UCC पर संविधान सभा में भी नहीं थी एक राय, 21वां लॉ कमीशन कर चुका है खारिज, फिर भी लाने से उठ रहे ये सवाल
संसद में भले ही इस वक्त मणिपुर को लेकर हंगामा हो रहा है, लेकिन कयास यह भी लगाए जा रहे हैं कि शायद इसी सत्र में यूनिफॉर्म सिविल कोड का ड्राफ्ट भी सरकार पेश कर दे. यूसीसी को लेकर पिछले कुछ महीनों से देश भर में चर्चा हो रही है. इसके पक्ष-विपक्ष में तमाम तरह के राय कायम किए जा रहे हैं. वैसे, भारत जैसी विविधता और विभिन्नता किसी और देश में मिलनी मुश्किल है, वैसे में यहां एकरूपता को लेकर इस तरह का जोर देना कितना ठीक है, यह भी प्रश्न खड़े करता है. सरकार ने अभी तक इसका ड्राफ्ट पेश नहीं किया है, लेकिन लोगों के बीच इसको लेकर तकरार जारी है.
यूसीसी ही नहीं सभी समस्याओं का हल
हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि एक कोड जैसे यूसीसी आ गया तो हमारी सारी मुश्किलें हल हो जाएंगी. यूसीसी के और भी कई विकल्प हैं. भारत एक बहुत ही धार्मिक देश है. यहां की युवा पीढ़ी भी बहुत धार्मिक है और वह जल्द ही अपने धर्म, अपने रीति-रिवाजों को छोड़ना नहीं चाहते हैं. यही वजह है कि यूसीसी पर इतनी चर्चा भी हो रही है. इसको इस तरह देखना कि इसके बाद सारी चीजें ठीक हो जाएंगी, या पितृसत्ता के खिलाफ हम कारगर हो पाएंगे, ऐसा नहीं है. यूसीसी के बगैर भी आपने देखा कि 21वीं लॉ-कमीशन ने जिस तरह अपनी रिपोर्ट दी है, उसमें काफी सॉल्युशन भी दिए. उसने ये भी कहा कि इस वक्त यूसीसी की जरूरत नहीं, क्योंकि कई विकल्प मौजूद हैं. अगर आप समाज में कोई सुधार लाना चाहते हैं, कानून में कोई सुधार लाना चाहते हैं, तो हो सकता है कि कई बार आपको धर्म के खिलाफ जाना पड़े. कई रिवाज ऐसे होते हैं, जिनकी वजह से औरतों को अधिकार नहीं मिल रहे हों, पितृसत्ता मजबूत हो रही हो, लेकिन भारत के लॉ-मेकर्स ने जब भी ऐसी स्थिति से सामना किया है, तो उन्होंने महिलाओं के अधिकार को प्राथमिकता दी है. उन्होंने ऐसे कई विकल्प भी मुहैया कराए हैं.
हरेक धर्म का अपना कानून, अपनी विशेषता
अगर हम हिंदू धर्म की ही बात करें, तो हिंदू कोड बिल का जब अंबेडकर ने जिक्र किया औऱ बाद में जो कानून बना, 1955 में हिंदू मैरिज एक्ट का, वह काफी अलग था. सारी चीजें शामिल नहीं हो पाती हैं. हालांकि, बदलाव की मांग पर हमारे कानून बनानेवाले ने प्रतिक्रिया दी है और सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है. अब ये जरूरी नहीं है कि समाज की मांग केवल यूसीसी की ही है. अगर हमें पितृसत्ता से लड़ना है, औरतों को अधिकार देना है, तो हम सिंगुलर कानूनों में भी यह कर सकते हैं. जैसे, हिंदू कानून में आपने बेटे-बेटियों को बराबर का उत्तराधिकार दिया. उनको मां-बाप से बराबर प्रॉपर्टी मिलती है. यही बात आप मुस्लिम कानूनों में भी ला सकते हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि उसके लिए पूरे मुस्लिम लॉ को ही खारिज करें. तलाक की ही बात लें तो हिंदू कानून में अलग तरह से कोडिफाइड है, ईसाइयों में अलग तरह से है. इस्लामी कानून कई मामलों में बहुत समानतावादी नहीं है, लेकिन तलाक उसमें बहुत तेजी से हो जाता है. तो, हमारा लक्ष्य ये होना चाहिए कि एक वॉयलेंट मैरिज से अगर कहीं जल्दी छुटकारा मिल जा रहा है, तो उसे ही हम सभी जगह लागू करें और पुरुषों-महिलाओं को बराबर के अधिकार मिलें. हां, ये अधिकार केवल यूसीसी से मिलेंगे, ऐसा कतई नहीं है.
