हम तो इधर पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को लेकर नेताओं के वादों भरे भाषणों में उलझे हैं लेकिन उधर, अन्तराष्ट्रीय स्तर पर दुनिया की दो महाशक्ति आपस में भिड़ने के लिए तैयार दिख रही हैं. हालांकि इससे भारत पर कोई सीधा असर नहीं पड़ने वाला लेकिन दोनों बड़ी ताकतों में से किसी एक की भी गलती समूचे यूरोप को दहला कर रख सकती है और तब उसकी आंच में आने से हम भी बच नहीं सकते. इस बार अमेरिका और रूस के बीच तनातनी की वजह बन गया है-यूक्रेन. वैसे तो ये महज़ पौने पांच करोड़ की आबादी वाला पूर्वी यूरोप का ही एक छोटा-सा देश है लेकिन रुस इस पर अपना कब्जा जमाना चाहता है. इसकी पूर्वी सीमा रुस से लगती है. लिहाज़ा, रुस ने वहां अपने एक लाख से भी ज्यादा सैनिकों को तैनात करके इस छोटे मुल्क पर हमला करने के इरादे जता दिये हैं.


ये देखकर अमेरिका भला चुप कैसे बैठ सकता था, सो उसने यूक्रेन को सैन्य मदद ( US Military Aid) इफ़रात में देना शुरु कर दी है. यूक्रेन को रुस के संभावित हमले से बचाने के लिए अमेरिकी सैन्य सहायता शुक्रवार रात से ही वहां पहुंचनी शुरू हो गई है. अमेरिका ने यूक्रेन को उन घातक हथियारों की पहली खेप भी पहुंचा दी है, जो उसके पास नहीं थे और इनके जरिए वो रुसी सेना को मुंहतोड़ जवाब देने की हैसियत में आ जायेगा.मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक यूक्रेन के फ्रंटलाइन सैनिकों के लिए गोला-बारूद समेत करीब 2 लाख पाउंड की घातक हथियार सहायता भेजी गई है. यूक्रेन की राजधानी कीव में स्थित अमेरिकी दूतावास की ओर से ये जानकारी देते हुए रुस को ये खुला संदेश दे दिया गया है कि अमेरिका इस वक़्त यूक्रेन के साथ खड़ा है.


दरअसल, यूक्रेन कभी रूसी साम्राज्य का हिस्सा हुआ करता था और 1991 में सोवियत संघ के टूटने के बाद यूक्रेन को स्वतंत्रता मिली और तभी से यूक्रेन रूस की छत्रछाया से निकलने की कोशिशें करने लगा. इसके लिए यूक्रेन ने पश्चिमी देशों से नज़दीकियां बढ़ाईं. उसने ऐसा फ़ैसला तब लिया, जब उसके उत्तर और पूर्वी हिस्से की एक लंबी सीमा रूस से लगती है. अपनी स्वतंत्रता के बाद, यूक्रेन ने खुद को एक तटस्थ राज्य घोषित किया. उसने 1994 में पश्चिमी देशों के संगठन नाटो के साथ साझेदारी स्थापित करते हुए रूस और अन्य सीआईएस देशों के साथ एक सीमित सैन्य साझेदारी का गठन किया.


रूस पर आरोप लगते हैं कि वो यूक्रेन के अलगाववादियों को पैसे और हथियारों से मदद देकर वहां अस्थिरता फैलाने में लगा हुआ है. रूस इन आरोपों को ख़ारिज करता आया है. हालांकि पश्चिमी देशों का आरोप है कि वो खुलकर अलगाववादियों का समर्थन करता है. यूक्रेन के पूर्वी हिस्से में मौजूद डोनबास को औद्योगिक शहर माना जाता है. वहां पर 2014 में हुई लड़ाई के दौरान 14 हजार से अधिक लोग मारे गए थे. यूक्रेन और पश्चिमी देशों के आरोप हैं कि रूस अपने सैनिकों के जरिये भी विद्रोहियों की मदद कर रहा है. हालांकि रूस कहता है कि विद्रोहियों का साथ देने वाले रूसी स्वयंसेवक हैं. साल 2015 में फ्रांस और जर्मनी ने एक शांति समझौते की मध्यस्थता की, जिससे जंग तो रुक गई लेकिन इससे कोई ठोस व स्थायी राजनीतिक समाधान नहीं निकला.


कई विश्लेषकों का मानना है कि रूस यह दबाव की रणनीति के तहत कर रहा है ताकि यूक्रेन को पश्चिमी देशों के सुरक्षा संगठन नेटो में जगह न मिल सके. रुस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की सबसे बड़ी चिंता भी यही है कि यूक्रेन किसी भी सूरत में नेटो में शामिल न हो सके. वे तो ये चेता भी चुके हैं कि नेटो उनके लिए एक 'सीमा रेखा' की तरह है. उन्होंने कहा है कि नेटो सदस्यों की यूक्रेन में सैन्य ट्रेनिंग सेंटर बनाने की योजना है, जो यूक्रेन को नेटो में बिना शामिल किये ही रुस के ख़िलाफ़ सैन्य मज़बूती दे देगी.


