस के बीच चुनाव पूर्व गठबंधन से त्रिपुरा के सियासी समीकरण ही बदल गए. गठबंधन के तहत वाम दलों ने 47 सीटें अपने पास रखे और 13 सीटें कांग्रेस को दिए है. वाम दलों के हिस्से में आए 47 में से 43 पर सीपीएम के उम्मीदवार चुनाव लड़ेंगे. वहीं सीपीआई, फॉरवर्ड ब्लॉक, आरएसपी और निर्दलीय एक-एक सीट पर चुनाव लड़ेंगे. लेफ्ट के साथ गठबंधन के तहत भले ही कांग्रेस को महज़ 13 सीटें ही मिली हैं, लेकिन ये वो सीटें हैं जिनपर कांग्रेस की पकड़ अच्छी मानी जाती है. इनमें कैलाशहर, धर्मनगर, पबियाचारा, करमछरा, कमलपुर, तेलियामुरा, मोहनपुर, अगरतला, बाराडोवाली, बनमालीपुर, सूर्यमणिनगर, चारिलम और माताबारी विधानसभा सीटें शामिल हैं. इनमें से 5 सीटें ऐसी हैं, जहां पिछले चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार 5 हजार या इससे कम वोटों के अंतर से हार गए थे. अगर 13 में इन 5 सीटों पर भी कांग्रेस जीत हासिल करने में कामयाब रहती है तो बीजेपी के लिए सत्ता की राह मुश्किल हो जाएगी.
बीजेपी को अकेले हराना था मुश्किल
2018 के चुनाव नतीजों के बाद जिस तरह से त्रिपुरा में बीजेपी मजबूत होकर उभरी है, उससे सीपीएम को एहसास हो गया था कि इस बार वो अकेले बीजेपी को चुनौती नहीं दे सकती. बीजेपी विरोधी वोटों को बंटने से रोकने के लिए ही सीपीएम ने कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ना का फैसला किया है. त्रिपुरा की राजनीति में ये एक नए अध्याय की शुरुआत है. इससे पहले यहां सीपीएम और कांग्रेस धुर विरोधी रहे थे. त्रिपुरा में 1967 से विधानसभा चुनाव हो रहा है. बीते 6 दशक के राजनीतिक इतिहास में त्रिपुरा में सीपीएम और कांग्रेस उत्तर और दक्षिण ध्रुव की तरह थे. 2018 तक त्रिपुरा की सत्ता के लिए ये दोनों दल एक-दूसरे से भिड़ते रहे थे. लेफ्ट और कांग्रेस एक-दूसरे की धुर विरोधी के तौर पर त्रिपुरा में 53 साल राज कर चुके हैं. लेकिन बीजेपी के विजय रथ को रोकने के लिए इस बार लेफ्ट और कांग्रेस की जुगलबंदी देखने को मिल रही है.
सीपीएम त्रिपुरा की सत्ता में चाहती है वापसी
2018 में हुए विधानसभा चुनाव में 25 साल से सत्ता पर काबिज सीपीएम को बीजेपी से मुंह की खानी पड़ी थी. सीपीएम को 60 में से सिर्फ 16 सीटों पर ही जीत मिली. बीजेपी के एतिहासिक प्रदर्शन से एक झटके में ही त्रिपुरा पर ढाई दशक से चली आ रही सीपीएम की सत्ता छीन गई थी. त्रिपुरा के 6 दशक की चुनावी राजनीति में 35 साल सत्ता पर वाम दलों का कब्जा रहा है. त्रिपुरा में 1978 में पहली बार सीपीएम की सरकार बनी. 1978 से 1988 के बीच नृपेन चक्रबर्ती की अगुवाई में सीपीएम की सत्ता रही थी. उसके बाद 1993 से 1998 तक दशरथ देबबर्मा की अगुवाई में सीपीएम की सरकार रही. 1998 से माणिक सरकार का दौर शुरू हुआ. माणिक सरकार की अगुवाई में मार्च 1998 से लेकर मार्च 2018 तक त्रिपुरा में वाम दलों का शासन रहा. ये आंकड़े बताने के लिए काफी हैं कि त्रिपुरा सीपीएम के लिए कितना महत्वपूर्ण है. 2018 में त्रिपुरा में हार के बाद वाम दलों के लिए अब पूरे देश में सिर्फ केरल में ही सरकार बची है. वाम मोर्चा 2011 में ही पश्चिम बंगाल की सत्ता से बाहर हो गई थी.
