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अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच बरकरार है रार, कांग्रेस के मंसूबे को राजस्थान में लग सकता है धक्का

राजस्थान विधान सभा चुनाव अब 2-3 महीने दूर है.  इस बावजूद प्रदेश कांग्रेस में राजनीतिक रार पर पूर्ण विराम लगता हुआ नहीं दिख रहा है. ऐसे में इसका खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ सकता है. यही पहलू राजस्थान में तेजी से मजबूत होते दिख रही बीजेपी के लिए राजनीतिक संजीवनी का काम कर सकता है.

पायलट और गहलोत के बीच अदावत पुरानी

दरअसल राजस्थान में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट के बीच  2018 के चुनाव के बाद से राजनीतिक प्रभुत्व की लड़ाई शुरू हो गई थी. पिछली बार यहां दिसंबर 2018 में चुनाव होता है और उसके बाद से ही मुख्यमंत्री पद को लेकर अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच रस्साकशी शुरू हो जाती है.

उस वक्त कांग्रेस ने 200 सदस्यीय विधानसभा में 100 सीटें जीतकर बीजेपी से सत्ता छीन ली थी. 2018 में वसुंधरा राजे की सत्ता को उखाड़ फेंकने में तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट की भूमिका को सबसे महत्वपूर्ण माना गया था. इसके बावजूद भी कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने मुख्यमंत्री पद के लिए पुराने दिग्गज नेता अशोक गहलोत पर ही मुहर लगाया. यहीं से मुख्यमंत्री पद को लेकर सचिन पायलट की महत्वाकांक्षा को चोट पहुंचती है. सचिन पायलट खुलेआम अशोक गहलोत के खिलाफ मोर्चा खोल देते हैं.

जुलाई 2020 में पायलट की खुली बग़ावत

जुलाई 2020 आते-आते सचिन पायलट का धैर्य खो जाता है और वे अपने समर्थक विधायकों के साथ गहलोत के खिलाफ बगावत का बिगुल बजाने लगते हैं. उस वक्त हालात इतने बिगड़ गए थे कि सचिन पायलट के अलग पार्टी बनाने या फिर बीजेपी में जाने को लेकर सियासी अटकलें भी लगने लगी थी. सचिन पायलट अपने खेमे के 18 विधायकों के साथ राजस्थान से बाहर मानेसर के होटल में ठहर गए थे. हालात ऐसे बन गए थे कि गहलोत को भी अपने समर्थन वाले विधायकों  को बचाने के लिए करीब एक महीने तक जयपुर और जैसलमेर की होटलों में रहना पड़ा था.

उस वक्त प्रियंका गांधी ने अहमद पटेल के साथ मिलकर इस मामले का हल निकाल लिया था. सचिन पायलट पार्टी में रहने को तैयार हो गए थे. अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बने रहे. हालांकि गहलोत ने सचिन पायलट को दोबारा उपमुख्यमंत्री नहीं बनाया और न ही प्रदेश अध्यक्ष बनने दिया. उसके बाद से ही सचिन पायलट और अशोक गहलोत प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर से एक-दूसरे पर शब्दभेदी बाण चलाने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे.

कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व भी था उलझन में

हालात इतने बुरे हो गए थे कि पिछले तीन साल से दिल्ली में बैठे कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को भी समझ नहीं आ रहा था कि गहलोत-पायलट के बीच की तनातनी का कैसे समाधान निकाला जाए. हालांकि चुनावी साल में प्रवेश के साथ ही राजस्थान में पार्टी नेताओं के बीच मचे राजनीतिक घमासान का समाधान निकालने के लिए दिल्ली में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के बीच सुगबुगाहट बढ़ती है.

