प्रिय उदयनिधि स्टालिन, सनातन को सिर्फ पेरियार-करूणानिधि-थिरुमावलवन के जरिये नहीं, शंकराचार्य-वल्लभाचार्य-चार्वाक के नजरिये से भी देखिये...
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के बेटे और खुद वहां मंत्री पद संभालनेवाले उदयनिधि ने सनातन धर्म के बारे में बेहद आपत्तिजनक बयान दिया है. हालांकि, उनको डिफेंड करनेवाले लोग भी हैं, लेकिन एक लोकतांत्रिक देश में जहां बहुलतावाद ही पहचान है, वहां किसी धर्म विशेष के 'उन्मूलन' की बात, खासकर किसी संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति से कतई अपेक्षित नहीं है. उदयनिधि खुद यह भी भूल गए कि उनके अपने राज्य में सनातन की क्या स्थिति है, क्या योगदान है या सहिष्णुता के लिए सनातन किस तरह जाना जाता है. उदय की दृष्टि एकांगी और एक धार्मिक वर्ग के लिए घृणा से पीड़ित लगती है. इस पर पूरे देश में विरोध तो होना ही था.
उदयनिधि पहले अपने राज्य को जानें
उदयनिधि स्टालिन को एक सर्वे कराना चाहिए. उन्हें ये जानने की कोशिश करनी चाहिए कि शिव नाडार की कंपनी एचसीएल में किस जाति के कितने लोग काम करते हैं. उन्हें 1954 से 1963 के बीच के कामराज के मुख्यमंत्रित्वकाल का भी अध्ययन करना चाहिए, जिस दौरान तमिलनाडु की साक्षरता 7 फीसदी से बढ़ कर 37 फीसदी हो गयी, जिस दौरान पहली बार सरकारी स्कूलों में मिडडे मील का प्रयोग शुरू हुआ, जिस दौरान तमिलनाडु व्यापक रूप से औद्योगीकृत हुआ. पेरियार तक ने कामराज के कार्यों की सराहना की. सही मायनों में तमिलनाडु में विकास की जो नींव कामराज ने रखी थी, उसी मजबूत नींव पर बाद में द्रविड़ियन पार्टियों ने विकास के नाम पर अपनी पीठ थपथपाई. फिलहाल कुछ आंकड़े उदयनिधि स्टालिन के लिए. दलित इन्डियन चंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के चेयरमैन डॉक्टर मिलिंद कांबले के मुताबिक़, भारत के 5.72 करोड़ माइक्रो, स्माल एंड मीडियम साइज इंटरप्राइजेज (एमएसएमई) में से 62 फीसदी का मालिकाना हक़ एससी/एसटी/ओबीसी के पास हैं. महाराष्ट्र के बाद, तमिलनाडू में सबसे ज्यादा स्पेशल इकनोमिक जोन है, जहां 40 हजार से अधिक फैक्ट्रियां हैं. अब लौटते है मूल सवाल पर. तमिलनाडु की एक अतिपिछड़ी जाति “नाडार” से ताल्लुक रखने वाले कामराज ने क्या कभी जाति या धर्म को टार्गेट करने की कोशिश की, जैसा कि द्रविड़ आन्दोलन से निकले करूणानिधि या अब उदयनिधि स्टालिन करने की कोशिश कर रहे है. शिक्षा-उद्योग को राजनीति के केंद्र में रख कर तमिलनाडु की जो विकासगाथा लिखी गयी, उसमें सनातन कहाँ कहीं आड़े आया? अगर आया होता तो क्या आज तमिलनाडु विकास के कितने ही मानकों पर गुजरात से आगे होता?
