जब-जब कहीं चुनाव होना होता है तो यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता का मसला सुर्खियों में आ जाता है. कर्नाटक विधानसभा चुनाव को देखते हुए एक बार फिर ऐसा ही हुआ है.


कर्नाटक विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी ने एक मई को अपना घोषणापत्र जारी किया. इसमें तमाम वादों के साथ ही एक और वादा यूनिफॉर्म सिविल कोड का था. 'प्रजा ध्वनि' के नाम से जारी इस घोषणापत्र में कहा गया है कि समान नागरिक संहिता लागू करने के मकसद से उच्च स्तरीय समिति का गठन किया जाएगा और समिति की सिफारिशों के आधार पर बीजेपी सरकार कर्नाटक में समान नागरिक संहिता लागू करेगी.


दरअसल बीजेपी के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड का एजेंडा पार्टी के अस्तित्व से भी पहले से जुड़ा है. लेकिन पिछले डेढ़ साल में जिन -जिन राज्यों में चुनाव हुए हैं, वहां बीजेपी ने इसे मुद्दे को जोर-शोर से उठाते हुए अपने घोषणापत्र में उन राज्यों में लागू करने का वादा किया है. अब यही काम कर्नाटक में भी किया गया है.


बीजेपी केंद्रीय स्तर पर फिलहाल ऐसा कोई प्रयास नहीं कर रही है, राज्यों में वो इसे लागू करने की बात कर रही है. इस मसले पर जब पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से सवाल किया गया तो उनका कोई स्पष्ट जवाब नहीं था. उन्होंने बस इतना कहा कि जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, हम मजबूत हो रहें और हम यूसीसी को आगे ले जाएंगे. राज्य राष्ट्र बनाते हैं और यह इसी तरह आगे बढ़ेगा.


यूनिफॉर्म सिविल कोड को मसले पर बीजेपी फूंक-फूंक कर कदम रख रही है. वो राज्यों के जरिए इस पर राष्ट्रव्यापी माहौल बनाने और देश की जनता के बीच ओपिनियन तैयार करने का काम कर रही है. चुनावी सरगर्मियों के साथ ही यूनिफॉर्म सिविल कोड का मुद्दे पर राजनीति भी शुरू हो जाती है. पिछले साल भी हमने देखा था कि जहां-जहां भी विधानसभा चुनाव हुए हैं, उन सभी राज्यों में यूनिफॉर्म सिविल कोड बड़ा चुनावी मुद्दा बन कर उभरा. 2022 में 7 राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए थे.  इनमें उत्तर प्रदेश उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर के अलावा हिमाचल प्रदेश और गुजरात शामिल थे. इन तमाम राज्यों में बीजेपी ने इसे अपने प्रचार और वोट मांगने के एजेंडे में शामिल किया था. इस साल भी 9 राज्यों में विधानसभा चुनाव होना है जिनमें से तीन राज्यों त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड में चुनाव हो चुका है. अब कर्नाटक के बाद मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़,  तेलंगाना और मिजोरम में चुनाव होने हैं. 2024 में लोकसभा चुनाव भी है.


भले ही केंद्र सरकार की ओर से तो यूसीसी लाने की कवायद ज़ोर नहीं पकड़ रही है, लेकिन बीजेपी शासित कुछ राज्यों में 2022 में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की पहल पर तेजी से काम शुरू हुआ. सबसे पहले उत्तराखंड में कोड का मसौदा बनाने के लिए 27 मई 2022 को रिटायर्ड जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में 5 सदस्यीय एक्सपर्ट कमेटी का गठन किया था. ऐसे तो इस कमेटी को इस साल मई तक रिपोर्ट दे देनी थी, लेकिन अब इस कमेटी ने सरकार से 4 महीने का और वक्त मांगा है. कमेटी का कहना है कि ड्राफ्ट तैयार करने का 75% काम हो गया है. कमेटी की ओर से मिली जानकारी के मुताबिक इस मसले पर  विवाह, तलाक, संपत्ति अधिकार, उत्तराधिकार, गोद लेने, बच्चों की कस्टडी जैसे विषयों पर करीब सवा दो लाख सुझाव मिले हैं और इसको पूरी तरह से तैयार करने में 4 महीने का और वक्त लग जाएगा.


गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले वहां की बीजेपी सरकार ने अक्टूबर 2022 में यूनिफॉर्म सिविल कोड के लिए विशेषज्ञ समिति बनाने का दांव चला था. बाद में इसे पार्टी के संकल्प पत्र में भई जगह दी गई थी. बीजेपी शासित राज्यों में उत्तराखंड के बाद गुजरात दूसरा राज्य है जिसने UCC के लिए विशेषज्ञ समिति बनाने का फैसला किया था. पिछले साल हिमाचल प्रदेश में हुए चुनाव के लिए जारी संकल्प पत्र में भी बीजेपी ने समान नागरिक संहिता लागू करने का वादा किया था. हालांकि वहां बीजेपी सत्ता बरकरार रखने में कामयाब नहीं रही.


मध्य प्रदेश में भी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पहले ही यूसीसी के लिए एक्सपर्ट कमेटी गठन करने की बात कह चुके हैं, उम्मीद है कि इस साल के आखिर तक होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले समिति का गठन हो जाए. हरियाणा में भी बीजेपी की सरकार है और वहां के गृह मंत्री अनिज विज भी कह चुके हैं कि जिन राज्यों में समान नागरिक संहिता लागू करने की योजना पर काम हो रहा है, उनसे हम सुझाव ले रहे हैं.


2014 से केंद्र में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी की सरकार है. राष्ट्रीय स्तर पर फैसला लेने से पहले बीजेपी समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर राज्यों के बहाने देश के लोगों का मन टटोल रही है. उसकी मंशा है कि इतने बड़े मुद्दे पर लोगों और राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति बनता दिखे. जैसे-जैसे लोकसभा का चुनाव नजदीक आते जाएगा, यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर हलचल और तेज होने की संभावना है.


यूनिफॉर्म सिविल कोड का मसला बीजेपी के लिए जनसंघ के समय से जुड़ा है. बीजेपी का गठन 6 अप्रैल, 1980 को हुआ. उसने पहला आम चुनाव 1984 में लड़ा. इसमें उसके वादों में सिर्फ अनुच्छेद 370 को हटाना शामिल था. पहली बार 1989 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में समान नागरिक संहिता को जगह दी. 2014 और 2019 के घोषणापत्र में भी बीजेपी ने इसे शामिल किया.


पार्टी के गठन से ही बीजेपी के लिए अनुच्छेद 370 को हटाना, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण और यूनिफॉर्म सिविल कोड को देशभर में लागू करना सबसे बड़े वादे रहे हैं. बीजेपी हमेशा से ये दलील देते रही है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड के बिना देश में लैंगिक समानता कायम करने की बात बेमानी है. पार्टी का कहना है कि इस कोड के जरिए ही देश की सभी महिलाओं के अधिकारों की रक्षा हो सकती है. 2014 में केंद्र में सत्ता हासिल करने के बाद बीजेपी सरकार अनुच्छेद 370 के उन प्रावधानों को हटाने का काम कर चुकी है, जिनसे जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा हासिल था. वहीं संवैधानिक प्रक्रिया को अपनाते हुए अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के वादे को भी पूरा कर चुकी है. अब उसके लिए तीन बड़े वादों में से सिर्फ यूनिफॉर्म सिविल कोड का मुद्दा ही बचा है जिसे लागू करने का रास्ता बीजेपी तलाश रही है और इसके लिए फिलहाल पार्टी ने राज्यों को जरिया बनाया है.


