वह आए, लेकिन तुरंत लौट नहीं पाए. बात कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो की है. उनका विमान दो दिनों तक दिल्ली में ही अटका रहा और वह यहीं रुके रहे. जी20 की बैठक के तुरंत बाद यह हुआ, लेकिन भारत सरकार का कोई मंत्री भी उनसे नहीं मिलने गया. जी20 के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने भी उनको खालिस्तान के मसले पर खरी-खरी सुना दी. 


भारत की खरी-खरी कनाडा को नापसंद


जी20 का नेतृत्व भारत ने जिस तरह से किया, उसका संदेश पूरे विश्व में गया है. पूरी दुनिया ने उसे स्वीकार भी किया है. कनाडा और भारत के बीच संबंधों में पिछले कुछ दिनों से कड़वाहट चली आ रही है. यह बीते कुछ वर्षों से तेज हो गया है और इसकी मुख्य वजह कनाडा सरकार का खालिस्तान-समर्थक तत्वों की अनदेखी करना या शह देना है. इसीलिए, जब कनाडा के प्रधानमंत्री ट्रूडो और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच द्विपक्षीय वार्ता हुई तो मोदी ने इस मसले को उठाया. यह कोई पहली बार भी नहीं हुआ है. 2018 में जब भारत दौरे पर ट्रूडो आए थे, तब भी यही बात हुई थी. दोनों ही देशों के संयुक्त बयान में यह स्वीकार किया गया था कि दोनों ही देश एक-दूसरे की अखंडता और संप्रभुता का सम्मान करेंगे और एक-दूसरे की जमीन का आतंकी गतिविधियों में इस्तेमाल नहीं होने देंगे. यही बात इस बार भी प्रधानमंत्री मोदी ने उठाई. उन्होंने यही पूछा कि जब दोनों देशों के बीच संधि है, तो फिर कनाडा अपनी जमीन का इस्तेमाल भारत-विरोधी गतिविधियों में क्यों होने दे रहा है? ये कोई नयी बात नहीं है, 2018 में ऐसी संधि हुई थी.


प्रधानमंत्री मोदी की यही बात शायद ट्रूडो को बुरी लगी और हमने देखा कि अगले ही दिन एफटीए (फ्री ट्रेड एग्रीमेंट) की जो वार्ता दोनों देशों के बीच चल रही थी, उस पर रोक लग गयी. इसका कोई कारण भी नहीं बताया गया. हालांकि, इससे दोनों देशों पर कोई खास फर्क भी नहीं पड़ने वाला है, क्योंकि भारत-कनाडा के बीच के आर्थिक संबंध का आयतन बहुत अधिक नहीं है. हां, इसका संदेश जरूर यह जा रहा है कि कनाडा-भारत के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. इसके अन्य मायने हैं, जिस पर विचार किया जा रहा है.


कनाडा की घरेलू पॉलिटिक्स जिम्मेदार


ट्रूडो ने फ्रीडम ऑफ स्पीच का इस्तेमाल अपने भाषण में किया है. कहीं न कहीं यह दिखता है कि वह इसके बहाने खालिस्तान समर्थकों का बचाव कर रहे हैं. इसमें दो-तीन बातें समझने की हैं. पहली तो यह कि भारत आतंकवाद का शिकार रहा है और लंबे समय तक रहा है, आज भी वह इससे जूझ रहा है. कनाडा को भी देखें तो उसके इतिहास में जो सबसे बड़ा आतंकी हमला हुआ था, तो वह कनिष्क बांबिंग था. एयर इंडिया के विमान को 1985 में खालिस्तानियों ने उड़ा दिया था. उसमें 331 यात्री मारे गए थे. उसके बाद भी कई नेताओं की हत्या वहां हुई है, तो कनाडा बचा हुआ नहीं है. अब यही कहा जा सकता है कि कनाडा आग से खेल रहा है, उसमें खुद कनाडा के हाथ भी जलेंगे.


