तुर्किए ऐसा इस्लामिक मुल्क है, जो भूकंप से हुई तबाही के वक़्त भारत से मिली मदद का एक तरफ तो अहसान जताता है लेकिन वहीं दूसरी ओर संयुक्त राष्ट्र में अक्सर कश्मीर का राग अलापते हुए पाकिस्तान का साथ देने से भी बाज नहीं आता है. बीते दिनों में भी उसने अपना यही रुख दोहराया है. वहां अगले मई महीने में राष्ट्रपति के साथ ही संसदीय चुनाव हैं. पिछले 20 साल से सत्ता पर काबिज़ राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन के ख़िलाफ़ समूचा विपक्ष एकजुट हो गया है और उसने एक ऐसे नेता को मैदान में उतारने का ऐलान किया है, जिसे "तुर्किए का गांधी" कहा जाता है. मुख्य सेक्युलर विपक्षी दल रिपब्लिकन पीपुल्स पार्टी (CHP) के नेता कमाल किलिकडारोग्लू (Kemal Kilicdaroglu) अब एर्दोगन को टक्कर देंगे, लेकिन सवाल ये है कि तुर्किए के गांधी कहलाने वाले कमाल वाकई क्या ऐसा कोई कमाल कर पायेंगे कि वे नये राष्ट्रपति चुन लिये जायें?


हालांकि विश्लेषक मानते हैं कि 14 मई को होने वाला चुनाव राष्ट्रपति एर्डोगन की सियासी जिंदगी का सबसे कठिन चुनाव साबित हो सकता है. पिछले महीने आया भूकंप इस चुनाव में बड़ी भूमिका इसलिये निभा सकता है कि लोगों की जिंदगी अभी तक पटरी पर नहीं लौटी है और इस तबाही के बाद सरकार की तरफ से मिलने वाली इमदाद को लेकर भी लोगों की एर्दोगन के प्रति नाराजगी बढ़ी है.इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि एर्दोगन जब भी इन भूकंप प्रभावित इलाकों में जा रहे थे, तब लोगों ने उनका जबरदस्त तरीके से विरोध किया था.गौरतलब है कि इस भूकंप में करीब 50 हजार लोग मारे गये थे और हजारों अन्य घायल हुए थे. भूंकप से हुई तबाही के अलावा बढ़ती हुई मंहगाई एक बड़ा चुनावी मुद्दा बनेगा. तुर्किए में आधिकारिक रूप से महंगाई की दर इस समय 64 फ़ीसदी से भी ज़्यादा है और डॉलर के मुकाबले वहां की मुद्रा लीरा की कीमत लगातार गिरती जा रही है. वैसे कुछ विश्लेषकों का तर्क है कि समय से पहले चुनाव की तारीख़ तय करने से राष्ट्रपति अर्दोआन को सरकार की तरफ़ से दी गई आर्थिक मदद को भुनाने में मदद मिल सकती है.लेकिन ग्लोबल पार्टनर्स के तुर्किए कंसल्टेंट अतिल येसिल्दा का मानना है कि जिस गति से मंहगाई बढ़ रही है, ऐसे में इन सब्सिडीज़ का कोई फ़ायदा नहीं होगा.


राष्ट्रपति एर्दोगन का मुकाबला ऐसे विपक्ष से है, जो मध्यमार्गी-वामपंथी और दक्षिणपंथी छह दलों का गठबंधन है जिसे टेबल ऑफ़ सिक्स कहा जाता है.कमाल किलिकडारोग्लू राजनीति में आने से पहले सिविल सेवा में रहे हैं..चूंकि उनकी शक्ल महात्मा गांधी से काफी मिलती जुलती है,इसलिये वहां के मीडिया ने ही उन्हें 'तुर्किए के गांधी' की उपाधि दी है.लेकिन उनमें कुछ और भी समानता हैं.पिछले दो दशक में राष्ट्रपति एर्डोगन ने अपने राजनीतिक विरोधियों को जेल भेजने के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं.मोटे अनुमान के मुताबिक वहां की जेलों में पिछले साल तक करीब 3 लाख राजनीतिक कार्यकर्ता कैद थे. लिहाज़ा, एक पत्रकार को कथित जासूसी के मामले में जब 25 साल की सजा सुनाई गई,तो इसका विरोध करने के लिए कमाल किलिकडारोग्लू ने गांधी के नमक सत्याग्रह आंदोलन का ही तरीका अपनाया. उन्होंने अंकारा से इस्तांबुल तक 450 किलोमीटर लंबी पदयात्रा करके राष्ट्रपति एर्डोगन की निरंकुशता के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करते हुए लोगों का ध्यान अपनी तरफ खिंचा. 


यहीं से वे विपक्ष के एक बड़े नेता बनकर उभरे.हालांकि 75 बरस के कमाल की इमेज एक ईमानदार और विनम्र नेता की है.वह देश में सिविल राइट्स, सामाजिक न्याय और लोकतंत्र की वकालत करने की एक बड़ी आवाज माने जाते हैं.यही वजह है कि जब उन्हें छह-दलीय विपक्षी गठबंधन की ओर से नेता चुना गया तो पूरे देश में उनके समर्थकों का जोश व उत्साह सातवें आसमान पर था. वैसे किलिकडारोग्लू के कई सहयोगियों को ये भी डर है कि वे मतदाताओं को उतनी ताकत से अपनी तरफ खींच पाएंगे कि एर्डोगन को शिकस्त दी सकें.लेकिन उन्होंने अपने समर्थकों से वादा किया है कि वे लोगों की सामूहिक राय के साथ ही तुर्किए पर शासन करेंगे. उन्होंने कहा कि हमारा लक्ष्य शांति है और हम देश में समृद्धि, शांति और आनंद चाहते हैं. यह भी वादा किया है कि वह देश को एक संसदीय प्रणाली की ओर वापस ले जाएंगे. 2018 में सत्ता में आने के बाद एर्दोगन ने इसे राष्ट्रपति प्रणाली में बदल दिया था.विपक्षी दलों ने संकल्प किया है कि सत्ता में आने पर वे अर्दोआन की आर्थिक नीतियों को बदल देंगे, सख़्त मॉनेटरी पॉलिसी लागू करेंगे और केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता बहाल करेंगे.बता दें कि इससे पहले तुर्किए में प्रधानमंत्री के पास ही ताकत होती थी, लेकिन एर्दोगन ने प्रधानमंत्री का पद खत्म कर दिया और देश में राष्ट्रपति की प्रथा को शुरु किया. नई व्यवस्था के तहत राष्ट्रपति और संसदीय चुनाव एक ही दिन होते हैं.


गौरतलब है कि मुख्य विपक्षी दल CHP को आधुनिक तुर्किए के संस्थापक मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने बनाया था,जो देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी है. हालांकि 1990 के दशक से ही वह सत्ता से बाहर है.कमाल ने अल्पसंख्यक समूहों को अपनी ओर करने के साथ दक्षिणपंथी दलों के साथ गठबंधन कर बैलेंस बनाने की कोशिश की है.विश्लेषक इसे एक कारगर सियासी रणनीति मान रहे हैं और इसीलिये कहा जा रहा है कि इस बार मुकाबला बराबरी की टक्कर वाला होगा.
बता दें कि एर्दोगन की सरकार वाले तुर्किए ने भारत के ऑपरेशन दोस्त के बाद भी संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर का मुद्दा उठाया और पाकिस्तान का साथ दिया था.इसलिये देखना होगा कि अगर वहां निज़ाम बदलता है,तो कश्मीर के मसले पर उसके रुख में कोई बदलाव आयेगा या नहीं? 


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.