संविधान-सभा भी यूसीसी को लेकर नहीं थी स्पष्ट
जब संविधान बन रहा था और यूनिफॉर्म सिविल कोड की मांग हुई, तो बहुत स्पष्ट नहीं था कि यह कैसा होगा? किस चीज में यूनिफॉर्मिटी यानी एकरूपता की बात हो रही थी? वह कानूनों को ही प्रभावित करेगा, या भाषा को भी, रहन-सहन के तरीके को भी. लोगों को पता नहीं था कि यह पर्सनल लॉ को प्रभावित करेगा, धार्मिक-मजहबी कानूनों को प्रभावित करेगा या संस्कृति को भी? संविधान सभा की बैठक देखें तो उसमें भी मत-भिन्नता मिलती है. कोई कह रहे हैं कि यूसीसी लागू कीजिए, लेकिन पर्सनल लॉ रहने दीजिए. अंबेडकर ने भी जब कहा कि यूसीसी लाएं, तो वह उसको तुरंत लागू करने के पक्ष में नहीं थे. वह समय देने के पक्ष में थे. उस समय इसको लेकर एकमत नहीं थे लोग. नेहरू के भी विचार इस पर अलग थे, क्योंकि उनकी सेकुलरिज्म की अवधारणा अलग थी. वह चाहते थे कि मजहबी कानूनों को कोडिफाई किया जाए. 1950 में हिंदू कानून कोडिफाई किए गए, वह 1960 में मुस्लिम कानूनों को भी कोडिफाई करना चाहते थे. नेहरू भी काफी कमिटेड थे. आज की बात करें तो लगता है कि शायद केवल सरकार ही यूसीसी में दिलचस्पी रखती है.
ऐतिहासिक तौर पर ऐसा नहीं था. हरेक पार्टी और नेता यूनिफॉर्मिटी को लेकर स्पष्ट थे. हां, कुछ चाहते थे कि ऑप्शनल कोड भी आ जाएं. तो, आज का स्पेशल मैरिज एक्ट अगर देखें तो वह एक ऑप्शनल कानून ही है. ऑप्शनल कोड है, लेकिन इस पर सर्व-सहमति नहीं है. यूसीसी को लेकर अभी भी बहुत स्पष्टता नहीं है. जो समस्याएं थीं, उन पर एक-एक कर काम किया गया. जैसे, हिंदू मैरिज एक्ट, हिंदू सक्सेशन एक्ट आया. फिर, 1986 में मुस्लिम वीमेन प्रोटेक्शनल राइट्स ऑन डिवोर्स एक्ट पास किया गया, फिर 1995 में वक्फ-एक्ट पारित हुआ. 2001 में सेक्शन एक्ट में सुधार हुआ, लेकिन इसकी मांग 1960 से चली आ रही थी. तो, यूनिफॉर्मिटी की ओर तो हम बढ़ रहे हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं था कि उसके लिए यूसीसी ही लाएं. कानूनों को एक-एक कर कोडिफाई करने से भी यह हासिल हो रहा है. पुराने वक्त में जो भ्रम यूसीसी को लेकर था, लगता है अभी भी संसद में वही मत-भिन्नता कायम है.
सरकार महिला-हित मात्र नहीं चाहती
21 वीं लॉ-कमीशन से जुड़े होने के नाते मैं उस पर ही टिप्पणी कर सकती हूं. कमीशन ने यह पाया था कि यह मसला इतना घुमा दिया जाता है कि असली बात गुम हो जाती है. अब ये मामला इतना राजनैतिक हो गया है कि इसके इर्द-गिर्द बहुतेरी चीजें ध्रुवीकृत हो गयी हैं. हम शायद यह भूल चुके हैं कि यूसीसी आखिर हम लाना क्यों चाहते हैं, उससे पाना क्या चाहते हैं? सरकार की तरफ से तो यह दलील है कि औरतों के हित में वह कानून लाना चाहती है. हालांकि, जब औऱतों की बात होती है, तो मैरिटल रेप का जो मसला है, तब सुप्रीम कोर्ट में सरकार की तरफ से जो पक्ष रखा गया, उन्होंने कहा कि मैरिटल-रेप को अभी भी वह अपवाद मानेंगे, यानी उसको बलात्कार नहीं मानेंगे. महिलाओं के आंदोलन ने कई बार इसके लिए सरकार को कहा, लेकिन सरकार ने कहा कि नहीं मानेंगे. समलैंगिक विवाह पर भी सरकार की यही स्थिति है. जो भी इस तरह के संबंध में लोग होते हैं, उनको सुरक्षा की जरूरत होती है, लेकिन सरकार उसको मानने को ही तैयार नहीं है. इसलिए, यह संदेह होता है कि सरकार सचमुच औरतों के हित को चाहती है या वह यूसीसी के जरिए किसी अल्पसंख्यक समुदाय को लक्ष्य किया जा रहा है.