राहुल-खड़गे के प्रयासों का असर

पिछले कुछ महीनों में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और वरिष्ठ नेता राहुल गांधी अशोक गहलोत और सचिन पायलट से कई बार बात करते हैं. शीर्ष नेतृत्व से पार्टी हित में दोनों में सुलह कराने की भरपूर कोशिश की जाती है. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने 6 जुलाई को दिल्ली में राजस्थान के तमाम बड़े नेताओं के साथ पार्टी की चुनावी रणनीति को लेकर बैठक की थी. इस बैठक में सचिन पायलट भी शामिल हुए थे, जबकि अशोक गहलोत वर्चुअली जुड़े थे. बैठक को गहलोत-पायलट के बीच जारी खींचतान पर पूर्ण विराम लगाने के लिहाज से महत्वपूर्ण बताया गया था.

सचिन पायलट शीर्ष नेतृत्व के आश्वासन से संतुष्ट

इस बैठक के बाद ऐसा लगने लगा था कि शीर्ष नेतृत्व ने सचिन पायलट को मना लिया है. किन शर्तों पर सचिन पायलट माने, इसके बारे में सिर्फ़ सचिन पायलट और कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व को ही पता होगा. लेकिन 8 जुलाई को सचिन पायलट का जो बयान आया था, उससे लगने लगा था कि अब पायलट को चुनाव तक गहलोत से कोई समस्या नहीं है. उन्होंने 8 जुलाई को कहा था कि आगामी चुनाव में पार्टी के सभी नेता एकजुट होकर लड़ेंगे और सामूहिक नेतृत्व ही चुनाव में आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता है.

अशोक गहलोत के मन में खुन्नस बाकी

ऐसा माना जा रहा था कि सचिन पायलट के इस बयान से कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के साथ ही अशोक गहलोत को भी राहत की सांस मिली होगी. हालांकि अशोक गहलोत ने जयपुर में पार्टी के लोकसभा पर्यवेक्षकों और राजस्थान प्रदेश कांग्रेस कमेटी की राजनीतिक मामलों की समिति की बैठक में 11 अगस्त को जो कुछ कहा, उससे ऐसा लगता है कि अभी भी उनके और पायलट के बीच सब कुछ ठीक नहीं है. उस बैठक में सचिन पायलट भी मौजूद थे.

पायलट का नाम लिए बिना अशोक गहलोत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का नाम लेते हुए पुराने दिनों का जिक्र कर डाला कि कैसे उनकी सरकार को गिराने के लिए साजिश रची गई थी. बाद में गहलोत ने अपनी ही पार्टी के नेताओं को निशाने पर लेते हुए इतना तक कह डाला कि पार्टी महासचिव केसी वेणुगोपाल की जगह मैं होता तो एक दिन में बता देता कि अनुशासन हीनता क्या होती है. बाद में गहलोत ने ये भी कहा कि उन्हें सब मालूम है कि क्या-क्या साजिश रची जा रही है.

गहलोत ने सीधे तौर से तो सचिन पायलट का नाम नहीं लिया. लेकिन बैठक में जिस तरह से प्रदेश सरकार में मंत्री प्रताप सिंह खाचरियावास, सुखराम बिश्नोई, पूर्व मंत्री रघु शर्मा, राज्य सभा सांसद नीरज डांगी और एआईसीसी सदस्य और पूर्व सांसद रघुवीर मीणा को खरी-खोटी सुनाई, उससे स्पष्ट है कि सचिन पायलट को लेकर अभी भी गहलोत के मन में खुन्नस खत्म नहीं हुई है.

पायलट के नजरिए में आया है बदलाव

दरअसल अशोक गहलोत के इस तरह के व्यवहार के पीछे की बड़ी वजह सचिन पायलट को लेकर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का सकारात्मक रवैया बताया जा रहा है. माना जा रहा है कि जिस तरह से सचिन पायलट पिछले कुछ दिनों से शांत नजर आ रहे हैं और बार-बार एकजुटता का संदेश दे रहे हैं, वो शीर्ष नेतृत्व से उनको मिले आश्वासन का असर है.