ऐसे तो लंबे वक्त से इस मसले पर बहस हो रही है, लेकिन जब अगस्त 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक पर ऐतिहासिक फैसला दिया, उसके बाद से समान नागरिक संहिता को लेकर चर्चा थोड़ी तेज़ हुई. अगस्त 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम समाज में एक बार में तीन तलाक बोल कर शादी को खत्म करने की परंपरा (तलाक-ए-बिद्दत) असंवैधानिक करार दिया था. इसके बाद जुलाई 2019 में संसद से तीन तलाक के दंश से छुटकारा देने के लिए मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) कानून बना. सुप्रीम कोर्ट के फैसले और तीन तलाक पर संसद से कानून के बनने के बाद सियासी गलियारों से लेकर आम लोगों के बीच यूनिफॉर्म सिविल कोड पर बहस तेज हो गई. तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को समान नागरिक संहिता के लिए एक बड़े तबके ने रास्ता मान लिया.


भारत जैसे बड़े देश, जहां धर्म से लेकर तमाम विविधता से भरे समुदाय के लोग रहते हैं, राज्यों की अलग-अलग सांस्कृतिक पहचान है, ऐसे में पूरे देश के लिए एक समान नागरिक संहिता पर राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति बनाना आसान नहीं है. इसलिए बीजेपी के लिए केंद्रीय स्तर पर इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ना चुनौती है. राष्ट्रीय सहमति बनाने की पहल के तहत बीजेपी इसे राज्यों के जरिए लागू करने की दिशा में आगे बढ़ रही है. ऐसा कहना भी ग़लत होगा कि बीजेपी ने केंद्रीय स्तर पर पूरी तरह से इसके लिए कुछ नहीं किया है. जून 2016 में केंद्र सरकार ने 21वें विधि आयोग से यूनिफॉर्म सिविल कोड की व्यावहारिकता और इसे लागू करने की गुजांइश को लेकर विचार करने को कहा था. इस मुद्दे पर आयोग ने देशभर के अलग-अलग लोगों और संस्थाओं से चर्चा की. अगस्त 2018 में कार्यकाल खत्म होने के पहले इस विधि आयोग ने जारी परामर्श पत्र में कहा था कि फिलहाल देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की जरुरत नहीं है. आयोग ने कहा था कि मौजूदा वक्त में यूनिफॉर्म सिविल कोड न तो जरुरत है और न ही वांछनीय. कुछ महीने पहले ही 22वें विधि आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति हुई है. अब आगे आयोग इस मुद्दे पर गौर करेगी.


केंद्र सरकार की ओर से बार-बार कहा गया है कि राज्य सरकारें यूनिफॉर्म सिविल कोड पर कानून लाने के लिए स्वतंत्र हैं. केंद्र सरकार का तर्क है कि पर्सनल लॉ से जुड़े विषय शादी, तलाक, वसीयत, संयुक्त परिवार संविधान की समवर्ती सूची में शामिल हैं. इसलिए इन पर राज्यों को भी कानून बनाने का अधिकार है. सुप्रीम कोर्ट ने भी इस साल जनवरी में कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 162 के तहत यूसीसी के लिए राज्यों की ओर से कमेटी गठित करने में कुछ भी गलत नहीं है. और वो ऐसा कर सकती है.


देश की शीर्ष अदालत की ओर से भी कई बार कहा गया है कि देश में अलग-अलग पर्सनल लॉ की वजह से भ्रम की स्थिति बन जाती है. सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2019 में निराशा जताई थी कि देश में समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कोई ठोस कोशिश नहीं की गई है. अक्टूबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा था केंद्र सरकार एक समान कानून बनाकर पर्सनल लॉ की विसंगतियों को दूर कर सकती है.


अक्टूबर 2022 में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दिया था. इसमें केंद्र सरकार की ओर से कहा गया था कि वो संसद को समान नागरिक संहिता पर कोई कानून बनाने का निर्देश नहीं दे सकती है. हालांकि इसी साल मार्च में सुप्रीम कोर्ट ने उन याचिकाओं पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया था, जिनमें देशभर के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की मांग की गई थी. इसके जरिए एक तरह से सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि ये नीतिगत फैसला है और इस पर कोई भी कानून बनाने का अधिकार संसद को है.