हालांकि दोनों देशों के बीच बढ़ते हुए तनाव की वजह भी है. रूस का आरोप है कि यूक्रेन ने 2015 के शांति सौदे का सम्मान नहीं किया है और पश्चिमी देश यूक्रेन को इसका पालन कराने में नाकाम रहे हैं. उस सौदे के तहत रूस को एक कूटनीतिक जीत मिली थी और उसने यूक्रेन को विद्रोहियों के गढ़ों को स्वायत्तता देने और उन्हें आम माफ़ी देने के लिए बाध्य किया था. हालांकि, इस सौदे पर अमल नहीं हो पाया. इस पर अमल न करने के लिए यूक्रेन, रूस को ही ज़िम्मेदार ठहराता आया है. उसका कहना है कि रूसी समर्थित अलगाववादियों ने संघर्ष विराम का उल्लंघन किया और पूर्वी सीमा वाले विद्रोहियों के गढ़ में रूसी सैनिकों की मौजूदगी लगातर बनी हुई है.हालांकि, रूस इन दावों को ख़ारिज करता रहा है.


इन आरोप-प्रत्यारोपों की लड़ाई के बीच रूस ने यूक्रेन, फ्रांस और जर्मनी के साथ बैठक करने से इनकार कर दिया था और कहा था कि 2015 के शांति समझौते को यूक्रेन द्वारा न मानना बिल्कुल बेतुकी बात है और ये रुस का अपमान है.लेकिन इसके साथ ही रूस लगातार अमेरिका और उसके नेटो सहयोगी देशों पर यूक्रेन को हथियारों से मदद देने और संयुक्त सैन्य अभ्यास करने की आलोचना करता रहा है. उसका कहना है कि इससे पता लगता है कि यूक्रेन के सैनिकों को बलपूर्वक विद्रोहियों के इलाक़े को दोबारा क़ब्ज़ा करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है.पिछले साल की शुरुआत में पुतिन ने चेतावनी देते हुए ये भी कहा था कि यूक्रेन के पूर्वी हिस्से पर क़ब्ज़े की सैन्य कोशिशों के 'यूक्रेनी राष्ट्र के दर्जे के लिए गंभीर परिणाम' होंगे.


कल ही अमेरिकी दूतावास की ओर से एक ट्विटर पोस्ट में कहा गया है कि यूक्रेन के फ्रंट लाइन रक्षकों के लिए गोला-बारूद सहित लगभग दो लाख पाउंड की घातक हथियारों की सहायता भी इसमें शामिल है. दूतावास ने एक दूसरे ट्वीट में कहा कि साल 2014 के बाद से 2.7 बिलियन डॉलर की सहायता रूसी आक्रामकता के मुकाबले के लिए यूक्रेन को दी गई है जो ये प्रदर्शित करता है कि अमेरिका यूक्रेन की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है.


असल में,रूसी राष्ट्रपति पुतिन लगातार रूसियों और यूक्रेनियों को 'एक ही लोग' कहते आए हैं और वो दावा करते हैं कि सोवियत संघ के विघटन के समय में यूक्रेन को ग़लत तरीक़े से ऐतिहासिक रूसी ज़मीन मिल गई थी. चिंता की बात यह है कि यूक्रेन की सीमा के पास रूस के एक लाख से अधिक सैनिक इकट्ठा हैं. अमेरिका ने बताया है कि रूस ने इस सैनिक जमावड़े को लेकर कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया है. वहीं अब रूसी सेना अभ्यास के लिए बेलारूस की ओर भी जा रही है.यूक्रेन की उत्तरी सीमा बेलारूस,पोलैंड और स्लोवाकिया देश के साथ लगती है.


रूस के उप विदेश मंत्री सर्गेई रयाबकोव ने मौजूदा हालात की तुलना 1962 के क्यूबा मिसाइल संकट से की है. उस दौरान अमेरिका और सोवियत संघ परमाणु संघर्ष के क़रीब पहुंच गए थे.पश्चिमी ख़ुफ़िया एजेंसियों का मानना है कि रूस का यूक्रेन पर हमला 2022 के शुरुआती महीनों में ही होने की प्रबल आशंका है. लिहाज़ा,एक अदने-से मुल्क को कब्जाने और उसे बचाने को लेकर दो बड़ी ताकतों के बीच संभावित जंग का ये खतरा कैसे टलेगा और इसमें कौन मध्यस्थता के लिए आगे आएगा,फिलहाल तो ये कोई भी नहीं जानता.


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