राजस्थान में कांग्रेस के वरिष्ठ चुनाव पर्यवेक्षक मधुसूदन मिस्त्री और प्रदेश में पॉलिटिकल अफेयर्स कमेटी के चेयरमैन सुखजिंदर सिंह रंधावा के साथ मिलकर कांग्रेस महासचिव के. सी. वेणुगोपाल राजस्थान विधानसभा चुनाव की तैयारियों को अंतिम रूप देने में जुटे हैं. इसमें सबसे प्रमुख मुद्दा है सीटों का बंटवारा. सुखजिंदर सिंह रंधावा कह भी चुके हैं कि उम्मीदवारों की पहली सूची सितंबर के आखिर या अक्टूबर के पहले हफ्ते में आने की संभावना है.

अशोक गहलोत का दबाव बनाने की रणनीति

अशोक गहलोत का ये कहना कि हमारी सरकार को दो बार गिराने की कोशिश की गई है और ये चुनाव में मुद्दा रहेगा, एक तरह से बीजेपी के साथ ही सचिन पायलट पर भी निशाना था. इसके जरिए अशोक गहलोत ने पार्टी में बगावती बीज बोने के लिए अप्रत्यक्ष तौर से सचिन पायलट प्रकरण को याद दिलाने की कोशिश की. इसे अशोक गहलोत के दबाव बनाने की रणनीति का हिस्सा भी कहा जा सकता है.

टिकटों के बंटवारे पर दोनों गुटों की नज़र

अभी कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व की ओर से यही कहा जा रहा है कि राजस्थान में पार्टी एकजुटता के साथ चुनाव लड़ने जा रही है. सीएम चेहरे को लेकर शीर्ष नेतृत्व की ओर से कुछ भी नहीं कहा जा रहा है. यही सचिन पायलट की सबसे बड़ी जीत मानी जा रही है. अब अशोक गहलोत और सचिन पायलट दोनों ही चाहेंगे कि टिकटों के बंटवारे में ज्यादा से ज्यादा उनके समर्थकों को तरजीह मिले. चुनाव नतीजों के बाद अगर कांग्रेस सत्ता बरकरार रखने में कामयाब होती है, तो मुख्यमंत्री पद को लेकर यही फैक्टर निर्णायक साबित होने वाला है.

क्या सचिन पायलट को मिलेगा ज्यादा महत्व?

गहलोत या पायलट खेमे में से जिसको भी ज्यादा टिकट मिलेगा, नतीजों के बाद इसका फायदा उस खेमे को मिल सकता है. सचिन पायलट 6 जुलाई को दिल्ली में शीर्ष नेतृत्व के साथ हुई बैठक के बाद से संतुष्ट नजर आ रहे हैं. उसके पीछे बड़ा कारण टिकट बंटवारे में सचिन पायलट को ज्यादा महत्व मिलने की संभावना हो सकती है. अगर ऐसा हुआ तो कांग्रेस की सत्ता बरकरार रहने पर ये अशोक गहलोत के लिए प्रदेश में चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के मंसूबे  के लिए खतरनाक साबित हो सकता है. अशोक गहलोत को इसका एहसास है.

कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने 9 अगस्त को ही राजस्थान प्रदेश कांग्रेस कमेटी के पॉलिटिकल अफेयर्स कमेटी को मंजूरी दी है. पॉलिटिकल अफेयर्स कमेटी अशोक गहलोत, सचिन पायलट, प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा समेत 35 नाम शामिल हैं. इसमें गहलोत के समर्थक माने जाने वाले महेश जोशी, शांति धारीवाल, और धर्मेंद्र राठौड़ को जगह नहीं मिली है. इसके साथ ही इस कमेटी में पायलट के समर्थक माने जाने वाले नेताओं को खूब जगह मिली है.

क्या अशोक गहलोत को सता रहा है डर?

अब 72 साल के अशोक गहलोत को डर सता रहा है कि अगर सचिन पायलट के समर्थकों को ज्यादा टिकट मिल गया और उनमें से ज्यादा लोगों को जीत मिल गई तो ये एक तरह से उनके राजनीतिक भविष्य के अंत की शुरुआत हो सकती है. टिकट बंटवारे पर मंथन जोरों पर है. सचिन पायलट की ओर से ज़ुबानी बाण चलाने का दौर भी थम गया है. ऐसे में पुरानी बातों का जिक्र कर गहलोत दिल्ली में बैठे शीर्ष नेतृत्व के साथ ही टिकट बंटवारे में महत्वूपर्ण भूमिका रखने वाले पार्टी रणनीतिकारों पर भी दबाव बनाना चाहते हैं.

