रुस और यूक्रेन के बीच जारी जंग के 22वें दिन यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेन्स्की ने जर्मनी से मार्मिक गुहार लगाई है कि वह यूक्रेन की मदद के लिए आगे आये.जर्मनी, यूरोप का ताकतवर मुल्क और नाटो का सदस्य देश है लेकिन उसने अन्य यूरोपीय देशों की तरह रुस के खिलाफ अभी तक कोई प्रतिबंध नहीं लगाया है. ज़ाहिर है कि जर्मनी ने "बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना" बनने की खुमारी में आने की बजाय अपने हितों को ही फिलहाल ज्यादा तवज्जो दी है.
इसकी बड़ी वजह ये भी है कि उसने 77 बरस पहले युद्ध की जिस विभीषिका को झेला था,उसके निशान आज भी बर्लिन की धरती में दफन हैं. इसलिये पिछली आधी से भी ज्यादा सदी से वो भी भारत की तरह ही 'युद्ध नहीं बल्कि बुद्ध 'के बताए शांति के रास्ते पर ही आगे बढ़ने की नीति को अपनाता आया है. भारत और जर्मनी में एक समानता ये है कि दोनों ही देशों के नागरिक मोटे तौर पर शांतिप्रिय हैं.बेशक नाटो के अन्य देश जर्मनी सरकार पर दबाव बनाते आये हैं कि वो यूक्रेन को हथियार देकर उसकी मदद करे.लेकिन आम जनता से लेकर सरकार का एक बड़ा वर्ग मानता है कि अगर यूक्रैन को हथियार दिए गए ,तो युद्ध की आग और भड़केगी.
लेकिन जेलेन्सकी की सोच इसके उलट है.उनका मानना है कि रूसी आक्रमण के बाद जर्मनी उसकी (यूक्रेन की) सुरक्षा से अधिक अपनी अर्थव्यवस्था को तरजीह दे रहा है.हालांकि काफी हद तक ये सही भी है लेकिन चालाक कूटनीति ये कहती है कि कमजोर साथी का भी साथ तभी दिया जाये, जब उससे आपको सीधे-सीधे कोई नुकसान न होता हो. जर्मनी अगर रुस पर कड़े प्रतिबंध लगाता है,तो रूस नोर्ड स्ट्रीम-2 पाइपलाइन की परियोजना फौरन रोक देगा जिसका सबसे ज्यादा असर जर्मनी पर ही पड़ेगा.
यही वजह थी कि जर्मनी की संसद में गुरुवार को दिए गए अपने वीडियो संबोधन में जेलेंस्की ने रूस से प्राकृतिक गैस लाने को लेकर नोर्ड स्ट्रीम-2 पाइपलाइन के लिए जर्मन सरकार के समर्थन की जमकर आलोचना भी की.हालांकि यूक्रेन और अन्य देशों ने इस परियोजना का विरोध करते हुए पहले ही चेतावनी दी है कि इससे कीव और यूरोप की सुरक्षा को खतरा पैदा हो रहा है.लेकिन जर्मनी फिर भी रुस से सीधे दुश्मनी मोल लेने को तैयार नहीं दिखता. लेकिन जेलेन्स्की ने अपने भाषण में एक तरफ जहां कड़ा रुख दिखाया,तो वहीं भावुक अपील करते हुए जर्मनी को एक नई दीवार को नष्ट करने में मदद के लिए बुलाया, जिसे रूस, यूरोप में खड़ा कर रहा.
जेलेंस्की ने सांसदों से कहा, "यह बर्लिन की दीवार नहीं है, यह स्वतंत्रता और बंधन के बीच यूरोप में एक दीवार है और यह दीवार हरेक बम के साथ बड़ी होती जा रही है." लेकिन, यूरोप के इस शक्तिशाली देश का यूक्रैन को हथियार देने से इनकार करना ऐतिहासिक है और इसके कारणों को समझने के लिए हमें हिटलर की नाजी सेना और सोवियत संघ के बीच हुए युद्ध की तबाही को याद करना होगा.एक वार्षिक सर्वे के मुताबिक जर्मनी के लोग मानते हैं कि किसी भी टकराव को हल करने के लिए राजनयिक वार्ता सबसे बेहतर विकल्प है.वैसे भी जर्मनी की सेना शांति अभियानों के अलावा किसी और अभियान में बहुत कम हिस्सा लेती है. इसके कुछ अपवाद हैं जो बहुत विवादित थे. जिसमें 1990 में बालकन और हाल ही में अफ़ग़ानिस्तान शामिल है.
वैसे जर्मनी दुनिया के सबसे बड़े हथियार निर्यातकों में से एक है (हालांकि इसका उत्पादन अमेरिका और रूस के मुकाबले कम है). लेकिन, हथियार कहां भेजे जा रहे हैं इस पर सख़्त नियंत्रण है. पूर्ववर्ती एंगेला मर्केल की सरकार पर इन नियमों का पूरी तरह से पालन ना करने के भी आरोप लगते रहे थे.जर्मन मार्शल फंड के थॉमस क्लाइना-ब्रॉकहॉफ़ कहते हैं, ''जर्मनी में संयम की एक पुरानी नीति है और हथियारों के निर्यात को संघर्ष को कम करने के बजाय बढ़ावा देने के रूप में देखा जाता है. ये नीति कहती है कि जर्मनी टकराव वाले इलाक़ों में हथियार निर्यात नहीं करता.''
हालांकि सरकार के अंदर से भी यूक्रेन को हथियार भेजने की मांग के बावजूद जर्मनी के चांसलर ओलाफ़ ने हथियारों की बजाय फील्ड अस्पताल के लिए पैसा दिया है, घायल सैनिकों का जर्मनी में इलाज करने की पेशकश की है और जर्मनी ने यूक्रेन के सैनिकों के लिए रक्षात्मक हेल्मेट भेजे हैं.कुछ लोग ये भी मानते हैं कि हथियार भेजने से इस संकट का समाधान नहीं निकलेगा.
विदेश मंत्री और ग्रीन पार्टी की नेता एनालिना बेरबोक ने इस पर ज़ोर दिया है कि जर्मनी यूक्रेन का वित्तीय डोनर है और मानता है कि ये हथियार देने से ज़्यादा प्रभावी है.चांसलर ओलाफ़ स्कोल्ज़ अपनी पूर्ववर्ती एंगेला मर्केल की तरह ही बातचीत आधारित समाधान के पक्ष में हैं. एंगेला मर्केल फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के साथ पहले ही तथाकथित नॉरमैंडी फॉर्मेट पर काम कर रह थीं जिसमें जर्मनी, फ्रांस, यूक्रेन और रूस ने पूर्वी यूक्रेन में संघर्ष-विराम स्थापित करने का लक्ष्य रखा था.
विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता नील्स श्मैट कहते हैं, ''फ्रांस और जर्मनी मध्यस्थ हैं और एक मध्यस्थ के लिए यूक्रेन को हथियार देना सही नहीं है क्योंकि हम राजनयिक समाधान की कोशिश कर रहे हैं.''दरअसल,जर्मनी इस जंग में भारत की इस पुरानी कहावत पर अमल कर रहा है कि "सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे."
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)