ट्रूडो इस बात को जानते हैं, लेकिन कुछ कर नहीं पा रहे हैं, तो इसके भी कारण हैं. कनाडा में भारतीय मूल के लोग काफी संख्या में हैं और रसूखदार भी हैं. भारतीय लोग कनाडा के समाज में अच्छा कर रहे हैं और काफी योगदान भी वह कनाडा के समाज में दे रहे हैं. कनाडा में 25 से 30 सीटों को भारतीय प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं. उसमें से भी बहुसंख्यक सिख हैं. हालांकि, इसका अर्थ यह नहीं कि जितने सिख हैं, वे खालिस्तानी हैं. एक छोटा सा धड़ा है, जो खालिस्तान को समर्थन करता है. यानी, कनाडा की राजनीति में भारतीय मूल के लोग एक अहम फैक्टर हैं. दूसरी बात यह कि जस्टिन ट्रूडो की सरकार जो है, वह दो बार से अल्पमत की सरकार है. उसे पूर्ण बहुमत नहीं है. कनाडा में बहुमत के लिए जो 170 का आंकड़ा है, वह ट्रूडो की सरकार छू नहीं पा रही है. इनकी सरकार को बाहर से एनडीपी का समर्थन मिल रहा है. उसके नेता जगमीत सिंह हैं. वह भी खालिस्तान को समर्थक देनेवाले माने जाते हैं. यह भी माना जाता है कि जिस पार्टी का वह समर्थन ले रहे हैं, उसे नाराज नहीं करना चाहते.


घरेलू राजनीति है जिम्मेदार


कनाडा की घरेलू राजनीति जाहिर तौर पर जिम्मेदार है. ट्रूडो की पार्टी से ही रमेश सांगा सांसद थे. वह दूसरी बार सांसद थे, लेकिन उनको पार्टी से निकाल दिया जाता है. उनके लिए पार्टी ने कहा है कि वह पार्टी-विरोधी गतिविधियों में संलग्न थे, लेकिन सच तो यह है कि उन्होंने अपने दल के खालिस्तान-समर्थन का विरोध किया था और इसीलिए उनको निकाला गया. फ्रीडम ऑफ स्पीच या आंतरिक मामलों में दखल की बात कनाडा की सरकार न करे, तो ही अच्छा है. हमने भी देखा है कि किसान-आंदोलन के समय कनाडा की सरकार और मंत्री किस तरह से प्रतिक्रिया दे रहे थे. इसके अलावा रेफरेंडम-2020 भी हमको पता है, इंदिरा गांधी का पुतला जिस तरह से निकाला गया, भारतीय राजदूतों के नाम निकाले जाते हैं, उन पर हमला किया जाता है, किल इंडिया, किल इंडियन एंबैसडर के नारे लगते हैं, तो यह साफ तौर पर जेनेवा प्रोटोकॉल का उल्लंघन है. इस प्रोटोकॉल के मुताबिक जो भी होस्ट कंट्री है, वह अपने मेहमान राजनयिकों की सुरक्षा करेंगा. इस तरह के हमले होंगे तो कोई भी संप्रभु राष्ट्र उसे बर्दाश्त नहीं करेगा. भारत ने भी अपना विरोध जताया है औऱ इसी लिए कनाडा की सरकार दबाव में है.


आगे की राह


पंजाब में 90 के दशक में हम आतंकवाद झेल चुके हैं. जब से नरेंद्र मोदी की सरकार आयी है, वह खालिस्तान के मुद्दे पर बिल्कुल स्पष्ट सोच रखती है. सच कहें तो किसी भी तरह के आतंकवाद के प्रति इस सरकार की साफ नीति है कि वह इसका विरोध करेगी. जिस किसी भी देश में प्रो-खालिस्तानी कैंपेन चलता है, भारत उसका विरोध करता है. कनाडा को जरूर ही समझना पड़ेगा. अभी हम बात कर रहे हैं कि कनाडा से हमारे संबंध खराब हैं, लेकिन याद रखना चाहिए कि जब हमने परमाणु परीक्षण किए थे, तो हमारे संबंध इससे भी खराब हो गए थे. कनाडा ने कई तरह के प्रतिबंध हम पर लगाए थे. फिर, 2003 में संबंधों की बहाली हुई थी. कनाडा को समझना होगा कि भारत के साथ यह लुकाछिपी नहीं चल सकती है, वे जो कह रहे हैं, उनको करना भी होगा और भारत की संप्रभुता और अखंडता का सम्मान करना होगा, खालिस्तानियों पर नकेल कसनी होगी. कनाडा ने पहले भी बब्बर खालसा जैसे संगठनों को प्रतिबंधित भी किया था, लेकिन अंदरूनी राजनीति और वोटों के बांट-बखरे की वजह से वह अब शिथिल पड़ रहे हैं.



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