गहलोत के रवैये से पार्टी को नुकसान!

हालांकि अशोक गहलोत के इस रवैये से कांग्रेस की राजस्थान की सत्ता में बने रहने के मंसूबे को धक्का लग सकता है. सचिन पायलट एक युवा नेता के तौर पर बेहद लोकप्रिय है.  पिछली बार कड़ी मेहनत से पार्टी को जीत दिलाने में कामयाब होने के बावजूद वो मुख्यमंत्री नहीं बन सके. अशोक गहलोत के खिलाफ पिछले 4 साल में लगातार मुखर रहने के बावजूद अंत तक उन्होंने जिस संयम का परिचय दिया है, ये उनकी राजनीतिक परिपक्वता को ही दिखाता है.

सचिन पायलट की लोकप्रियता प्रदेश में बढ़ी है

भले ही अशोक गहलोत अपनी कुर्सी बचाने में लगातार सफल होते गए, लेकिन इस दरम्यान सचिन पायलट राजस्थान में और भी मजबूत नेता बनकर उभरे हैं. उनकी छवि एक सुलझे हुए नेता की बनते गई. प्रदेश के आम लोगों के बीच पायलट को लेकर इस तरह का भी परसेप्शन बना है कि उनके साथ पिछले 3 साल में (उपमुख्यमंत्री पद से हटने के बाद) पार्टी  ने सही व्यवहार नहीं किया है. इसके लिए वहां का एक बड़ा तबका अशोक गहलोत के अड़ियल रवैये को जिम्मेदार मानता है.  अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच तनातनी के प्रकरण में प्रदेश की जनता पर पायलट की छवि को लेकर असकारात्मर असर पड़ा है. पूरा प्रकरण अशोक गहलोत के लिए कुर्सी बचाने के लिहाज से तो फायदेमंद रहा, लेकिन राज्य में गहलोत की छवि अब उस तरह से नहीं रह गई है, ये भी सच्चाई है.

राजस्थान की राजनीतिक पिछला ढाई दशक में कांग्रेस नेता अशोक गहलोत और बीजेपी नेता वसुंधरा राजे के इर्द-गिर्द ही घूमते रही है. दिसंबर 1998 से बारी-बारी से यही दोनों नेता राजस्थान के मुख्यमंत्री बनते आए हैं. अशोक गहलोत बतौर मुख्यमंत्री तीसरा कार्यकाल पूरा करने जा रहे हैं. ये कार्यकाल पूरा होने पर पिछले 25 साल में अशोक गहलोत 15 साल और वसुंधरा राजे 10 साल मुख्यमंत्री रहे हैं.

गहलोत प्रकरण से पायलट को हुआ है फायदा

इस लिहाज से देखें तो अशोक गहलोत राजस्थान में कांग्रेस के फिलहाल सबसे वरिष्ठ और कद्दावर नेता है. हालांकि सचिन पायलट ने पिछले एक दशक में बहुत ही तेजी से राजस्थान की राजनीति में अपना कद बढ़ाया है. उसी का नतीजा है कि आज के समय में  राजस्थान में बतौर कांग्रेस नेता सचिन पायलट की लोकप्रियता सबसे ज्यादा है.

सचिन पायलट की उम्र अभी महज़ 45 साल है. वे सितंबर में 46 साल के हो जाएंगे. 2004 के लोकसभा चुनाव में महज़ 26 साल में सचिन पायलट दौसा लोकसभा सीट से सांसद बन गए थे. वे देश में सबसे कम उम्र में सांसद बनने वाले नेता बन गए थे. 2009 में वे अजमेर सीट से लोकसभा सांसद बने. यूपीए 2 के मनमोहन सिंह सरकार में वे केंद्रीय मंत्री भी रहे. जनवरी 2014 से जुलाई 2020 तक उन्होंने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की भी जिम्मेदारी निभाई. उनके पार्टी प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए ही 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जीत मिली थी और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बनी थी.