सनातन और सोशल जस्टिस
उदयनिधि स्टालिन ने आखिर क्या कहा है? चेन्नई में 1 सितंबर को तमिलनाडु प्रगतिशील लेखक और कलाकार संघ के एक सम्मलेन में उदयनिधि ने कहा था, “हमें मच्छर, डेंगू बुखार, मलेरिया, कोरोना वायरस का विरोध नहीं करना चाहिए. हमें इसका उन्मूलन करना चाहिए. सनातन धर्म भी ऐसा ही है. तो पहली चीज़ यही है कि हमें इसका विरोध नहीं करना है बल्कि इसका उन्मूलन करना है. सनातन समानता और सामाजिक न्याय के ख़िलाफ़ है. इसलिए आपलोगों ने सम्मलेन का शीर्षक अच्छा रखा है. मैं इसकी सराहना करता हूँ." अब यहाँ समझने वाली बात यह है कि जो राज्य 70 साल पहले सोशल जस्टिस की अलख जगा चुका हो, देश में सर्वाधिक तेज गति से आर्थिक प्रगति की राह पर हो, वहाँ क्या वाकई सनातन की वजह से सोशल जस्टिस की राह में दिक्कतें आ रही होंगी? फिर, उत्तर भारत, जहां 90 के दशक की शुरुआत में सोशल जस्टिस का प्रयोग शुरू हुआ, को ले कर क्या कहा जा सकता है? आज बिहार में यादव, कुर्मी, मल्लाह जैसी जातियां क्या लालू यादव के सोशल जस्टिस एक्सपेरिमेंट से लाभान्वित नहीं हुई? अगर आपको यकीन न हो तो बिहार आ कर इन जातियों की बहुलता वाले गाँवों का दौरा कर के देख लें. हाँ, लालू यादव सोशल जस्टिस को इकोनोमिकल जस्टिस तक नहीं ले जा सके, जिस वजह से बिहार जैसे राज्यों में (उत्तर प्रदेश समेत) अभी भी बहुत सी जातियां है, जो आर्थिक रूप से काफी पीछे रह गयी, लेकिन राजनीतिक तौर पर तकरीबन सभी जातियां अब परिपक्व हैं, सशक्त हैं. बिहार में कभी होने वाले जातीय टकराव के केंद्र में “आर्थिक” मसले हुआ करते थे. जमीन हो, आरक्षण हो, लेकिन सनातन के कारण लालू प्रसाद यादव को सोशल जस्टिस का झंडा बुलंद करने में कोई दिक्कत आई हो, ऐसा उदाहरण देखने को नहीं मिलता. तो फिर तमिलनाडु जैसे अपेक्षाकृत प्रगतिशील और आर्थिक रूप से उन्नत राज्य में सनातन कैसे सोशल जस्टिस की राह में बाधा बन गया, समझ से परे है?
सनातन की सहूलियत समझिये
इस्लाम में जाति नहीं है. सनातन में भी नहीं है. लेकिन, भारत के मुसलामानों के बीच जाति प्रथा की कुरीति कितनी बड़ी और व्यापक है, इसे समझने के लिए उदयनिधि स्टालिन को सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा कमीशन की रिपोर्ट पढ़नी चाहिए. रंगनाथ कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में साफ़ कहा है कि मुसलमानों में जाति व्यवस्था अपने सबसे खराब स्वरुप में मौजूद है. जबकि वहाँ धर्म ने जाति की कोई व्यवस्था नहीं दी है. ऐसे में क्या उदयनिधि स्टालिन भारतीय मुसलमानों की शैक्षणिक-आर्थिक दुर्दशा के लिए यह कह सकेंगे कि सोशल जस्टिस या समानता की राह में उनका धर्म आड़े आ रहा है? नहीं. और कहना भी नहीं चाहिए क्योंकि कोई भी धर्म बांटता नहीं है, जोड़ता है. सनातन सदियों से सर्वे भवन्तु सुखिन: की बात कहता रहा है. उदयनिधि स्टालिन को इस बात का शुक्रिया करना चाहिए कि शायद सनातन दुनिया की इकलौती ऐसी सामजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक व्यवस्था है, जो खुद पर सवाल उठाता रहा है और खुद को करेक्ट करता रहा है. दक्षिण में न सिर्फ पेरियार बल्कि उनसे पहले और उनके बाद भी, कमोबेश समूचे भारत में कभी स्वामी दयानंद सरस्वती, कभी राजाराम मोहन राय, कभी ईश्वरचंद विद्यासागर, ज्योतिबा फुले, अंबेडकर, ललई यादव जैसों ने मौजूदा दौर की कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाया और समसामयिक व्यवस्था को करेक्ट करते रहे. पूरी दुनिया में यह सहूलियत, यह अधिकार कौन सी धार्मिक व्यवस्था अपने लोगों को देती है? ऐसी फ्लेक्सिबल सांस्कृतिक-धार्मिक व्यवस्था की वजह से ही आप अपनी कुरीतियों, अपने पाखण्ड, अपने आडंबर को पहचान कर समय-समय पर उसे करेक्ट करते रहते हैं. अलबत्ता, उदयनिधि स्टालिन चाहे तो इस बात पर विमर्श शुरू कर सकते है कि धर्म के नाम पर अर्थ के संकेंद्रीकरण का सोशल जस्टिस और इक्वालिटी पर क्या असर हो रहा है? और यह भी कि जाति का संबंध धर्म से है या किसी और चीज से, क्योंकि सनातन वाली बहस को फिलहाल हम अलग भी रख दें तो इस्लाम में कहीं भी जाति की बात नहीं है, लेकिन भारत में मुस्लिम समुदायों के बीच जातियां है. अब यह किसका असर है? धर्म का या अर्थ का?