यूनिफॉर्म सिविल कोड का संबंध सिविल मामलों में कानून की एकरूपता से है. देश के हर व्यक्ति के लिए सिविल मामलों में एक समान कानून यूनिफॉर्म सिविल कोड की मूल भावना है. इसमें धर्म, संप्रदाय, जेंडर के आधार पर भेदभाव की कोई गुंजाइश नहीं होती है. इस कोड के तहत देश के सभी नागरिकों पर विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, पैतृक संपत्तियों में हिस्सा, गोद लेने जैसे मामलों के लिए एक ही कानून होते हैं. समान नागरिक संहिता होने पर धर्म के आधार पर कोई छूट नहीं मिलती. भारत में फिलहाल धर्म के आधार पर इन मसलों पर अलग-अलग कानून हैं. हिंदुओं, मुस्लिमों और ईसाइयों के लिए भारत में संपत्ति, विवाह और तलाक के कानून अलग-अलग हैं. अलग-अलग धर्मों के लोग अपने पर्सनल लॉ का पालन करते हैं. मुस्लिम, ईसाई और पारसियों का अपना-अपना पर्सनल लॉ है. हिंदू सिविल लॉ के तहत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध आते हैं.


संविधान के भाग चार में यूनिफॉर्म सिविल कोड का जिक्र किया गया है. संविधान के भाग 4 में अनुच्छेद 36 से लेकर 51 तक राज्य के नीति के निदेशक तत्व को शामिल किया गया है. इसी हिस्से के अनुच्छेद 44 में नागरिकों के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड का प्रावधान है. इसमें कहा गया है "राज्य, भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा." अब सवाल उठता है कि जब संविधान में इसका जिक्र है ही, तो आजादी के बाद इस पर कोई कानून क्यों नहीं बना. दरअसल संविधान के भाग 3 में देश के हर नागरिकों के लिए मूल अधिकार की व्यवस्था की गई है, जिसे लागू करना सरकार के लिए बाध्यकारी है. वहीं संविधान के भाग 4 में जिन नीति निर्देशक तत्वों का जिक्र किया गया है, उसे लागू करना सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं है.  इस हिस्से में शामिल प्रावधान लोकतंत्र के आदर्श है, जिसे हासिल करने की दिशा में हर सरकार को बढ़ना चाहिए. बाध्यकारी नहीं होने की वजह से ही देश में अब तक यूनिफॉर्म सिविल कोड नहीं बन पाया है.


संविधान सभा में इस पर व्यापक बहस हुई थी. कुछ सदस्य इसे मूल अधिकार में रखने के पक्ष में भी थे. संविधान सभा में 23 नवंबर, 1948 को इस पर विस्तार से बहस हुई. मोहम्मद इस्माइल, नज़ीरुद्दीन अहमद, महबूब अली बेग साहिब बहादुर, हुसैन इमाम ने समान नागरिक संहिता से जुड़े अनुच्छेद में संशोधन का प्रस्ताव पेश किया. इन लोगों का कहना था कि सिविल मामलों में हर शख्स को अपने धर्म के मुताबिक आचरण करने की छूट होनी चाहिए. किसी भी वर्ग या समुदाय के लोगों को अपना निजी कानून छोड़ने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए. केएम मुंशी और अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर ने समान संहिता के पक्ष में दलील दी थी. संविधान निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले डॉ. बीआर अंबेडकर भी समान नागरिक संहिता के समर्थन में थे. अंबेडकर का तर्क था कि देश में महिलाओं को समानता का अधिकार दिलाने के लिहाज से धार्मिक आधार पर बने नियमों में सुधार बेहद जरूरी है. आजाद भारत में महिलाओं की स्वतंत्रता और समानता के लिए अंबेडकर ने समान नागरिक संहिता बेहद जरूरी बताया था. बाद में इसे नीति निर्देशक तत्त्व के अन्दर शामिल कर उस वक्त राज्य को हर कीमत पर लागू करने की संवैधानिक बाध्यता से बचा लिया गया.