कांग्रेस के लिए है अस्तित्व की लड़ाई
एक वक्त था जब त्रिपुरा की राजनीति में कांग्रेस की तूती बोलती थी. त्रिपुरा में 1963 से मुख्यमंत्री पद की व्यवस्था है. कांग्रेस जुलाई 1963 से नवंबर 1971 (मुख्यमंत्री सचिन्द्र लाल सिंह), फिर मार्च 1972 से मार्च 1977 (मुख्यमंत्री सुखमय सेन गुप्ता) त्रिपुरा की सत्ता पर काबिज रही. इसके अलावा फरवरी 1988 से फरवरी 1992 (मुख्यमंत्री सुधीर रंजन मजूमदार) और फिर फरवरी 1992 से मार्च 1993 ( मुख्यमंत्री समीर रंजन बर्मन) तक त्रिपुरा में कांग्रेस की सरकार रही है. इस तरह से कांग्रेस 18 साल से ज्यादा यहां सत्ता में रही है. 1993 से 2018 तक कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल के तौर पर त्रिपुरा की सियासत में अपनी उपस्थिति बनाए हुई थी. लेकिन 2018 का चुनाव कांग्रेस के लिए बुरा सपना साबित हुआ. इस चुनाव में कांग्रेस शून्य पर पहुंच गई. 59 सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद पार्टी को किसी भी सीट पर जीत नसीब नहीं हुई. उसका वोट बैंक भी सिमट कर 1.79% रह गया. एक तरह से कांग्रेस का सफाया हो गया. कांग्रेस को अच्छे से अहसास था कि आगामी चुनाव में वो अकेले त्रिपुरा की सत्ता तक नहीं पहुंच सकती है. कांग्रेस पिछले चुनाव के नतीजों से भी ख़ौफ़ज़दा थी. सीपीएम से गठबंधन कांग्रेस के अस्तित्व के लिए जरूरी हो गया था.
आदिवासियों को लुभाने की कोशिश
सीपीएम के दिग्गज नेता और त्रिपुरा के चार बार मुख्यमंत्री रहे माणिक सरकार इस बार चुनाव नहीं लड़ रहे हैं. सीपीएम-कांग्रेस को पता है कि यहां की सत्ता के लिए आदिवासियों का समर्थन फिर से हासिल करना कितना अहम है. इसके लिए कांग्रेस महासचिव अजय कुमार ने कह भी दिया कि अगर वाम-कांग्रेस गठबंधन को सत्ता मिलती है को सीपीएएम का कोई आदिवासी नेता और 'माटी पुत्र' ही राज्य का मुख्यमंत्री बनेगा. हालांकि रणनीति के तहत सीपीएम की ओर से इस पर कुछ नहीं कहा गया है. कांग्रेस-सीपीएम गठबंधन चाहता है कि आदिवासियों के वोट बैंक में बंटवारा नहीं हो. आदिवासियों के बीच टिपरा मोथा की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए सीपीएम-कांग्रेस गठबंधन को इस बात का डर सता रहा है कि वोटों के बंटवारे से बीजेपी को लाभ मिल सकता है. उनकी मंशा की मंशा है कि आदिवासियों का वोट टिपरा मोथा के पास न जाकर उनके गठबंधन को ही मिले.
टिपरा मोथा भी बिगाड़ सकती है बीजेपी का खेल
सीपीएम-कांग्रेस गठबंधन के साथ ही बीजेपी को टिपरा मोथा से भी चुनौती मिल रही है. यहां के मूल निवासियों के लिए अलग राज्य ग्रेटर टिपरालैंड की मांग को लेकर शुरू हुए आंदोलन से उपजी टिपरा मोथा आदिवासियों के बीच बेहद लोकप्रिय हो गई है. टिपरा मोथा के प्रमुख प्रद्योत किशोर माणिक्य देबबर्मा की सियासी हैसियत बीते चार साल में काफी बढ़ गई है. टिपरा मोथा The Indigenous Progressive Regional Alliance का संक्षिप्त नाम है. कांग्रेस के पुराने नेता और पूर्व शाही परिवार के वंशज प्रद्योत देबबर्मा ने 2019 में कांग्रेस से इस्तीफा देकर इस संगठन की नींव रखी. इस संगठन ने आदिवासियों के लिए ग्रेटर टिपरालैंड के नाम से अलग राज्य की मांग के लिए आंदोलन शुरु किया. जल्द ही त्रिपुरा के आदिवासियों के बीच इसकी अच्छी खासी पैठ बन गई. दो साल के भीतर ही इसने अपने राजनीतिक मंशा को भी जाहिर कर दिया. फरवरी 2021 में इसके प्रमुख प्रद्योत देबबर्मा ने एलान कर दिया कि अब टिपरा मोथा राजनीति में उतरेगी.