सचिन पायलट के पास है एक मौका

सचिन पायलट इतनी कम उम्र में राजस्थान की राजनीति के उस मुहाने पर पहुंच गए हैं, जहां से मुख्यमंत्री की कुर्सी ज्यादा दूर नहीं है. अशोक गहलोत जब पहली बार राजस्थान के मुख्यमंत्री दिसंबर 1998 में बने थे तो उनकी उम्र 47 साल थी. वहीं वसुंधरा राजे पहली बार राजस्थान की मुख्यमंत्री  दिसंबर 2003 में बनी थीं. उस वक्त उनकी उम्र 50 साल से ज्यादा थी. अब अगर इस साल नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस फिर से जीत जाती है और पायलट खेमे के ज्यादा से ज्यादा समर्थक जीत हासिल करने में कामयाब होते हैं, तो सचिन पायलट के पास महज़ 46 साल की उम्र में मुख्यमंत्री बनने का मौका होगा. सचिन पायलट ने जिस तरह से चुनाव के ठीक 4-5 महीने पहले से अपने आप को शांत रखा है, उनकी यही शांति अशोक गहलोत की चिंता बढ़ा रही है.

 

कांग्रेस के सामने दो बड़ी चुनौती

अब अगर अशोक गहलोत चुनाव से ठीक पहले अपने बयानों और हरकतों के जरिए कोई भी ऐसा संदेश देने की कोशिश करते हैं, जिससे उनके खेमे के कार्यकर्ताओं में चुनाव के दौरान भी सचिन पायलट और उनके गुट को लेकर नकारात्मक परसेप्शन बना रहे, तो इससे कांग्रेस की उम्मीदों को ही झटका लगेगा. एक तो कांग्रेस के सामने एंटी इनकंबेंसी यानी सत्ता विरोधी लहर से निपटने की चुनौती है. उसके साथ ही कांग्रेस को राजस्थान की उस रिवायत से भी खतरा है, जिसके तहत प्रदेश की जनता हर 5 साल में सरकार बदल देती है.

दिसंबर 1993 से दिसंबर 1998 तक वहां भैरो सिंह शेखावत की अगुवाई में बीजेपी की सरकार थी. उसके बाद नवंबर 1998 से अब तक जितनी बार भी राजस्थान में विधानसभा चुनाव हुआ है, किसी भी पार्टी की सत्ता में लगातार वापसी नहीं हो पाई है. एक बार कांग्रेस और एक बार बीजेपी का सिलसिला चल रहा है. उस परंपरा के तहत इस बार बीजेपी का नंबर है.

हालांकि कांग्रेस इस रिवायत को तोड़ने के लिए हर तरह की कोशिश कर रही है. उसी के तहत अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच रस्साकशी पर विराम लगाने का प्रयास भी शामिल है. लेकिन अशोक गहलोत जिस तरह से बयानबाजी कर रहे हैं और जो रवैया दिखा रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि वो सचिन पायलट को लेकर अभी भी उतने ही रोष में हैं. अगर ऐसा है तो वो कतई नहीं चाहेंगे कि टिकट बंटवारे में सचिन पायलट के खेमे वाले लोगों को ज्यादा महत्व मिले. इसके लिए आने वाले दिनों में वो किसी तरह का राजनीतिक हथकंडा अपना सकते हैं और ये कांग्रेस के मंसूबों के लिए सही नहीं होगा.

ऐसे भी वसुंधरा राजे को एक बार फिर से आगे करने का संकेत देकर और अंदरूनी कलह का तोड़ निकालने के लिए संगठन में कई बदलाव कर बीजेपी राजस्थान में धीरे-धीरे मजबूत होने की राह पर बढ़ रही है. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.] 

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