नहीं है केवल हिंदू-मुस्लिम का मसला
आजकल डिबेट में भी या तो बीजेपी का पक्ष रखा जाता है, या मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का. यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि यही दोनों पार्टी नहीं हैं, इस मामले में. कभी औरतों का पक्ष नहीं रखा जाता, कभी नॉर्थ-ईस्ट का पक्ष नहीं रखा जाता. उत्तर-पूर्व को संविधान की छठी अनुसूची में बहुत छूट मिली हुई है. वह एक्सेप्शनल है. जहां कहीं भी इस तरह की बात आती है, तो चुप्पी साध ली जाती है. यह लगता है कि सरकार का वास्तव में महिला-हित मुद्दा नहीं है, उसी तरह विपक्ष भी विरोध इसलिए कर रहा है कि उसे यह हेजेमनी थोपने जैसा लगता है. जहां तक सरकार की बात है, उन्हें औरतों के हित में काम करने के लिए कुछ और दिखाना पड़ेगा. यह मुद्दा अब चूंकि राजनीतिक हो चुका है, तो लोग इसकी गहराइयों में नहीं जाना चाहते हैं. कई सारे विकसित देश हैं, जहां यूनिफॉर्म सिविल कोड नहीं है. जैसे, आप अमेरिका को देख लें. अमेरिका का ही फेडरल स्ट्रक्चर है. वहां राज्यों के अलग कानून हैं. कोई यूनिफॉर्म सिविल कोड नहीं है. वहां कई समुदाय और रिलिजस कम्युनिटी हैं, जिनके बिल्कुल अलग कानून हैं. तो, वेस्टर्न डेमोक्रेसी में यूसीसी हो ही, यह लागू नहीं है. इंग्लैंड की बात करें तो वहां लिखित संविधान नहीं है. हां, सामान्य कानून है, लेकिन अब वहां भी चर्चा हो रही है कि वे उन लोगों को कैसे गवर्न करे, जिनके धार्मिक कानून अलग हैं. तो, दुनिया लीगल प्लुरैलिटी यानी कानूनी बहुलतावाद की ओर जा रही है, भारत ही यूनिफॉर्मिटी की ओर बढ रहा है. यह बहुत अजीब है, क्योंकि हम सबसे विविध हैं. विविधता रखते हुए किसी को अधिकार देना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए.
बेहद जटिल विषय, सोच-समझकर लें फैसला
ड्राफ्ट न होना भी इस बात का एक तरह से संकेत है कि यह कितना जटिल विषय है. सरकार की तरफ से ड्राफ्ट नहीं आय़ा, लेकिन लोगों ने खांचे बना लिए हैं. ऑप्शनल कोड का एक्ट हम सभी के पास है, जिसका नाम है स्पेशल मैरिज एक्ट. उसको थोड़ा सुलझाकर, बढ़ा कर हम यूसीसी की ओर बढ़ सकते हैं. वह जब लाया गया था तो इसलिए कि अलग धर्मों के लोग शादी करें. अब वह भी पॉलिटिकल हो गया है, इसलिए उस पर कोई चर्चा नहीं कर रहा है. भ्रम इसलिए है कि एकरूपता चाहनेवाले नहीं जानते कि एकरूपता लाने के बाद क्या होगा? हिंदू मैरिज एक्ट में एक लाइन है जिमसें वह कस्टमरी मैरिज (यानी पारंपरिक विवाह) को भी मान्यता देता है. पारसी लॉ 1930 में कोडिफाई हुआ, लेकिन आजादी के बाद नहीं हुआ. लोग पहले अपनी पोजिशन तय कर लेते हैं, फिर मुद्दे को समझना चाहते हैं. वर्तमान लॉ कमीशन भी बहुतेरे लोगों, संस्थानों से संपर्क कर रहा है और वह अगर पूरे मसले को इसके सारे पक्ष-विपक्ष के साथ प्रस्तुत कर सके, तो बहुत ही अच्छा होगा. सरकार ध्रुवीकरण चाहती है या नहीं, अभी कहा नहीं जा सकता, लेकिन यह जो बात है कि वे महिलाओं के हित में यह करना चाहते हैं, वह तो बहुत साफ नहीं दिखता. चर्चा बहुत होती है, लेकिन ड्राफ्ट नहीं मिलता. महिलाओं के कई अधिकारों को लेकर भी सरकार की स्थिति साफ नहीं है.
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