2021 के TTAAD चुनाव में दिखाया था दम
अप्रैल 2021 से टिपरा मोथा त्रिपुरा आदिवासी क्षेत्र स्वशासी जिला परिषद (TTAAD)) की सत्ता पर काबिज है. अप्रैल 2021 में त्रिपुरा आदिवासी क्षेत्र स्वशासी जिला परिषद का चुनाव हुआ. इसमें टिपरा मोथा ने बीजेपी-आईपीएफटी गठबंधन को मात देते हुए 28 में से 18 सीटें जीतकर बहुमत हासिल कर ली. इसके साथ ही परिषद पर लेफ्ट के 15 साल के शासन का भी अंत कर दिया. त्रिपुरा की राजनीति में TTAAD का खास महत्व है. संविधान की छठी अनुसूची के तहत त्रिपुरा स्वायत्त जनजातीय जिला परिषद, पूर्वोत्तर राज्यों का सबसे ताकतवर स्वायत्त निकाय (autonomous bodies) है. TTAAD के तहत त्रिपुरा का करीब 70 फीसदी एरिया आ जाता है. वहीं त्रिपुरा की 35 प्रतिशत परिषद के एरिया में रहती है. इन आंकड़ों से जाहिर है कि त्रिपुरा आदिवासी क्षेत्र स्वशासी जिला परिषद की सत्ता हासिल कर टिपरा मोथा सूबे में एक बड़ी राजनीतिक ताकत बन गई है.
टिपरा मोथा की चुनौती कितनी बड़ी है?
बीजेपी इस बार भी IPFT के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है. बीजेपी के उम्मीवार 55 सीटों पर और IPFT के उम्मीदवार 5 सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं. पिछली बार IPFT के साथ की वजह से ही बीजेपी त्रिपुरा में शून्य से सत्ता के शीर्ष पर पहुंची थी. IPFT भी अलग राज्य की मांग से जुड़े आंदोलन से उपजी पार्टी है. IPFT के साथ गठबंधन का ही असर था कि सीपीएम से महज़ 1.37% वोट ज्यादा मिलने के बावजूद बीजेपी 36 सीटें जीतने में कामयाब हुई और IPFT को 8 सीटों पर जीत मिली थी. त्रिपुरा में 20 विधानसभा सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है. त्रिपुरा की आबादी में एसटी समुदाय की हिस्सेदारी करीब 32% है. बीते 5 साल में आईपीएफटी का आदिवासियों पर पकड़ कमजोर हुई है और टिपरा मोथा की पकड़ बढ़ी है. इस बार टिपरा मोथा ने 42 उम्मीदवार उतारे हैं. इनमें 20 सीटें तो वे हैं, जो आदिवासियों के लिए आरक्षित है. साथ ही टिपरा मोथा ने उन सीटों पर भी अपने उम्मीदवार उतारे हैं, जिन पर आदिवासियों की आबादी अच्छी खासी है. अगर टिपरा मोथा ने आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों पर भी बेहतर प्रदर्शन किया तो ये बीजेपी के लिए परेशानी का सबब बन सकता है.
टिपरा मोथा से बीजेपी को मिल सकता है लाभ!
अगर इस बार बीजेपी को सिर्फ सीपीएम-कांग्रेस गठबंधन से चुनौती मिलती तो, फिर ये बीजेपी के ज्यादा नुकसान दायक हो सकता था. इससे बीजेपी विरोधी वोट एक ही पाले में जाने की संभावना ज्यादा होती. लेकिन टिपरा मोथा के चुनावी मैदान में कूदने से बीजेपी विरोधी वोटों में बंटवारा होना तय है और इस नजरिए से सोचें तो बीजेपी के लिए टिपरा मोथा का चुनाव में उतरना फायदेमंद भी साबित हो सकता है. विरोधी वोटों के बंटवारा होने से सत्ता विरोधी लहर यानी एंटी इनकंबेंसी के खतरों से बीजेपी को कम नुकसान झेलना पड़ सकता है.
2018 में शून्य से सत्ता के शीर्ष पर पहुंची बीजेपी
1983 से अब तक के चुनावी नतीजों के विश्लेषण से कोई भी समझ सकता है कि त्रिपुरा की राजनीति में बीजेपी का सफर कितना मुश्किल भरा रहा है. 2018 से पहले कोई सोच भी नहीं सकता था कि आने वाले वक्त में त्रिपुरा की सत्ता बीजेपी संभालेगी. इसकी एक बड़ी वजह थी. 2018 से पहले बीजेपी राज्य में किसी भी विधानसभा चुनाव में एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हुई थी. त्रिपुरा की राजनीति में बीजेपी 1983 में उतरी. सीटों के हिसाब से शून्य के साथ शुरुआत हुई. 30 साल बाद भी 2013 में सीटों के लिहाज से बीजेपी शून्य पर ही टिकी रही. लेकिन 35 साल के लंबे इंतजार के बाद बीजेपी 2018 में शून्य से सीधे सत्ता के शीर्ष पर जा पहुंची. अब इस बार बीजेपी के सामने इस बात को साबित करने की चुनौती है कि त्रिपुरा में 2018 में मिली जीत महज़ सीपीएम के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी का नतीजा नहीं था, बल्कि वास्तविक तौर से त्रिपुरा के लोग बीजेपी को पसंद करते हैं.