धर्म, सनातन का एक हिस्सा भर है
उदयनिधि स्टालिन जाहिर तौर पर सनातन के बारे में कुछ नहीं जानते, कुछ भी नहीं समझते. उन्हें यह भी पता नहीं होगा कि शंकराचार्य अद्वैत की बात करते हैं और सिर्फ ब्रह्मम् सत्यम्, जगत मिथ्या मानते हैं. उन्हें शायद यह भी न पता हो कि माधवाचार्य द्वैतवाद का सिद्धांत देते हुए ब्रह्म के बनाए जगत को झूठ मानने से इंकार करते है. वहीं वल्लभाचार्य शुद्धाद्वैतवाद का सिद्धांत देते हुए शंकराचार्य को करेक्ट करने की कोशिश करते हैं और कहते है कि यह जगत तीन गुणों से बना है, सत्, चित् और आनन्द और उन्होंने इसी को आधार बना कर ईश्वर, जीव और जगत् की व्याख्या की. बुद्ध हैं कि आत्मा नहीं मानते और चार्वाक भी हैं, जो इस जगत को ही सत्य मान कर आत्मा के अस्तित्व को नकारते हैं. यह सब वेदान्त का हिस्सा है. इससे पहले हमारे पास वेद भी हैं. तो, सनातन को सिर्फ किसी ईश्वर या ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में देखेंगे तो उदयनिधि स्टालिन ऐसे हिंसक और उकसाऊ बयान ही देंगे. धर्म और धर्म की वजह से कालान्तर में पनपी कुरीतियों के लिए आप सनातन को दोष दे तो यह न तो तथ्यात्मक तौर पर सही होगा और न ही राजनीतिक तौर पर.
अपनी पुस्तक “सेपियंस” में युवाल नोआ हरारी ने इस बात का उल्लेख किया है कि मानव सभ्यता की शुरुआत में ही जब अतिरिक्त उगाए गए गेंहू का तत्कालीन समाज के विशिष्ट लोगों ने उपभोग करना शुरू किया तब से धर्म, दर्शन, साहित्य, कला का सृजन शुरू हुआ. इस बात को मौजूदा भारतीय सन्दर्भ में बस ऐसे समझने की जरूरत है कि गेंहू का बंटवारा भर अगर ठीक से हो जाए तो जिस सोशल जस्टिस और इक्वालिटी की चिंता उदयनिधि स्टालिन कर रहे हैं, वह अपने आप आ जाएगा. तमिलनाडु में यह काम बहुत हद तक हुआ भी है. आप राजनीति में हैं, सत्ता में हैं और सत्ता से बड़ा गेम चेंजर इस वक्त कुछ और नहीं. इसलिए सनातन को दोष मत दीजिये. बस, अपने काम पर ध्यान दीजिये. तमिलनाडु के जिन पूर्ववर्ती महान नेताओं ने तमिलनाडु को अग्रणी राज्य बनाया हैं, उस विरासत को आगे बढ़ाइए. आज तमिलनाडु के स्कूलों में, राजनीति में सोशल जस्टिस आया है या नहीं? कहाँ सनातन ने आपको बेहतर काम करने से रोका?
अंत में, उदयनिधि स्टालिन साहब, आपने जिस सम्मलेन में सनातन पर बयान दिया है, वह माकपा से जुड़े एक संगठन ने आयोजित किया था, तो पश्चिम बंगाल की 35 साल वाली वाम मोर्चा की सरकार से ही सीखिए कि कैसे पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा 35 साल सत्ता में रही और उसी दौरान बंगाल का दुर्गा पूजा पूरी दुनिया में मशहूर होता रहा. बहरहाल, अपने ही लोगों से झगड़ा नहीं करते. बदलाव एक सतत और धीमी प्रक्रिया है. इवोल्यूशन हर बार बेहतर चीज ले कर आता है. रेवोलुशन भी ऐसा ही करें, जरूरी नहीं.
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