मुस्लिम नेताओं के भारी विरोध के कारण देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू समान नागरिक संहिता पर आगे नहीं बढ़े. हालांकि 1954-55 में भारी विरोध के बावजूद हिंदू कोड बिल लेकर आए. हिंदू विवाह कानून 1955, हिंदू उत्तराधिकार कानून 1956, हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण कानून 1956 और  हिंदू अवयस्कता और संरक्षकता कानून 1956 लागू हुए. इससे हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख समुदायों के लिए शादी, तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने जैसे नियम संसद में बने कानून से तय होने लगे. लेकिन मुस्लिम, ईसाई और पारसियों को अपने -अपने धार्मिक कानून के हिसाब से शादी, तलाक, उत्तराधिकार जैसे मुद्दे को तय करने की छूट बरकरार रही.


इस कोड के पक्ष धर लोगों का कहना है कि संविधान की प्रस्तावना में शामिल समानता और बंधुत्व का आदर्श तभी पाया जा सकता है, जब देश में हर नागरिक के लिए एक समान नागरिक संहिता हो.  42 वें संविधान संशोधन के जरिए भारतीय संविधान की प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया. इसके तहत सरकार किसी भी धर्म का समर्थन नहीं करेगी. कोड के पक्ष में दलील दी जाती है कि  धार्मिक आधार पर पर्सनल लॉ होने की वजह से संविधान के पंथनिरपेक्ष की भावना का उल्लंघन होता है. संहिता के हिमायती यह मानते है कि हर नागरिक को अनुच्छेद 14 के तहत कानून के समक्ष समानता का अधिकार, अनुच्छेद 15 में धर्म, जाति, लिंग के आधार पर भेदभाव की मनाही और अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और निजता के संरक्षण का अधिकार मिला हुआ है. उनकी दलील है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड के अभाव में महिलाओं के मूल अधिकार का हनन हो रहा है. शादी, तलाक, उत्तराधिकार जैसे मुद्दों पर एक समान कानून नहीं होने से महिलाओं के प्रति भेदभाव हो रहा है. इन लोगों का तर्क है कि लैंगिक समानता और सामाजिक समानता के लिए समान नागरिक संहिता होना ही चाहिए. पक्ष में तर्क देने वाले लोगों का कहना है कि मुस्लिम समाज में महिलाएं धर्म के आधार पर चल रहे पर्सनल लॉ की वजह से हिंसा और भेदभाव का शिकार हो रही है. इन महिलाओं को बहुविवाह और हलाला जैसी प्रथाओं का दंश झेलना पड़ रहा है.


अल्पसंख्यक समुदाय के लोग यूनिफॉर्म सिविल कोड का खुलकर विरोध करते आए हैं. आजादी के बाद से ही मुस्लिम समाज इसे उनके निजी जीवन में दखल का मुद्दा मानते रहा है. विरोध में तर्क देने वाले लोगों का कहना है कि संविधान के मौलिक अधिकार के तहत अनुच्छेद 25 से 28 के बीच हर शख्स को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार मिला हुआ है. इसलिए हर धर्म के लोगों पर एक समान पर्सनल लॉ थोपना संविधान के साथ खिलवाड़ करना है. मुस्लिम इसे उनके धार्मिक मामलों में दखल मानते हैं. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) हमेशा से यूनिफॉर्म सिविल कोड को असंवैधानिक और अल्पसंख्यक विरोधी बताते रहा है. ये बोर्ड दलील देता है कि संविधान हर नागरिक को अपने धर्म के मुताबिक जीने की अनुमति देता है. इसी अधिकार की वजह से अल्पसंख्यकों और आदिवासी वर्गों को अपने रीति-रिवाज, आस्था और परंपरा के मुताबिक अलग पर्सनल लॉ के पालन करने की छूट है. बोर्ड का तर्क है कि संविधान के अनुच्छेद 371(A-J) में देश के आदिवासियों को अपनी संस्कृति के संरक्षण का अधिकार हासिल है. अगर हर किसी के लिए समान कानून लागू किया जाएगा तो देश के अल्पसंख्यक समुदाय और आदिवासियों की संस्कृति पर असर पड़ेगा.


समान नागरिक संहिता के रास्ते में वोट बैंक की राजनीति एक बड़ी बाधा रही है.  भारत में इस पर आम सहमति बनाने की जरूरत है. मुस्लिम वोट बैंक के नुकसान के डर से शुरू से कांग्रेस कभी खुलकर इसके पक्ष में नहीं बोलती है. कांग्रेस का कहना है कि सिर्फ राजनीतिक फायदे और ध्रुवीकरण के लिए बीजेपी इसे मुद्दा बनाते रही है. कांग्रेस आरोप लगाते रही है कि जब-जब चुनाव का वक्त आता है, बीजेपी इस मुद्दे को हवा देती है. कांग्रेस नेता और जाने माने वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा था कि राजनीतिक हथकंडा बनाने की बजाय केंद्र सरकार को इस पर गंभीरता से सहमति बनाने की कोशिश करनी चाहिए. देश में इसे लागू करने के लिए संविधान में संशोधन की जरूरत होगी. बीजेपी को संसद से इसे कानून बनाने के रास्ते में आने वाली अड़चनों का अहसास है. वो चाहती है कि धीरे-धीरे इस मसले पर लोग आगे आएं और इसपर बहस करें. उसके बाद ही संसद में पूरे देश के लिए एक समान नागरिक संहिता बनाने की पहल की जाए.


जिस तरह से बीते कुछ महीनों में बीजेपी विधानसभा चुनावों में इस मुद्दे को प्रमुखता से उठा रही, उससे देश के एक बड़े वर्ग को लगता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले भारत में समान नागरिक संहिता लागू होने का रास्ता खुल सकता है. अब बीजेपी के अनुच्छेद 370 और राम मंदिर के बाद यहीं सबसे बड़ा मुद्दा बचा रह गया है जिसे उसे लागू करना है. 2024 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए राजनीतिक मामलों के कई जानकार का कहना है कि इस साल या तो मानसून सत्र में या फिर शीतकालीन सत्र में नरेंद्र मोदी सरकार इस दिशा में संसद में कोई पहल कर सकती है. 22वें विधि आयोग से मिलने वाली सिफारिशों के बाद हो सकता है कि केंद्र सरकार की ओर से इससे जुड़ा बिल संसद में पेश किया जाए. अगर ऐसा नहीं भी हुआ तो नरेंद्र मोदी सरकार के रवैये को देखते हुए 2024 में अगर बीजेपी चुनाव जीत जाती है तो उसके बाद यूनिफॉर्म सिविल कोड के वादे को पूरा करने के लिए वो पूरा प्रयास करेगी.


हालांकि ये मुद्दा इतना संवेदनशील है कि इस पर आम सहमति बनाना किसी भी सरकार के लिए आसान काम नहीं होगा. एक और भी पहलू  कि ये हम सब जानते हैं कि कुछ राज्यों में लागू करने से सही मायने में यूसीसी का कोई मतलब नहीं रहेगा, जब तक कि इस पर संसद से देशव्यापी कोई कानून नहीं बन जाता है. राज्यों के जरिए जो भी कोशिश की जा रही है, वो राजनीतिक फायदे से ही ज्यादा जुड़ा है, वास्तविक तौर से यूसीसी लागू करने से नहीं क्योंकि ऐसा कैसे संभव हो सकता है कि एक राज्य में एक समुदाय के लिए यूसीसी से जुड़े विषयों विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, पैतृक संपत्तियों में हिस्सा, गोद लेने जैसे मामलों पर कुछ कानून हो और दूसरे राज्यों में कुछ और. ये व्यावहारिक नहीं लगता. समान नागरिक संहिता असल मायने में तभी लागू हो सकता है, जब ये पूरे देश के लिए हो. हालांकि भारत जैसे बड़े और विविधता वाले देश में इस मुद्दे पर सबके बीच सहमति हो और उसके बाद ही लागू हो, ये भी जरूरी है.


(ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)